17-Apr-2018 07:45 AM
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हाल ही में पुणे के एक निजी कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक बयान दिया और पूरे देश के राजनीतिक पंडितों के बीच चर्चा का बाजार अचानक से गर्म हो गया। संघ प्रमुख ने अपने सबसे चहेते स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी के उस राजनीतिक जुमले को ही खारिज कर दिया जिसके सहारे उन्होंने देश की सबसे पुरानी पार्टी के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया। जिस जुमले को कांग्रेस के ही कुछ नेता अपनी दबी जुबान में हकीकत मानने लगे थे उसको संघ के मुखिया ने ही राजनीतिक बताकर किनारा कर लिया। तो अचानक ऐसा क्या हुआ कि आरएसएस को देश की राजनीति में कांग्रेस पार्टी एक बार फिर से प्रासंगिक लगने लगी है। क्या नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत का हनीमून पीरियड अब खत्म हो चुका है?
ऐसा कहना जल्दबाजी होगी कि संघ को अब मोदी की कार्यशैली पर शंका होने लगी है। पिछले 4 वर्षों में संघ ने मोदी सरकार को हर स्तर पर ऑक्सीजन देने का काम किया है। प्रवीण तोगडिय़ा से लेकर गोविंदाचार्य तक को चुप भी कराया और सरकार की नीतियों की खुलकर तारीफ भी की। दरअसल समय-समय पर देश की राजनीति में कुछ लोग ये सवाल अक्सर उठाते रहते हैं कि संघ का भारतीय जनता पार्टी की नीतियों में एक बड़े स्तर पर हस्तक्षेप होता है। आरएसएस के लोगों ने इसे हमेशा ही नकारा है और खुद को एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में ही बोलना और सुनना पसंद किया है। हो सकता है कि ऐसा बोलकर संघ प्रमुख
अपने उसी दावे को मजबूत करने का काम कर रहे हों। लेकिन मौजूदा वक्त में इस बयान के मायने के लिए हमें थोड़ा संघ के इतिहास को टटोलना होगा।
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने राजनीति को हमेशा दोयम दर्जे का ही कर्म समझा और उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत रूप से इसमें रूचि नहीं ली। जनसंघ की स्थापना के समय संघ से राजनीति में जाने वाले स्वयंसेवकों से उन्होंने कहा था - आप चाहे राजनीति में जितना ऊपर चले जाएं, अंतत: आपको लौटना धरती पर ही होगा। तो क्या आज के राजनीतिक परिदृश्य में ये बात नरेंद्र मोदी पर फिट बैठती है। तो क्या संघ प्रमुख विश्व नेता का तमगा पाने वाले अपने स्वयंसेवक को इशारों में यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं। आप संगठन से हैं, संगठन आप से नहीं है। आखिर संघ को ये जताने की जरुरत क्यों पड़ी? मोदी सरकार को सत्ता में आये लगभग 4 साल पूरे होने वाले हैं। जिन वादों और दावों के साथ ये सरकार आयी थी उसमें ये कहीं न कहीं फेल होती हुई दिख रही है। रोजगार पैदा करने में सरकार असफल रही, किसानों की हताशा बढ़ रही है और एक के बाद एक बैंक घोटालों ने मोदी सरकार की नीतियों पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगाया है।
सरकार के प्रति बढ़ते असंतोष ने संघ की चिंता को बढ़ाने का काम किया है। हो सकता है ये बयान उसी खीझ में दिया गया हो। आखिर संघ के कार्यकर्ताओं को भी तो लोगों को जवाब देना पड़ता होगा। आज नरेंद्र मोदी भले ही लोकप्रियता के शिखर पर सवार हों पर भविष्य में भी ये बदस्तूर जारी रहे ,ऐसा कहना जल्दबाजी होगा। अगले चुनाव में हार का जोखिम संघ कभी नहीं लेना चाहेगा, क्योंकि उसे मालूम है कि अगर इस बार चूके तो फिर उसके सपनो का भारत सपना ही रह जायेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि जनता बार-बार बड़े परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं होती है।
संघ किसी भी नेता को उसी समय तक स्वीकार करेगा जब तक वो लोकप्रियता के शिखर पर सवार हो और संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करता रहेगा। अब ये चिंता भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को करनी होगी की वो जनता के बीच में कैसे अपनी विश्वसनीयता को बरकरार रख पाते हैं और उसे ये समझाने में सफल हो पाते हैं कि कांग्रेस मुक्त भारत ही भारत के विकास का एक मात्र जरिया है, जैसा की उन्होंने 2014 में किया था। वरना वक्त बदलता है और सत्ता भी बदलती है। प्राय: ऐसा ही होता आया है।
