महाकवि मूसल की नारी चेतना
19-Aug-2017 07:20 AM 1234971
महाकवि मूसल का काव्य नारी सुलभ भावनाओं तथा उसकी समग्र चेतना से सराबोर रहा है। उनकी चेतना का आलम यह है कि नारी देखते ही कुलांचें मारने लगती है तथा घण्टों तक उसमें डूबे उसी रंग से लबरेज रचनाएं लिखते रहते हैं। वे नारी को वंदनीया मानते हैं तथा खुशहाल जीवन के लिए उसका पूजन भी स्वीकार करते हैं। उनकी कविताओं में नारी का चेतना स्वर बहुत ही प्रखरता से आया है और वे उसी के संयोग तथा वियोग का वर्णन अपनी काव्य रचनाओं में सघनता से कर पाये हैं। उनके गीत नारी की कमर, कपोल, लटों, होंठों, चाल तथा शारीरिक सौष्ठव में डूबे नये-से-नये आयाम ढूंढ़ते देखे जा सकते हैं। महाकवि मूसल की शारीरिक रचना उनके नामानुरूप मूसल के आकार की है तथा वे उसी के स्वभावगत साम्य के साथ वे अपना बौद्धिक कौशल भी रखते हैं। मूसल की उम्र इस समय करीब साठ वर्ष है लेकिन नारी के मामले में वे सदैव बिलबिलाते मिलेंगे। वे अपनी पत्नी से उपेक्षा भाव बरतकर दूसरी नारियों में प्रेम के भाव तलाशते देखे जा सकते हैं। महाकवि मूसल सदैव किसी मनन-चिंतन में उलझे नारी स्तुति तथा सौन्दर्योपासना में लगे रहते हैं। महाकवि मूसल से मेरा परिचय घनघोर है तथा वे जब तब अपनी कोमल कवितायें मुझ पर पेलते रहे हैं। उनका दर्द एक है, लेकिन उसे उन्होंने गाया हजारों तरह से है। वे अपने जीवन में नारी को ऊर्जा के रूप में स्वीकार करते हैं तथा मानते हैं कि यदि उन्हें एक नारी की संगत मिल जाये तो वे कविता में क्रान्ति कर सकते हैं। लेकिन इस देश की नारियां उन्हें अभी क्रांति का मौका ही नहीं दे रही हैं। जब वे उनकी प्रशंसा में कविता लिखते हैं तो वे उस समय उनका सान्निद्ध चाहते हैं। इसी कारण वे उनकी धर्मपत्नी से उपेक्षित हो गये तथा आज वे इसी दर्दे दिल को लिये विविध आयामी सृजन के प्रति समर्पित हैं। पत्नी को वे पूरे दिन में तीन हजार गालियां निकालते हैं तथा दूसरी अनाम प्रेमिका के लिए अपने जीवन की तमाम मिठास को उंडेल देते हैं। हालांकि उनकी कविता में उलाहना शैली ज्यादा सघनता से उभरी है, लेकिन वे अगली कविता में अपना बैलेंस बना लेते हैं और नारी चेतना का स्वर बराबर बनाये रखते हैं। यदि उन्हें नारी सुलभ हो जाये तो कविता लिखना भूल जाते हैं। यही वजह है कि उनकी कविताओं का स्वर वियोग पर ज्यादा केन्द्रित रहा है। नारी वियोग के कारण ही वे हजारों हजार कवितायें आज हिन्दी साहित्य संसार को सौंप चुके हैं। उनकी कवितायें नारी अंगों की सुंदरता तथा उनके लिए नायाब उपमायें ढूंढऩे में नूतनता के साथ सामने आयी हैं। सुना है पच्चीस वर्ष की आयु में कोई नारी उनके जीवन में आयी थी, वह भी केवल दो घण्टे के लिए-तब से आज तक घरवाली को भूल उसकी स्मृति को यादों में संजोये काव्य सृजन