बेकाबू होता कश्मीर
22-Jul-2017 07:39 AM 1234798
रमजान के महीने का आखिरी शुक्रवार श्रीनगर के जामा मस्जिद में खास इबादत का वक्त इसमें शामिल होने गए सुरक्षाकर्मी मोहम्मद अयूब पंडित को जिस तरह लाठियों से पीट-पीटकर उनकी जान ले ली गई वह इस बात का संकेत है की कश्मीर में हालात बेकाबू है। सुरक्षाकर्मी पहले भी मारे गए हैं कश्मीर घाटी में, लेकिन इस तरह नहीं। इससे साबित होता है कि सरकार के हाथ से कश्मीर घाटी के कुछ जिले तकरीबन निकल चुके हैं। वहां शासन उनके हाथों में है अब, जो अपने आपको मुजाहिद समझते हैं और बिना किसी संकोच के कहते हैं कि उनका मकसद है कश्मीर में शरीयत लाना। बुरहान वानी और उनके साथी कई बार कह चुके हैं वीडियो पर कि वे कश्मीरी, जो पुलिस या भारतीय सेना में भर्ती होते हैं उनको दुश्मन माना जाएगा और उनकी हत्या जायज मानी जाएगी। सो 2016 में 87 सुरक्षाकर्मियों ने कश्मीर घाटी में अपनी जाने गंवाईं, मुठभेड़ों में या जिहादी आतंकवादियों की गोलियों से। अयूब पंडित की हत्या साबित करती है कि अभी तक जो मोदी सरकार की कश्मीर में रणनीति रही है वह विफल हो गई है। जब नरेंद्र मोदी ने मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ हाथ मिला कर श्रीनगर में एक ऐसी सरकार बनाई थी, जिसमें भारतीय जनता पार्टी पहली बार हिस्सा ले रही थी तो इन दोनों राजनेताओं ने बहादुरी दिखाई थी और इस बहादुरी की जितनी तारीफ की जाए कम होगी। यह साझी सरकार अगर सफल होती तो संभव है कश्मीर में अमन-शांति के आसार अब तक दिखने लग गए होते। मुफ्ती साहब पिछले वर्ष जनवरी के महीने में गुजर न गए होते तो हो सकता है कि कश्मीर घाटी की शक्ल आज कुछ और होती। उनके देहांत के बाद सारी रणनीति बिखरने लग गई। गद्दी पर बैठीं महबूबा मुफ्ती न शासन संभाल पा रही हैं, न जिहादी आतंकवाद को रोक पाई हैं और न ही लोगों के दिलों में जगह बना पाई हैं। कश्मीर को वापस शांति के पथ पर लाने के लिए नई रणनीति बहुत जरूरी हो गई है जिसका पहला कदम होना चाहिए महबूबा सरकार को बर्खास्त करना। ऐसा नहीं होता है तो जुलाई आठ तक तक हालात और भी बिगड़ सकते हैं क्योंकि उस दिन बुरहान वानी की याद में उनके साथी अशांति फैलाने के लिए कुछ नई साजिशें रच रहे होंगे अभी से। नई रणनीति का दूसरा कदम होना चाहिए घाटी के उन पांच जिलों को अलग नजरों से देखना, जहां जिहादी आतंकवादियों का अब हर तरह से कब्जा है। यहां पर जिहादियों और उनके समर्थकों के साथ जितनी सख्ती हो, कम होगी, मानवाधिकार वाले चाहे कुछ भी कहें। इन जिलों को अगर सेना के हवाले करना हो तो इसके बारे में भी सोचना चाहिए क्योंकि इन जिलों में वे लोग शासन चला रहे हैं जिनका मकसद है कश्मीर घाटी का पूरी तरह से इस्लामीकरण। खुल कर वानी और उनके साथी कह चुके हैं कि उनकी लड़ाई इस्लाम के लिए है, कश्मीर में शरीयत कायम करने के लिए है। सो यह लोग भारत के दुश्मन हैं और इनके साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए जो देश के दुश्मनों के साथ होता है। कश्मीर घाटी के बाकी जिलों में और जम्मू और लद्दाख में जरूरत है विकास की गाड़ी को हवाई जहाज की रफ्तार पर चलाने की। यहां हर तरह से निवेशकों और पर्यटकों को आकर्षित करने का काम होना चाहिए। दिल्ली में नीति बनाने वाले अक्सर भूल जाते हैं कि जम्मू और लद्दाख भी हैं इस राज्य में, जिनका इस अशांति के कारण बुरा हाल हो गया है पिछले दो दशकों में। इन क्षेत्रों में केंद्र सरकार की पूरी मदद होनी चाहिए विकास के कार्यों में तेजी लाने के लिए। जब भी कश्मीर घाटी में कोई नई घटना होती है केंद्र सरकार का ध्यान कुछ दिनों के लिए उधर आकर्षित हो जाता है और फिर थोड़ी सी शांति आ जाती है और कश्मीर की समस्या को भूल जाते हैं। दूसरी गलती जो हमारे राजनेता बार-बार करते आए हैं तो वह यह कि जब भी कुछ होता है दोष पाकिस्तान पर लगा देते हैं बिना किसी सबूत के। फिर घूमते हैं विदेशों में इस मांग को लेकर कि पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश घोषित कर दिया जाए। अगर ऐसा हो भी जाता है तो क्या हासिल होगा? क्या पाकिस्तान सुधर जाएगा ऐसी घोषणा के बाद? सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसा होने से क्या कश्मीर में अमन-शांति आ जाएगी? बिल्कुल नहीं। कश्मीर समस्या का समाधान तब ढूंढ़ पाएंगे हम जब स्वीकार करेंगे कि इस समस्या के दो पहलू हैं। एक अंतरराष्ट्रीय, जिसमें पाकिस्तान के बिना हल ढूंढऩा मुश्किल है। लेकिन एक पहलू अंदरूनी है, जिसका हल हमको देश के अंदर ढूंढऩा होगा। आतंक का वीभत्स रूप कश्मीर में सुरक्षा बलों पर आतंकी हमला वहां के बिगड़े हालात का नया प्रमाण है। श्रीनगर में हुए इस आतंकी हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के एक सब इंस्पेक्टर और एक जवान को शहादत का सामना करना पड़ा। कश्मीर में ऐसी घटनाएं अब आम हो गई हैं। हर दूसरे-चौथे दिन सेना अथवा सुरक्षा बलों के किसी न किसी ठिकाने पर आतंकी हमला कर रहे हैं। यह सही है कि पिछले कुछ समय से सेना और सुरक्षा बल आतंकियों पर दबाव बनाए हुए हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसके ठोस नतीजे हासिल नहीं हो रहे हैं। सीमा पर और सीमा के अंदर तमाम आतंकियों को मार गिराने के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि आतंकियों के दुस्साहस में कोई कमी आ रही है। सीमा पार से घुसपैठ के मामलों में अवश्य कुछ गिरावट आई है, लेकिन वहां जवानों को निशाना बनाने की घटनाएं बढ़ी हैं। - विकास दुबे
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