याद कीजिये 2013 में नरेंद्र मोदी को बीजेपी की तरफ से जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुना गया तो पार्टी के भीष्म पितामह बिना किसी को बताये अज्ञातवास पर चले गए, सारे रिश्ते नाते तोड़ लिए। अब लगने लगा था कि पार्टी को उनकी इस जिद के आगे झुकना ही पड़ेगा और मोदी को भी पीछे हटना होगा। ऐसे में संघ ने मोर्चा संभाला और पार्टी के सीनियर नेताओं के विरोध को दरकिनार करते हुए उन्हें जनभावनाओं का सम्मान करने की नसीहत तक दे डाली। तमाम बाधाओं को पार कर 2014 में 16 मई की तारीख को नरेंद्र मोदी ने संघ के फैसले को हमेशा के लिए ऐतिहासिक बना दिया। उनके प्रचंड बहुमत के सामने उनके विपक्षी विलुप्त हो चुके थे। अच्छे दिन की आस में जनता उनके लिए विजय जुलूस निकाल रही थी। कुल मिलाकर आरम्भ प्रचंड था। अब मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी के बीच एक खाई सी नजर आ रही है। यह खाई इसलिए है कि मोदी में सत्ता का अहंकार झलकने लगा है। शायद यही वजह है कि मोहन भागवत ने कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को नकार दिया है।
मोदी को नैतिक प्रोत्साहन देने संघ ने कोई कमी नहीं की
पिछले 4 वर्षों में संघ के लोगों ने नरेंद्र मोदी को हर बार नैतिक प्रोत्साहन देने में कभी कोई कमी नहीं रहने दी। अपने वंशानुगत संगठनों जैसे भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद् की आलोचनाओं को भी हमेशा खारिज किया। इनके और सरकार के बीच में हमेशा ढाल का काम किया और यथास्थिति को बनाये रखा। दरअसल, बार-बार सरकार का बचाव करके संघ अपने उस फैसले को सही साबित करने की कोशिश करता रहा जो उसने 2013 में तमाम विरोधों के बावजूद लिया था। संगठन और पार्टी के बीच में समन्वय का काम संघ ने बखूबी निभाया और उसी का नतीजा है कि आज लाख बातें होने के बावजूद पार्टी और संघ के कैडर में नरेंद्र मोदी के प्रति विश्वसनीयता अभी भी बरकरार है। इसमें कोई शक नहीं है कि 2019 का लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी की जीत से ज्यादा संघ की प्रतिष्ठा का सवाल है। अपने वैचारिक सिपाही का समर्थन ही तो आरएसएस के सपनों की मंजिल है। हां एक बात और है कि आज पार्टी के भीतर नरेंद्र मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब तो संघ के लिए भी नमो का गुणगान करना उनकी जरूरत से ज्यादा मजबूरी लगता है। एक गुरू के लिए अगर उसका चेला अनुशासित है और संगठन के विचारों के प्रति श्रद्धा भाव रखता है तो संघ के लिए इससे बड़ी बात क्या होगी? तभी तो उत्साह से लबरेज स्वयंसेवक और पार्टी के कार्यकर्ता 2019 में भी विजय पताका लहराने को लेकर आश्वस्त हैं।
मैदानी रिपोर्ट विपरीत
संघ के एक पदाधिकारी दावा करते हैं कि केंद्र की भाजपा सरकार से देश की अधिकांश जनता खुश नहीं है। जिन उद्देश्यों के लिए जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी थी, वह उस पर खरी नहीं उतरी है। उनका कहना है कि संघ के सभी अनुशांगिक संगठन जब जनता के बीच जाते हैं तो यह बात सामने आती है कि सरकार अपने वादे के विपरीत कार्य कर रही है। यह बातें संघ प्रमुख तक भी पहुंच रही हैं। इसलिए संघ प्रमुख भी सरकार से नाखुश हैं। वह कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कि संघ भाजपा के लिए जीत का मैदान तैयार नहीं करेगा। वह कहते हैं कि संघ सरकार को जनोपयोगी बनाने के लिए हमेशा सुझाव देता रहा है।
कड़े फैसलों से गिरी साख
अपने अब तक के कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसे कड़े फैसले लिए हैं जिससे उनकी साख पर असर पड़ा है। सरकार ने नोटबंदी करने का जोखिम उठाया और ऐसा दावा किया गया कि सरकार के इस फैसले से 15 लाख लोगों से उनका रोजगार छिन गया। ऐसे में पूरे देश में मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ लोग लामबंद होने लगे। निष्क्रिय हो चुकी विपक्षी पार्टियों में अचानक से जान आ गई और सरकार के खिलाफ एक बैनर के तले इक_ा होने लगे। संसद से लेकर सडक़ तक धरना-प्रदर्शनों का एक लम्बा दौर चला। प्रधानमंत्री का गोवा में दिया गया भावनात्मक भाषण भी उनके काम नहीं आया। पार्टी के मार्गदर्शक मंडल के लोग ही सरकार के फैसले और मंशा पर सवाल उठाने लगे।
- ऋतेन्द्र माथुर