परिवार में रहते हुए भी बना जा सकता है साधु
30-May-2013 06:32 AM 1234956

खुद को दिलासा देने के लिए कहें अथवा अफसोस जताने के लिए लेकिन बहुत से लोग ऐसे मिल जाएंगे जो कहेंगे कि हम घर परिवार वाले लोग हैं सब कुछ छोड़कर साधु तो नहीं बन सकते। जबकि, सच यह है कि साधु बनने के लिए परिवार और दुनिया से विमुख होने की जरूरत नहीं है। साधु तो घर परिवार में रहते हुए, पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी बना जा सकता है। साधु का मतलब वन में निवास करने वाला नहीं है, साधु का अर्थ है साधना करने वाला। साधना है तात्पर्य है मन, वाणी, इन्द्रिय भोग, काम और क्रोध को अपने वश में रखना न कि इनके वश में हो जाना। जिनका मन घर परिवार में रहते हुए भी नियंत्रण में है, काम और क्रोध से दूषित नहीं है वह सांसारिक जीवन में कहीं भी रहे साधु कहलाने योग्य है।
नारद पुराण में एक प्रसंग है कि ब्रह्मा जी ने आठ मानस पुत्रों को जन्म दिया। इनमें नारद मुनि भी एक थे। ब्रह्मा जी के सात पुत्रों ने विवाह करके गृहस्थ जीवन बिताना स्वीकार कर लिया। लेकिन नारद मुनि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने से मना कर दिया।
ब्रह्मा जी को इस बात से बड़ा क्रोध हुआ और नारद जी को शाप दे दिया। अगर गृहस्थ जीवन पाप होता और वैराग्य पुण्य तो ब्रह्मा जी नारद को नहीं अन्य सात पुत्रों को शाप देते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
वास्तव में गृहस्थ जीवन में रहते हुए साधु बने रहना सबसे कठिन तपस्या है। सांसारिक जीवन का त्याग करके कर्म से मुक्त होने का प्रयास करना पाप है। यही कारण है कि प्राचीन काल के कई सिद ऋषि मुनियों ने विवाह किया।
ईश्वर मनुष्य को वैवाहिक जीवन और गृहस्थी का महत्व समझाना चाहता है न कि गृहस्थी से भागने की बात सीखाता है। अगर वह ऐसा चाहता तो हर देवी देवता अलग होते, सभी अविवाहित होते।
लेकिन ऐसा नहीं है शिव-पार्वती, विष्णु लक्ष्मी, राम-सीता, कृष्ण-रूक्मिणी सभी युगल हैं, यही बताने के लिए कि संसार त्यागने के लिए नहीं है। गीता में भगवान ने कहा कि जीव कर्म बंधन में बंध हुआ है और उसे बार-बार कर्म में बंधकर आवागमन में उलझना है।
जो व्यक्ति ईश्वर के इस विधान को समझकर कर्म करता हुए साधु बना रहता है वास्तव में वही परमगति और मुक्ति का भागी होता है। परिवार और कर्तव्य का त्याग करने वाला नहीं। जो कर्तव्य से भागने का प्रयास करता है वह बार-बार आवागमन के चक्र में घूमता रहता है।
चैन से सोना है तो सोने
को कहें ना
सोने की चमक सभी को आकर्षित करती है। इसी आकर्षण के कारण लोग अधिक से अधिक सोना खरीदने चाहते हैं। यह चाहत तब और भी बढ़ जाती है जब सोने की कीमत में अचानक थोड़ी गिरावट आती है। लोग इस मौका का लाभ उठाना चाहते हैं। आज कल बाजार में यही स्थिति है क्योंकि सोने की कीमत कमी आयी है। आइए जानें सोने के बारे में हमारे शास्त्रों क्या कहा गया है।
ज्यादातर पौराणिक ग्रंथों में इस बात को कई तरह से कहा गया है कि सोने की खरीदारी से जितनी खुशी नहीं होती है उससे अधिक चिंता बढ़ जाती है। हमेशा यह चिंता सताती है कि सोना चोरी न हो जाए। इसे कैसा संभालकर रखें। पड़ोसी की नजऱ सोने के गहनों पर नहीं जाए, क्योंकि नजऱ लग जाएगी।
यह भी कहा जाता है कि किसी अवसर पर सोने के गहने पहन लें तो हमेशा इसी पर ध्यान रहता है कि कहीं गिर न जाए, कोई खींच न ले। इस चिंता के कारण उत्सव का पूरा आनंद भी नहीं उठा पाते हैं। सोना सिर्फ आपको चिंतित ही नहीं करता है बल्कि आपकी सोच और व्यवहार को भी प्रभावित करता है। इससे अभिमान भी जन्म लेता है। यही कारण है कि रहीम ने लिखा है च्कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय। वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।। इस दोहे में रहीम ने दो बार कनक शब्द का प्रयोग किया है। एक कनक धतूरे के लिए और दूसरा सोना के लिए।
रहीम ने कहा है कि सोने का नशा धतूरे भी ज्यादा होता है। धतूरा खाने के बाद आदमी बौरा जाता है लेकिन सोने का नशा इतना तेज होता है कि इसे प्राप्त कर लेने मात्र से इंसान बौरा जाता है। पुराणों में कथा है कि कलियुग का प्रवेश भी सोने के माध्यम से हुआ था। कलियुग सोने में निवास करता है इसलिए सोने के कारण विवाद और रिश्तों में दूरियां तक आ जाती है। साधु पुरूष कहते हैं कि सोना चिंता का बड़ा कारण है। जब आप इसे पाने की सोचने लगते हैं तभी से चिंता आपके ऊपर हावी होने लगती है।

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