विनम्रता
15-May-2013 05:52 AM 1234952

किसी भी व्यक्ति को जीवन में सफल होने के लिए विनम्रता एक आवश्यक गुण है। उन्नति की सीढिय़ों पर चढ़ते हुए हमें नीचे की ओर देखकर हर कदम संभल कर रखना होता है तभी हम सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम नीचे देखकर यथार्थ की कठोर भूमि के ऊंचे-नीचे रास्तों पर संभल कर चलने के स्थान पर अहंकार के मद में डूब अकड़ कर चलेंगे तो निश्चित रूप से समय की ठोकर खाकर गिर पड़ेंगे। स्वाभिमान और आत्मविश्वास रखना भी अनिवार्य गुण है परन्तु स्वाभिमानी भी वही श्रेष्ठ है जो विनम्रता को प्रथम स्थान पर रखता है। जहां नम्रता से कार्य हो सकता हो वहां उग्रता व्यर्थ होती है।
विनम्रता का अर्थ कमजोरी कदापि नहीं है अपितु विनम्रता में एक स्वाभाविक लचीलापन होता है परन्तु उस लचीलेपन में तनने की शक्ति है, जीतने की कला है और शौर्य की पराकाष्ठा है। जिसमें विनम्रता नहीं वह विद्वान नहीं हो सकता। विनम्रता के गुण से महान व्यक्ति की पहचान होती है। जैसे एक फलों से लदा हुआ वृक्ष स्वाभाविक रूप से झुक जाता है और एक सूखा हुआ ठूंठ अकड़ कर तन कर खड़ा रहता है। परन्तु आंधी के सामने यह ठूंठ टूट कर गिर पड़ते हैं।
अकड़ू यूं तन कर खड़ा, लगे ठूंठ सा खूब।
आंधी में औंधा पड़ा, बची रही लघु दूब।।
किसी विद्वान संत से उनके शिष्य ने प्रश्न किया, महाराज आप नीचे भूमि पर ही क्यों बैठते और अपना आसन लगाते हैं?Ó  उस संत का उत्तर हम सभी के लिए अनुकरणीय और विनम्रता की पराकाष्ठा को लिए हुए था, नीचे बैठने से गिरने की कोई संभावना नहीं रहती।Ó विनम्रता के कारण आया लचीलापन दर्शाता है कि उस व्यक्ति में जान है जबकि अकड़कर तन जाना तो बस मुर्दे की पहचान है। किसी विद्वान ने विनम्रता को परिभाषित करते हुए बड़े सटीक सुन्दर शब्दों में कहा है कि अत्यधिक प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पूरी तरह समायोजित होने की क्षमता पैदा कर लेना ही विनम्रता है इसीलिए विनम्र व्यक्ति कभी भी नहीं टूटता।
प्रेम के मायने: अढ़ाई अक्षर के इस यौगिक अर्थ वाले शब्द के अर्थ का अनर्थ करते हुए इसे संकुचित करके जितना दुरुपयोग वर्तमान काल में किया गया है, शायद उतना किसी अन्य शब्द का नहीं हुआ होगा। आज प्रेम को कामवासना का पर्याय मान लिया गया है। काम पिपासा की शारीरिक तुष्टि मात्र प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम तो एक बहुत व्यापक अर्थ लिए हुए है जो जीवन के प्रत्येक रिश्ते नाते संबंध क्रिया में होना चाहिए। पिता-पुत्र, मां-बेटे, भाई-बहन, दादा-दादी, पोता-पोती, पति-पत्नी प्रत्येक पारिवारिक रिश्ते, मित्रों का आपसी व्यवहार, कर्मचारी अधिकारी, गुरु-शिष्य सामाजिक व्यवहार के प्रत्येक पहलू में प्रेम का अपना महत्व है। इसके अतिरिक्त प्रेम की पराकाष्ठा के दर्शन भक्त के भगवान के प्रति प्रेमभाव से होते हैं जिसमें  भक्त अपना सर्वस्व भूलकर सब कुछ ईश्वर प्रदत्त जान मानकर ईश्वरीय स्तुति प्रार्थना उपासना में स्वयं को निमग्न कर लेता है। वैसे भी वेद भगवान कहते हैं ईशावास्यमिदं सर्वम् यजु.  (40/1) अर्थात यह सारा संसार ईश्वर से आच्छादित है, ढका हुआ है, ईश्वर इसमें ओत-प्रोत है इसलिए हमें चाहिए कि हम द्वेष, घृणा, ईष्र्या, जलन, शत्रुता एवं दूसरों को अपमानित करने के भावों को अपने मन से निकाल दें और सभी में ईश्वर के दर्शन करते हुए सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार करके सबकी सेवा, आदर एवं  मान-सम्मान करें। वैसे प्रेम व्यवहार में एक जबरदस्त चुंबकीय आकर्षण है, जादू है।  