20-Mar-2017 06:32 AM
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वसुंधरा राजे ने हमेशा लीक से हटकर राजनीति की है। यही कारण है कि भाजपा संगठन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक धड़ा हमेशा उनकी खिलाफत में रहता है। लेकिन संगठन की मजबूरी है कि उसे वसुंधरा से आगे कुछ नहीं सूझता है। दरअसल प्रदेश में वसुंधरा राजे को भाजपा जीत का ट्रंप कार्ड मानती है। इसलिए वसुंधरा भी गाहे बगाहे संगठन और संघ को अपनी हैसियत का अहसास कराती रहती हैं।
हालांकि उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में मिली ऐतिहासिक जीत के बाद वसुंधरा राजे ने मोदी के लिए खूब कसीदे गढ़े हैं, लेकिन उनके विरोधी इस आस में हैं कि अब मोदी और शाह वसुंधरा से पंगा ले सकते हैं। क्योंकि उत्तरप्रदेश में सत्ता इन्हीं दोनों के कारण आई है। राजस्थान में गत विधानसभा का चुनाव राजे के नेतृत्व में ही लड़ा गया था और भाजपा को 200 में से 160 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इसके बाद राजे ने अपने वायदे के मुताबिक लोकसभा की सभी 25 सीटे नरेन्द्र मोदी की झोली में डाल दी। राज्यसभा के चारों भाजपा उम्मीदवारों को भी जितवा दिया। यानि राजनीतिक दृष्टि से ऐसा कोई कारण नहीं है, जिसकी वजह से राजे को हटाया जाए।
जब यूपी की हवा का असर राजस्थान में माना जा रहा है तो फिर नेतृत्व में बदलाव क्यों किया जाएगा? भाजपा के कुछ नेता राजे के व्यवहार से नाराज हो सकते हैं, लेकिन केन्द्र का एक भी नेता राजे से नाराज नहीं है, जब कभी नेतृत्व बदलने की चर्चा होती है तो राजे के विकल्प के तौर पर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम माथुर का नाम सामने आता है, लेकिन राजे ने अपनी चतुराई से जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी से सीधा संवाद बना लिया है, उसमें अब ओम माथुर भी अपनी चर्चा करवाकर कोई खतरा नहीं लेना चाहते।
वैसे भी ओम माथुर ने संगठनात्मक दृष्टि से जो मुकाम हासिल किया है उसे वे बनाए रखना चाहते हैं। मोदी और अमित शाह के सामने ओम माथुर की स्थिति एक मुख्यमंत्री से ज्यादा है। यूपी चुनाव में भी ओम माथुर ही प्रभारी थे। माथुर के साथ-साथ अजमेर से राज्यसभा के सांसद भूपेन्द्र यादव ने भी अपने राजनीतिक कद को और बढ़ाया है। पीएम नरेन्द्र मोदी के बनारस की कमान यादव के पास ही थी। यूपी में भाजपा की जीत का श्रेय यादव को भी है। अब सरकार के गठन में भी ओम माथुर और भूपेन्द्र यादव की भी सक्रिय भूमिका रहेगी। प्रदेश की राजनीति में यह सवाल भी उठ रहे हैं कि किसी समय में भाजपा हाईकमान से भिड़ जाने वाली प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की पकड़ क्या अब कमजोर पड़ती जा रही है? पिछले कुछ समय की घटनाओं से तो यही आभास होता है। वे समझौते दर समझौते कर रही हैं। ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि ये परिवर्तन आया कैसे और ये भी कि उनको परेशानी में डालने व चुनौती देने वालों को किस का सपोर्ट है?
जरा पीछे मुड़ कर देखिए। जब राज्य में भाजपा पराजित हुई तो हार की जिम्मेदारी लेने के तहत उनको हाईकमान ने नेता प्रतिपक्ष का पद छोडऩे के निर्देश दिए, जिसे उन्होंने मानने से साफ इंकार कर दिया। बिफर कर उन्होंने न केवल पार्टी की नींव रखने में अहम भूमिका निभाने वाली अपनी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया की याद दिलाई, अपितु विधायकों को लामबंद कर हाई कमान को लगभग चुनौती दे दी। बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया। बाद में बमुश्किल मानीं तो ऐसी कि लंबे समय तक यह पद खाली ही पड़ा रहा। जब चुनाव नजदीक आए तो हाईकमान को उनको विकल्प के अभाव में फिर से प्रदेश की कमान सौंपनी पड़ी। प्रदेश पर अपनी पकड़ को उन्होंने बंपर जीत दर्ज करवा कर साबित भी कर दिया। यह दीगर बात है कि इसका श्रेय मोदी लहर को भी दिया गया। अब तो मोदी लहर ठहरने का नाम नहीं ले रही ऐसे में महारानी को भी कुछ हद तक भय जरूर हो रहा होगा।
-जयपुर से आर.के. बिन्नानी