के प्रति पूरे मनोयोग से जुड़े रहे हैं। महाकवि मूसल की रचनाएं हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बन सकती हैं, यदि कोई आलोचक आगे आकर अपना समय बर्बाद करने की कूवत रख सकता हो तो। वे अपने मूल्यांकन के प्रति भी कभी चिंतित नहीं रहे हैं। वे सदैव अनाम नायिका के नाम ढ़ेर सारे उपालंभ भेजते रहते हैं और वह है कि जालिम भूले मन से भी उन्हें याद नहीं कर पाई है। महाकवि मूसल नारी जाति को एकटक देखते हैं, उसमें कविता ढूंढ़ते हैं तथा एक-एक अवयव की पूरी चीर-फाड़ के बाद नये बिम्ब उभारते हैं। वे बिम्ब पे्रम कविता जगत में सर्वथा नवीन भावबोधों के साथ विद्यमान हैं तथा वह समय अब दूर नहीं है, जब उनकी रचनाएं शृंगार के अन्य प्राचीन महाकवियों को भी मात दे सकेंगी। भारतीय काव्य शास्त्र की मीमांसा में भी वे नारी चेतना के भावों को वरीयता देते हैं तथा पुरजोर दबाव के साथ मांग करते हैं कि नारी स्वरूप, दुर्गा का प्रतीक है तथा वह ऊर्जा की देवी है। वे नारियोचित भावनाओं से भरे मधुरिम क्षणों से घिरे स्वयं से बतियाते रहते हैं। महाकवि मूसल की हंसी शृंगारिकता के कारण पूरे मोहल्ले के लोग उन्हें अपने घरों में प्रवेश नहीं देते और यदि वे आ भी जावें तो चंद क्षणों में ही बहानेबाजी के बाद टरका देते हैं। वे इसी कारण सामाजिक प्राणी भी नहीं कहला पाये हैं। महाकवि मूसल की साधना स्थली, नदी का किनारा, पेड़ों के झुरमुट तथा कोयल की कुहू-कुहू के बोलों के मध्य ही रह पायी है। वे प्रकृति में कोमलता तलाशते हैं तथा उसी के प्रतीकों को नारी गीतों तथा गजलों में पिरो देते हैं। महाकवि मूसल दर-दर की ठोकर खाने के बाद जान पाये हैं कि जमाना बड़ा बैरी है तथा पे्रमी मन को पींगेें नहीं बढ़ाने देना चाहता है। इसलिए उन्होंने जमाने को अपनी रचनाओं में आड़े हाथों लिया है तथा इस कदर कोसा है कि शोधार्थी ही उसमें निहित मर्म को बाहर निकाल सकता है। उन्होंने ऐसे-ऐसे नये भावजन्य प्रतीक खोजे हैं, जो पूर्ववर्ती किसी भी साहित्य में नहीं पाये जाते। महाकवि मूसल कविता-पाठ के लिए सदैव तत्पर रहते हैं तथा वे हर छंद पर दाद चाहते हैं। गलती से यदि किसी ने दाद दे दी तो फिर वे लगातार कविता पर कविता पेलते जायेंगे। उनसे कविता सुनने का अर्थ है कि आप अमूल्य समय गंवायें। वे सारे दिन जगत दायित्वों से ऊपर उठकर कविता में खोये रसिकमना कविताओं की चासनी यहां-वहां टपकाते फिरते हैं। महाकवि मूसल जब भी काव्य सृजन का क्षण जीते हैं तो वे किसी प्रसूता से कम व्यथित दिखाई नहीं देते। वे भावों की सघन पीड़ा में ओत-प्रोत कनपटियों को लाल किये तमतमाये चेहरे से मुक्ति संघर्ष के क्षण भोगते रहते हैं। वे यथार्थ को जीकर लेखन पर जोर देते हैं। - पूरन सरमा
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