इससे हम पूरे विश्व को जीत सकते हैं। प्रेम से हम शत्रु को भी अपना मित्र बना सकते हैं। हम जैसा बोते हैं वैसा काटते हैं, जैसा व्यवहार करेंगे वैसा प्रतिक्रिया में पायेंगे। द्वेष के बदले द्वेष, घृणा से घृणा, क्रोध से क्रोध उत्पन्न होता है। उसी प्रकार प्रेम से प्रेम पैदा होता है और प्रेम का रंग शायद शेष सभी से गहरा और पक्का होने के कारण शेष सभी के ऊपर चढ़ जाता है।
वैसे वेद में मित्रास्य चक्षुषा समीक्षामहे  (यजु.  36/18) कहकर हम सभी को परस्पर एक-दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखने का आदेश दिया और मित्रता का भाव रखने के लिए परस्पर प्रेम अनिवार्य शर्त है। मन, वचन, कर्म से सर्वदा सर्वथा किसी भी प्राणी के प्रति वैर की भावना न रखना अहिंसा है। अहिंसा अभावात्मक है और इसीलिए इस अहिंसा की अवस्था से एक सीढ़ी और ऊपर उठकर परस्पर प्रेम करें। इसे समझने का सरल उपाय है कि हम जीवन में जैसे व्यवहार की अपेक्षा दूसरों से अपने लिए करते हैं वैसा व्यवहार स्वयं दूसरों से किया करें। यदि ऐसा कर पायेंगे तो निश्चित रूप से सबसे प्रेम पूर्वक बरतते हुए अपने धर्म का पालन करेंगे।
हम प्राणी मात्र से प्रेम करें वेद तो पशून पाहिÓ कहकर पशुओं की रक्षा और उनसे भी प्रेम का संदेश देता है । प्रेम की भावना का प्रारम्भ घर से करें। माता-पिता, भाई-बहन, बन्धु-बान्ध्व सभी रिश्तों को प्रेम भाव से सिंचित कर मजबूत बनायें फिर इस इकाई को दृढ़ करते हुए पड़ोसी समाज देश और राष्ट्र से प्रेम करें और इसकी परिधि को बढ़ाते हुए संसार के प्राणी मात्र से प्रेम करें और इस प्रेम की पराकाष्ठा इस संसार के रचयिता नियामक ईश्वर से सम्पूर्ण समर्पण भाव से प्रेम करें।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि हम किस प्रकार से प्रेम करें तो अथर्ववेद में उसका समाधन प्रस्तुत करते हुए संदेश दिया अन्यो अन्यमभि हर्यम वत्सं जातमिवाहन्या। (अ. 30/1) अर्थात एक- दूसरे के साथ ऐसा प्रेम करें जैसे गाय अपने नवजात बछड़े के साथ करती है। प्रेम में कभी कहीं कोई स्वार्थ की भावना, शर्त व पूर्वाग्रह नहीं हो सकता क्योंकि प्रेम कोई व्यापार या विनिमय की वस्तु नहीं है। प्रेम करने के लिए मैंÓ और मेरेÓ की भावना समाप्त करके हमÓ और हमारेÓ की भावना उत्पन्न करें।  प्रेम वह अग्नि है जिसमें पाप और ताप जलकर भस्म हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है अढ़ाई आखर पे्रम के पढ़े सो पंडित होय।Ó अर्थात प्रेम के व्यापक अर्थ को जान मान कर अपने व्यवहार में उतारने वाला व्यक्ति ही सही मायनों में पंडित या विद्वान होता है। संत कबीर ने भी बड़े सुंदर शब्दों में कहा है
जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिन प्राण।।
अर्थात जिसके मन में प्रेम की हिलोरें नहीं उठती वह मृतक के समान है। इसीलिए आइये प्रेम के पवित्र सागर में डुबकियां लगाकर अपने मन -वचन- कर्म को पवित्र करें। हम वृक्षों से सीखें जो उसे कुल्हाड़ी से काटने वाले लकड़हारे को भी शीतल छाया प्रदान करता है।

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