21-May-2018 08:17 AM
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आर्यावर्त से इंडिया तक की यात्रा में आर्यावर्त के परम पूज्य पुण्यधाम के प्रतीक श्रीराम का स्मरण मात्र भी सुख देने वाला है। संत तुलसीदास कहते हैं कि राम नाम ही अपने आप में एक सम्पूर्ण विज्ञान और धर्म है। इस विज्ञान और धर्म का जो सामंजस्य बिठा लेता है वह राम का अनुचर बन जाता है और जो नहीं बिठा पाता वह अन्धविश्वास और अन्धश्रद्धा में डूबकर अपना अनमोल जीवन यूं ही व्यर्थ गंवा बैठता है। मानसकार कहते हैं- बंदउँ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। अमिअ मूरियम चूरन चारू, समन सकल भव रुज परिवारू।।
संत तुलसीदास के जीवन में घटी घटनाएं और उन घटनाओं से उन्होंने जो सीखा उससे उनका सम्पूर्ण जीवन ज्ञान-विज्ञान, मानव मूल्यों और अध्यात्म की रश्मों से युक्त हो गया। अपनी पत्नी के प्रति अतिशय लगाव और उससे मिली पत्नी द्वारा सीख ने उन्हें रामबोला से संत तुलसीदास बना दिया। लोक प्रचलित ये पंक्तियां-‘अस्थि धर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति, ऐसी जो श्रीराम में, होय न भव भय भीति’।। एक सांसारिक व्यक्ति परिवार में सीख लेकर कैसे संसार को सत्य, प्रेम और आनन्द की राह दिखाने का कार्य करता है, संत तुलसीदास के जीवन दर्शन में हम देख सकते हैं। ऐसे संत तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस में धर्म अर्थात् मानव मूल्यों की स्थापना किस हद तक हुई है, प्रस्तुत लेख में प्रमाणों के साथ देखने को मिलेगी।
भारतीय संस्कृति की ज्ञानमयी, विज्ञानमयी और ऋत्मयी अमृतधारा की संपृक्तता को विश्व मानस में जो प्रतिष्ठा प्राप्त है उसमें विश्व चेतना के सोमरस की स्थापना सनातन काल से होती आई है। इस सोमरस ने भारतभूमि को अतिप्रतिष्ठा दी है। यह सोमरस क्या है और इसका पान कौन करता है? इस प्रश्न को अत:करण में समावेशित करने पर प्रकट होता है कि यह सोमरस और कुछ नहीं बल्कि वे मानव मूल्य हैं जो सच्चे अर्थों में मनुष्य को मानव बनाते हैं। जिनके पान करने से सारा जीवन दैव तुल्य हो जाता है। कहना न होगा कि इन मूल्यों का सर्वप्रथम दिग्दर्शन विश्व के प्रथम ज्ञान-विज्ञानमयी ग्रंथ वेद में होते हैं। वेद से होते हुए ये मूल्य विश्व के अन्य सभी धर्म, ज्ञान-विज्ञान और चेतना के ग्रंथों में किसी न किसी रूप में प्रस्फुटित होते दिखलाई पड़ते हैं। रामचरितमानस में ये मनुष्य को मानव बनाने वाले सोम अर्थात् मूल्य किस रूप में स्फुटित हुये हैं इसे हम विविध रूपों में देख सकते हैं। रामचरितमानस ऐसा कालजयी अमृतधारा का महाकाव्य है जिसमें मानव जीवन की पूर्णता और विज्ञानधर्मिता का दिग्दर्शन जीवंत रूप में द्रष्टव्य होता है। संत तुलसीदास ने भगवान राम और महर्षि बाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सम्पूर्ण जीवन चरित के माध्यम से मानव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कराने में सहायक मानव मूल्यों का वर्णन आदर्श ज्ञानमयी, भक्तिमयी और कर्ममयी धारा में किया है। राम का चरित मानवीय मूल्यों और सुभाषितों से किस प्रकार परिपूर्ण हैं इसे हम रामचरित- मानस के परिप्रेक्ष्य में विवेचित करेंगे।
