संकटकाल से गुजरती क्षेत्रीय पार्टियां!
22-Jul-2017 08:06 AM 1234795
भारत में बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली प्रचलित है जिसमें क्षेत्रीय समस्याओं या मुद्दों को उठाने के लिए क्षेत्रीय दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हमारे देश में समय-समय पर क्षेत्रीय पार्टियों का गठन होता रहा है और ये देश के संसदीय लोकतंत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बखूबी निभाते भी रहे हैं। लेकिन हाल के कुछ दिनों में खासकर जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ है तब से कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के हाल ठीक नहीं चल रहे हैं। हर जगह संकट के बादल छाये हुए हैं। दरअसल, अधिकांश दल एकतंत्री नेतृत्व के फेर में फंसे रहे। एकतंत्री नेतृत्व वाले इसी दोष के चलते क्षेत्रीय दल न तो अखिल भारतीय दल बन पाए और न ही एक समय बाद क्षेत्रीय दल रह पाए। वंशीलाल, अजीत सिंह, जयललिता, असम गण परिषद् के भृगु फूकन और अब आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल इसी हश्र का शिकार होते दिख रहे हैं। उल्लेखनीय है कि सवर्ण नेतृत्व को दरकिनार कर दलित और पिछड़ा नेतृत्व तीन  दशक पहले इसलिए उभरा था, जिससे लंबे समय तक केंद्र व उत्तर प्रदेश  समेत अन्य राज्यों की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के जो लक्ष्य पूरे नहीं कर पाई थीं, वे पूरे हों। सामंती, बाहूबली और जातिवादी कुचक्र टूटें। किंतु ये लक्ष्य तो पूरे हुए नहीं, उल्टे सामाजिक शैक्षिक और आर्थिक विशमता उत्तोत्तर बढ़ती चली गई। सामाजिक न्याय के पैरोकारों का मकसद धन लेकर टिकट बेचने और आपराधिक पृष्ठभूमि के बाहुबलियों को अपने दल में विलय तक सिमट कर रह गए। राजनीति के ऐसे संक्रमण काल में जब विपक्ष को अपनी शक्ति और एकजुटता दिखाते हुए भाजपा से लडऩे की जरूरत अनुभव हो रही है, तब एक के बाद एक विपक्षी दल अंदरूनी व पारिवारिक संकट से जूझते दिखाई दे रहे हैं। सपा और द्रमुक ने पारिवारिक कलह के चलते अपनी साख लगभग खो दी हैं। बिहार में लालू और नीतिश के बीच जो गठबंधन जीत का सबब बना था, वही अब लालू के परिजनों के लिए राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई लडऩे को बेताब दिख रहा है। हालांकि चारा घोटाले का मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट द्वारा जीवंत कर दिए जाने के बाद एकाएक यह लड़ाई थम सी गई है, लेकिन अवसर मिलते ही लालू के वंशज इसे फिर हवा देने लग जाएंगे। नेतृत्व संकट से जूझ रही कांग्रेस का तो पहले से ही बुरा हाल है। बसपा को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के जरिए लड़ी थी। इसीलिए तब बसपा के कार्यकर्ता इस नारे की हुंकार भरा करते थे, ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर चोर, बाकी सारे डीएस-फोर।Ó इसी डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिंदी क्षेत्र में बसपा की सरंचना तैयार किए जाने की कोशिशें ईमानदारी से शुरू हुईं। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में डॉ भीमराव अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिश्माई अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली शक्ति भी थी। यही वजह थी कि बसपा दलित संगठन के रूप में मजबूती से स्थापित हुई, लेकिन कालांतर में मायावती की पद व धनलोलुपता ने बसपा के बुनियादी ढांचे में विभिन्न जातिवादी बेमेल प्रयोगों का तड़का लगाकर उसके मूल सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ ही कर डाला। इसी फॉर्मूले को अंजाम देने के लिए मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित और ब्राह्मणों का गठजोड़ करके उत्तरप्रदेश  का सिंहासन जीत लिया था। लेकिन 2012 आते-आते ब्राह्मण व अन्य सवर्ण जातियों के साथ मुसलमानों का भी मायावती की कार्य-संस्कृति से मोहभंग हों गया। नतीजतन सपा ने सत्ता की बाजी जीत ली थी। हालांकि मायावती अपने बेमेल गठबंधनों के चलते उत्तर प्रदेश  में 4 बार सरकार बना चुकने के साथ पार्टी को अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने में सफल रहे है। लेकिन मोदी लहर के आते ही बेमेल गठबंधनों का दौर खत्म हो गया और बसपा दुर्गति के दौर से गुजरने लग गई। नतीजतन 2014 के लोकसभा चुनाव में वह एक भी सीट नहीं जीत पाई। उत्तर प्रदेश  में अपने ही दल के बूते बहुमत की सरकार बना चुकी बसपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में महज 19 सीटों पर बमुश्किल जीत मिल पाई। मायावती ने इस हार का ठींकरा ईवीएम मशीनों पर फोड़कर संतोष कर लिया। अब मायावती अपनी अगली पारी को मजबूत करने के लिए चौसर बिछा रही हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के केंद्रीय सत्ता में काबिज होने के बाद राजनीति का चाल और चरित्र बदल रहा है। अब महज जातीय और सांप्रदायिक समीकरणों के बूते राजनीति करना मुश्किल है? मतदाताओं का जाति, धर्म और क्षेत्रीय भावनाओं से मोहभंग हो रहा है। इस लिहाज से अब वही दल और नेता राजनीति की मुख्य धारा में रह पाएंगे, जो अपने तौर-तरीके पूरी तरह बदल लेंगे। कांग्रेस जो राष्ट्रीय पार्टी हैं, उसका दायरा लगातार इसीलिए सिमट रहा है, क्योंकि वह न तो चेहरा बदलने को तैयार है और न ही तौर-तरीके? राजनीति में आ रहे बदलाव इस बात के भी संकेत है कि अब दलों को संगठन के स्तर पर मजबूत होने के साथ नैतिक दृष्टि से भी मजबूती दिखानी होगी। - रेणु आगाल
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