17-Apr-2018 08:03 AM
1234819
दलित समुदाय की नाराजगी झेल रही बीजेपी की मुश्किल खत्म होने की जगह बढ़ती ही जा रही है। आरक्षण को लेकर अमित शाह की सफाई और आश्वासन के बावजूद असर न होते देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद दखल देना पड़ा है। यूपी के चार दलित सांसदों की चि_ी को 2019 के लिए चेतावनी के तौर पर लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दिल्ली बुलाया - और डिप्टी सीएम केशव मौर्या की मौजूदगी में विस्तार से बात की। साथ ही, यूपी बीजेपी से डिटेल रिपोर्ट भी मांगी है। प्रधानमंत्री ने सांसदों द्वारा उठाये गये मसलों के लिए जल्द समाधान निकालने को कहा है।
ज्ञातव्य है कि बीजेपी के ही चार सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर दलितों का उत्पीडऩ, उनके साथ भेदभाव और 2014 में किये गये वादे पूरे न करने का इल्जाम लगाया है। ये सांसद हैं - सावित्री बाई फूले, छोटेलाल खरवार, अशोक दोहरे और यशवंत सिंह। ये सभी यूपी से हैं और खास तौर पर मुख्यमंत्री योगी से खासे खफा हैं। रॉबट्र्सगंज से सांसद खरवार का तो बड़ा आरोप है कि जब वो अपनी फरियाद लेकर योगी के पास पहुंचे तो मुख्यमंत्री ने डांट कर भगा दिया।
बगावत का बिगुल सबसे पहले बजाया बहराइच से सांसद सावित्री बाई फूले ने। फूले ने तो बहराइच से चल कर लखनऊ में संविधान और आरक्षण बचाओ रैली भी की। सवाल ये उठता है कि क्या ये सब सिर्फ दलितों के हित के लिए हो रहा है? या फिर बगावत पर उतर आये इन सांसदों का अपना कुछ निजी स्वार्थ भी है? गौर करने वाली बात है कि चारों पहली बार संसद पहुंचे हैं - और इनमें ज्यादातर बाहर से बीजेपी में आये हैं। मतलब ये कि मौका मिलते ही ये बीजेपी में एंट्री लिये और टिकट पाकर मोदी लहर में लोक सभा चुनाव जीत गए।
फूले कांशीराम की विचारधारा से प्रभावित होकर राजनीति में आयीं, लेकिन 2002 में बीजेपी में शामिल हो गयीं। फूले भगवाधारी तो हैं लेकिन अब उन पर नीले रंग का असर ज्यादा दिखायी दे रहा है। यहां तक कि लखनऊ में जो रैली उन्होंने की थी उसमें भी नीले रंग का ही दबदबा दिखा। मंच पर भी दीनदयाल उपाध्याय या फिर मोदी-शाह की तस्वीर की जगह कांशीराम की तस्वीर ही नजर आयी। बाकी तस्वीर अपने आप साफ हो जाती है, किसी इशारे की भी जरूरत नहीं लगती। अशोक दोहरे और यशवंत सिंह दोनों ही बीजेपी सांसद, मायावती सरकार में मंत्री रह चुके हैं।
छोटेलाल खरवार ने प्रधानमंत्री को जो चि_ी लिखी है उसमें योगी के साथ-साथ यूपी बीजेपी प्रभारी सुनील बंसल की भी शिकायत की है - पत्रकारों से बातचीत में कहते भी हैं कि बंसल को वो फूटी आंख नहीं सुहाते। खरवार की नाराजगी समझें तो दलित हित से ज्यादा उनके भाई को नौगढ़ के ब्लॉक प्रमुख पद से हटाये जाने को लेकर है। खरवार का कहना है कि उन्होंने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग से भी संपर्क कर अपनी शिकायतें दर्ज कराई हैं। एक दिलचस्प बात और - खरवार खुद बीजेपी के अनुसूचित जाति-जनजाति इकाई के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
सांसदों की शिकायत में और भी लोचे लगते हैं। अगले चुनाव को लेकर इन्हें कम से कम दो बातों का डर है। एक, कहीं प्रधानमंत्री मोदी 2019 में इन्हें देख न लें यानी इनका टिकट न कट जाये - और दूसरा, टिकट मिल भी जाये तो जीत पाएंगे जरूरी नहीं है। दरअसल, मोदी लहर में तो पिछली बार ये जीत गये अब समाजवादी पार्टी और बीएसपी मिल कर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं, ऐसे में उनकी हैसियत कितनी बचेगी। अगर बीजेपी ने इन्हें जीतने योग्य नहीं समझा तो टिकट तो मिलने से रहा। ऐसे में बेहतर तो यही है कि मौका मिले और मायावती मान जायें तो घर वापसी कर लेने में ही भलाई है। यही वजह है कि चारों सांसदों की बगावत का आधार कमजोर लगता है - चार साल चुपचाप मोदी-मोदी जपते रहे और अचानक जब 2019 नजदीक दिखा तो दलित हित की फिक्र होने लगी।
सारे उपक्रम पर फिरा पानी
दलित राजनीति का जो नमूना 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला वो एक मिसाल है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठा कर बीजेपी ने जो संदेश देना चाहा, लगता है सब मिट्टी में मिल गया। अमित शाह के दलित स्नान से लेकर दलित भोज तक सब पर लगता है पानी फिर गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कुआं, एक मंदिर और एक शमशान की मुहिम हवा हो गयी। तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी की मोदी सरकार की छवि दलित विरोधी नजर आने लगी है। संसद में राजनाथ सिंह सफाई दे रहे हैं और अमित शाह को बचाव में बयान जारी करना पड़ रहा है और कर्नाटक की चुनावी रैली में राहुल गांधी कह रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप हैं। क्या वास्तव में दलितों को लेकर बीजेपी का स्टैंड यही है या फिर वो राजनीति में फंस गयी है?
द्यमधु आलोक निगम