जिस मर्यादा और संस्कार के कारण राम सर्वपूज्य हुए उस राम का जीवन वृतान्त ही तो है रामचरितमानस में। लेकिन बात मात्र इतनी ही नहीं है। राम के जीवन वृतान्त के द्वारा तुलसीदास ने समाज, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान और पौराणिक दर्शन को भी बहुत ही सरस, सरल और विज्ञानमय भाषा के माध्यम से समझाने का सफल प्रयास किया है। मर्यादा मानव की कैसी होनी चाहिए, इसे जो जानता समझता है वह राम बन जाता है और जो मर्यादा को न जानता और मानता है वह रावण और कुम्भकरण बन जाता है। मानव को मर्यादावान होना ही चाहिए। यह मर्यादा ही मानव धर्म का आभूषण यानी मूल्य हैं। जैसे मूल्य विहीन कोई वस्तु किसी काम की नहीं होती उसी प्रकार से मूल्य विहीन मानव जीवन भी किसी भी अर्थ का नहीं होता। अर्थात् निरर्थक होता है। मानस की ये पंक्तियां-‘‘नीति प्रीति यश-अयश गति, सब कहं शुभ पहचान, बस्ती हस्ती हस्तिनी देत न पति रति दान’’। कहने का भाव यह है जिस भारत में हाथिनी हाथी को गांव से बाहर जाकर रति दान देती है, वहां मानव को तो हरहाल में मर्यादा और संयम में रहकर ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। मूल्यों की स्थापना का यह उत्कृष्ट दृश्य है। और संयम, मर्यादा और धर्म का एक अन्य चित्रण देखिए-संयम यह न विषय कै आसा।। यह प्रेरणा और उपदेश आज और भी अधिक उपयोगी और प्रासंगिक है- पर धन कूं मिट्टी गिनै, पर त्रिया मात समान। आगेज्जननी सम जानहिं पर नारी।। यह है राम के आराधक का मानव जीवनदर्शन की उत्कृष्टता का एक दृश्य।
जब मानव मूल्यों से युक्त होता है तब उसमें दया, करुणा, अहिंसा, प्रेम, सत्य, सदाशयता, सहिष्णुता, धैर्य, परोपकार, संयम, पवित्रता, अपरिग्रह, सुचिता, शान्ति, सन्तोष, अभय, सत्साहस और आत्मविश्वास का उदय होता है। परमात्मा की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए वह जप, तप और व्रत जैसे साधनापरक कार्य में संलग्न रहता है। लेकिन जब उसमें मानव मूल्यों अर्थात् धर्म से सर्वदा और सर्वथा अभाव रहता है तो वह अनेक तरह के विकार, विषय और अज्ञानता से भर जाता है। गोस्वामी जी कहते हैं-जब तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना। सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ नहिं पावइ छेमा।। ज्ञान, ध्यान, विज्ञान, साधना और धर्म का सम्यक् पालन करना प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है। राम, भरत, हनुमान और अंगद के माध्यम से मानसकार ने बहुत ही उत्कृष्टता के साथ मानस में वर्णित किया है। मानस की ये बहुप्रचलित पंक्तियां इस बात को बताती हैं-जप तप नियम जोग धर्मा। श्रु्रति सम्भव नाना सुभ कर्मा। ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहं लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।। आगम-निगम पुरान अनेका। पड़े सुने कर प्रभु एका।। तब पद पंकज, प्रीति निरन्तर। सब साधन कर यह फल सुन्दर।।
भक्ति के वर्णन में तुलसी सगुण और निगुण शब्दों के माध्यम से भक्ति का निरुपण करते हैं। नवधा भक्ति पौराणिक जगत् में अति प्रसिद्ध है। परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना का वैदिक स्वरूप मानस में भले ही न हो लेकिन जिस रूप में है वह परम्परागत है। जैसे अन्धविश्वास और विश्वास में बहुत सूक्ष्म अन्तर है उसी तरह श्रद्धा और अन्धश्रद्धा तथा भक्ति और अन्धभक्ति में भी सूक्ष्म अन्तर है। तुलसी इस बात को मानस में कई स्थलों पर समझाते हैं। जन्म मरण के बन्धन से छूटने के लिए ईश्वर की सच्ची भक्ति और सतकर्म आवश्यक है। साथ ही परोपकार, विद्या और धर्म का पालन भी आवश्यक है।
-ओम