बाईपासÓ का कल्चर
02-Aug-2017 10:08 AM 1234830
उस दिन वे, जैसे किसी परेशानी में थे। मिलते ही बोले, यार, वे सब मुझे बाईपास कर रहे हैं। मतलब, उन्हें बाईपास किया जाना ही उनकी परेशानी का कारण था। नीचे से आती पत्रावलियां उनके टेबल को बाईपास करते हुए सीधे ऊपर वाली टेबल पर चली जा रही हैं। वे अपने होते इस दायित्व-क्षरण के कारण पत्रावलियों के गुण-दोष-अन्वेषण जनित लाभादि से वंचित हो रहे हैं। यह पहला अवसर था जब बाईपासÓ शब्द मेरे जेहन में उमड़-घुमड़ मचाते हुए एक वीआईपी शब्द की तरह व्यवहार करने लगा था। उचकते हुए तब मैं उनसे बोला था, यार..हमारी संस्कृति में बाईपासÓ वाला कल्चर तो वैसे है नहीं..! इसी कथन के साथ मेरा ध्यान बचपन के मेरे अपने कस्बे की ओर चला गया, जब पहली बार मैं किसी नयी-नयी बनी बाईपास-सड़क से रुबरु हुआ था। बचपन में निर्मित उस सड़क के साथ ही बाईपासÓ शब्द से मेरा प्रथम परिचय भी हुआ। तब मैं सोचता, आखिर सूनसान और निर्जन स्थान से गुजरने वाली यह सड़क क्यों बनी? फिर थोड़ी समझदारी आने पर इस बाईपास-सड़क के बनने का कारण मेरी समझ में आ गया था। एक बार रोडवेज बस से मुझे अपने कस्बे मुंगरा बादशाहपुर से इलाहाबाद जाना हुआ था, तब बीच में पडऩे वाले सहसों बाजार में भी एक नया-नया बाईपास बना था। लेकिन उस दिन बस ड्राइवर जल्दबाजी के चक्कर में बस को बाईपास सड़क से न ले जाकर सीधे सहसों बाजार के बीच से ले गया था। हड़बड़ी में बाजार की संकरी सड़क से निकलते हुए बस एक खंभे से रगड़ खा गई और एक महिला का हाथ बुरी तरह चोटिल होकर लहूलुहान हो गया था। बाद में बस ड्राइवर और कंडक्टर की खूब लानत-मलानत हुई थी। इस एक घटना के बाद मुझे बाईपासÓ का महत्व समझ में आया था। शायद, उसी दिन बस ड्राइवर को भी बाईपासÓ की समझ हो गई होगी। जेहन में उभर आए इन खयालों में खोए हुए ही मैं हलकी सी मुस्कुराहट के साथ बोला, यार, तुम पत्रावलियों की गति में, बंद संकरे बाजार की तरह अवरोध उत्पन्न करते होगे..इसीलिए तुम बाईपास किए जा रहे होगे अब ओपन मार्केट का जमाना है, खुली सड़क से रास्ता तय किया करो..और चीजों को फर्राटा भरने दो ट्रैफिक-पुलिस भी मत बनो। खैर, मेरी इस बात पर ना-नुकुर करते हुए वे उठकर चल दिए थे। इधर मैं, बाईपासÓ शब्द में खो गया। बाईपास वैसे तो अंग्रेजी का शब्द है, लेकिन हिन्दी भाषा में इस शब्द का चलन किसी मौलिक शब्द की तरह ही होने लगा। वैसे भी, हिंदी में ढूंढने पर उपमार्ग के अलावा बाईपासÓ शब्द का कोई दूसरा समानार्थी शब्द भी नहीं मिलता। लेकिन बाईपास से जो अर्थ प्रतिध्वनित होता है, कम से कम उपमार्ग शब्द से वैसा अर्थ निकलता हुआ मुझे प्रतीत नहीं होता। उपमार्ग में आया हुआ उपसर्ग उपÓ, उपमुख्यमंत्रीÓ शब्द में आए उपÓ टाइप का ही है। जबकि बाईपासÓ स्वतंत्र वजूद वाले मुख्यमार्ग की तरह होता है, जिसे नजरंदाज करना समस्या को दावत देने जैसा हो सकता है, जैसा हमारी बस के साथ हुआ था। एक बात और है, अपने सटीक अर्थ के कारण ही बाईपासÓ शब्द को आत्मसात किया गया है। इसीलिए मैं चाहता हूं, यह शब्द हिन्दी शब्दकोश में भी स्थान पाए। यहां उल्लेखनीय है कि किसी दूसरी भाषा का शब्द हम तभी आत्मसात करते हैं जब उससे अधिक सटीक शब्द हमें अपनी भाषा में नहीं मिलता। किसी भाषा और उसकी शब्दावली पर ध्यान देने पर यह बात स्पष्ट होती है कि भाषा और बोली पर संस्कृति का जबर्दस्त प्रभाव होता है। मतलब कोई भी भाषा-बोली अपने क्षेत्र की संस्कृति को भी अभिव्यक्त करती है। तो, आखिर हमारी हिन्दी शब्दावली में बाईपास का समानार्थी शब्द क्यों नहीं है? और उपमार्ग को इसका समानार्थी क्यों नहीं माना जा सकता? इसके पीछे हमारे सांस्कृतिक कारण जिम्मेदार हैं। स्पष्ट है कि, कण-कण में भगवान देखने वाले हम बाईपास जैसा शब्द ईजाद नहीं कर सकते! मतलब हमारे कल्चर में बाईपासÓ का कोई स्थान नहीं रहा है। वहीं पर हम किसी को छोटा-बड़ा जरूर बनाते रहे हैं और इसी चक्कर में हमने उपÓ ईजाद किया हुआ है। मतलब, उपÓ प्रकारांतर से फ्यूडलिज्म का पोषक है। आजकल यह उपÓ किसी विवाद के शांतिकारक तत्व के रूप में भी प्रयोग होता है। जैसे, किसी को उप घोषित करके भी विवाद को टाला जा सकता है। लेकिन बेचारे इस उपÓ को कभी मुख्यÓ होना नसीब होता है या नहीं, यह अलग से चिंतनीय विषय हो सकता है। फिर भी इस उपÓ को राहत इस बात से मिल सकती है कि यदि ज्यादा हुआ तो भविष्य के मार्गदर्शक-मंडल में सम्मिलित होकर यह शांति का जीवन व्यतीत कर सकता है। वैसे तो हम कम या ज्यादा सभी को महत्व देते हैं। फिर भी, यह बाईपासÓ शब्द जहां से आया है, वहां के लोग हमसे ज्यादा विकसित और सभ्य क्यों दिखाई देते हैं? असल में, हमारे यहां उपÓ और मुख्यÓ का चक्कर कुछ ज्यादा ही है ! और मुख्यÓ को मुख्य बनाए रखने हेतु ही उपÓ का सृजन हुआ है। बेचारा यह उपÓ, उपेक्षा टाइप की फीलिंग से बचने के लिए अपनी व्यर्थ की महत्ता दिखाता है और फिर, अपने अवरोधक टाइप के विहैव के कारण बाईपासÓ का शिकार होता है। वास्तव में हम ऊपर से लोकतांत्रिक लेकिन अन्दर से अलोकतांत्रिक ही होते हैं। वहीं बाईपास में लोकतांत्रिकता का पूरा तत्व होता है, जो किसी के बपौतीÓ को जमींदोज करता है। इसी कारण पश्चिमी देश के लोगों में चीजों को बेहिचक बाईपास कर देने का गुण होता है, वे उपÓ या मुख्यÓ में नहीं उलझते ! वहां कोई भी बाईपासÓ से चलकर मुख्य हो जाने का लुत्फ उठा सकता है। ये पश्चिमी कल्चर वाले आगे बढऩा जानते हैं। अगर हम आगे बढऩा जानते होते तो, हम भी बाईपासÓ जैसा ही शब्द गढ़े होते ! हां, हमने बाईपासÓ को आत्मसात तो किया, लेकिन हमारे लिए, आगे बढ़ाने की बजाय यह किसी की उपेक्षा करने में कुछ ज्यादा ही काम आता है। इस प्रकार अपने देश में बाईपासÓ के सौजन्य से, हम अपने तरीके से सुखी और दुखी हो लिया करते हैं। - विनय कुमार तिवारी
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