वोट की जुगलबंदी
17-Apr-2018 06:01 AM 1234932
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान की जुगलबंदी ने एनडीए की चिंता बढ़ा दी है। क्योंकि पासवान के बदले तेवर से यह साफ हो गया है कि आने वाले समय में वे एनडीए को बॉय-बॉय कर सकते हैं। ऐसे में वे बिहार की राजनीति में जदयू से हाथ मिलाने की तैयारी कर रहे हैं। दोनों के बीच हाल के दिनों में बढ़ी नजदीकी को राजनीतिक गलियारों में काफी गहराई से देखा जा रहा है और इससे अफवाहों को भी हवा मिली है। पिछले एक महीने में दोनों नेता चार बार मिल चुके हैं। यही नहीं बिहार में एनडीए की तीसरी साथी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता और केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा भी नीतीश और पासवान का समर्थन करते आ रहे हैं। पासवान और कुशवाहा ने भडक़ाऊ बयानों को लेकर बीजेपी नेताओं की आलोचना की थी। दोनों ने समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की जरूरत पर जोर दिया है। बीजेपी नेताओं के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण वाले बयानों के बाद राजनीतिक जानकार मानते हैं कि नीतीश की जदयू और पासवान की एलजेपी को मुसलमानों व दलितों से दूर जाने का डर लग रहा है। लोहियावादी नीतीश जन नायक कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा के करीबी रहे हैं। ठाकुर ने पिछड़ों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी थी। नीतीश कुमार कुर्मी समुदाय से हैं, लेकिन, जब वो लालू के साथ थे और अपनी राजनीति के शुरुआती सालों के अलावा उन्होंने कभी भी जाति की राजनीति का समर्थन नहीं किया। हालांकि, उन्होंने कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा का समर्थन किया। कर्पूरी ठाकुर ने पहली बार ओबीसी में मोस्ट बैकवर्ड क्लास की (एमबीसी) पहचान की थी। नीतीश ने एक कदम आगे बढक़र 2007 में दलितों में महादलित नाम का एक अलग समूह बनाया। जिसका राम विलास पासवान ने जोरदार विरोध किया। क्योंकि उनका मानना था कि यह दलितों के वोट बांटने की कोशिश है। महादलित आयोग की सिफारिशों पर, 22 दलित जातियों में से 18 (धोबी, मुसहर, नट, डोम और अन्य) को महादलित का दर्जा दिया गया। दलितों की कुल आबादी में इनकी संख्या 31 फीसदी के लगभग थी। बाद में जाटव, पासी और धोबी को भी इस सूची में शामिल किया गया, जिसने राम विलास पासवान को और भी परेशान कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि, अब केवल दुसाध और पासवान समुदाय के लोग ही महादलित से बाहर हैं। बिहार में दलितों का 16 प्रतिशत वोट हिस्सा है, जिसमें दुसाध समुदाय के पांच प्रतिशत वोट शामिल हैं। ये वर्ग राम विलास पासवान के साथ है। जाहिर है, नीतीश के कदम ने एक दलित नेता के रूप में पासवान की छवि को नुकसान पहुंचाया। इस मामले में एक मांग नीतीश कुमार के सामने रखी गई कि दलित और महादलितों के बीच अंतर को खत्म किया जाए और पासवान समुदाय के लोगों को महादलित में शामिल किया जाए। कई जेडीयू के नेताओं का मानना है कि इससे उन्हें गैर-यादव ओबीसी/ईबीसी और दलित वोट बैंक बनाने में मदद मिलेगी। न सिर्फ पासवान और दलित सेना ने बल्कि महादलितों सहित दूसरे नेताओं ने भी इसका विरोध किया। धोबी समुदाय से आने वाले वरिष्ठ जद (यू) नेता श्याम रजक कहते हैं, महादलित विकास मिशन और कमीशन का निर्माण नीतीश जी द्वारा कल्याणकारी योजनाओं का लाभ देने के लिए किया गया है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। आरक्षण के बंटवारे जैसा इसमें कोई मुद्दा नहीं है। नीतीश जाति आधारित किसी भी समारोह में भाग लेने से बचते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वे इस जातिगत राजनीति का हिस्सा बनाना चाहेंगे। न खुदा मिला न विसाले सनम जदयू को राजद से अलग करने की योजना में भाजपा के कई नेता सक्रिय थे। इनका नेतृत्व पार्टी के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी कर रहे थे। लेकिन इस पूरी पटकथा में जदयू की ओर से दो नेताओं ने मुख्य भूमिका निभाई थी। जदयू और भाजपा के अलग-अलग नेताओं से अनौपचारिक बातचीत में इन्हीं दो जदयू नेताओं का नाम आता है। ये दो नेता हैं - आरसीपी सिंह और केसी त्यागी। ये दोनों पार्टी के महासचिव हैं और नीतीश कुमार के बेहद करीबी माने जाते हैं। लेकिन न तो इन नेताओं को केंद्र सरकार में जगह मिली और न ही वह रसूख रहा। जदयू सूत्र बताते हैं कि राजद के समर्थन से बनी नीतीश सरकार में आरसीपी सिंह का दखल थोड़ा कम हुआ। केसी त्यागी को भी केंद्र में मंत्री बनने का एक दावेदार माना जा रहा था। कहा जा रहा था कि उनकी वरिष्ठता को देखते हुए उन्हें स्वतंत्र प्रभार वाला राज्यमंत्री बनाया जा सकता है। लेकिन नरेंद्र मोदी ने जदयू के किसी भी नेता को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया। केसी त्यागी ने तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में जदयू को शामिल नहीं किए जाने पर नाराजगी का इजहार सार्वजनिक तौर पर कर दिया है। उनका कहना है कि भाजपा गठबंधन धर्म का पालन नहीं कर रही। - विनोद बक्सरी
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