मोदी मैजिकÓ की आस में भाजपा
03-Mar-2017 08:59 AM 1234811
महाराष्ट्र निकाय चुनाव के बाद भाजपा को उम्मीद है कि जिस तरह महाराष्ट्र में जनता ने पार्टी को बहुमत दिलाया है उसी तरह पांच राज्यों में से अधिकांश में मोदी मैजिक असर दिखाएगा। खासकर पार्टी को उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड और गोवा में तो जीत की उम्मीद है ही। लेकिन यह जीत तभी मिलेगी जब जनता पर मोदी मैजिक अपना असर छोड़ेगा। वैसे अगर इस चुनाव में भाजपा की जीत हुई तो इसके कई प्रमुख कारण हो सकते हैं। पंजाब में आप और कांग्रेस के बीच टकराव का फायदा भाजपा और अकाली दल के गठबंधन को मिल सकता है। वैसे राज्य में सरकार होने के कारण भाजपा और अकाली दल के खिलाफ माहौल है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रभाव यहां की जनता पर देखने को मिल रहा है। हालांकि अभी तक मिले सकेतों के अनुसार यहां त्रिशंकु की स्थिति बनी हुई है। उत्तराखण्ड में भाजपा अच्छी स्थिति में है, लेकिन दल बदलकर कांग्रेस से भाजपा में आए नेताओं की स्थिति ठीक नहीं है। भाजपा ने अधिकांश दल बदलुओं पर दांव खेला है। अगर यह दांव चल गया तो भाजपा की बल्ले-बल्ले हो जाएगी वर्ना पार्टी को मोदी मैजिक की ही आस है। गोवा में भाजपा और संघ के बीच टकराव और आप की चुनौती पार्टी पर भारी पड़ सकती है। हालांकि यहां भाजपा की सरकार बनने की आस है। उत्तरप्रदेश सात चरणों में से पांच चरण के चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। प्रदेश की आवाम लोकतंत्र के इस पर्व को पूरे उत्साह के साथ मना रही है। यही कारण है कि जैसे-जैसे मतदान के चरण आगे बढ़ रहे है, वोटिंग फीसदी भी 2012 के मुकाबले बढ़ रहा है। मतदान प्रतिशत बढऩा अक्सर भाजपा के लिए फायदेमंद साबित होता है, इसलिए ये सपा-कांग्रेस गठबंधन की चिंता को बढ़ा रहा है, भाजपा की उम्मीदों को और मजबूत कर रहा है। चुनाव शुरू होने से पहले कई ऐसे घटनाक्रम चले जो चुनाव परिणाम को प्रभावित करने वाले थे। सबसे पहले तो यूपी में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में जो प्रायोजित नाटकीय घटनाक्रम चला, उसके जरिए पार्टी और प्रदेश में अखिलेश को मजबूत करने की कवायद मुलायम सिंह द्वारा की गई। इसके बाद कांग्रेस का 27 साल यूपी बेहालÓ का नारा यूपी को साथ पसंद हैÓ में बदल गया अर्थात सपा और कांग्रेस में मौका परस्ती का गठबंधन चुनाव से ऐन पहले हो गया। अपनी राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही बसपा इस समूचे चुनाव के सबसे पीछे खड़ी दिखाई दे रही है। यह स्थिति समझ से परे है जो मायावती उत्तर प्रदेश में अपना वर्चस्व रखती थीं, आज उनकी पार्टी के सुस्त राजनीतिक आचार-व्यवहार को देखकर कहा जा रहा है कि चुनाव से पहले ही मायावती अपनी हार स्वीकार कर चुकी हैं। वर्तमान में सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा इस चुनाव के केंद्र में हैं। यूपी में सत्ता विरोधी रुझान की जो लहर है, वो भाजपा के पाले में जाती दिख रही है। इस चुनाव में सबसे मजबूत दावेदार अगर भाजपा होती है तो इसके कई प्रमुख कारण हैं। पहला, पिछले चौदह साल से भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता से दूर है, इन चौदह सालों में प्रदेश की जनता कभी मायावती तो कभी मुलायम को चुनकर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है। अब एक तरफ मायावती के सत्ता में आते ही जहां भ्रष्टाचार अपने पांव फैलाने लगता है और वे सरकारी धन को मूर्तियों, पार्कों में व्यर्थ का व्यय करने में लग जाती हैं। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी जब-जब सत्ता में आती, सबसे पहले प्रदेश की कानून व्यवस्था को ताक पर रख देती है। गुंडा राज का यम हो जाता है। शिक्षा व्यवस्था चरमरा जाती है। नौकरियों, नियुक्तियों में भेदभाव की बात सामने आने लगती है। बलात्कार, फिरौती, हत्या, भ्रष्टाचार के मामलों में बेतहाशा वृद्धि होती है। ऐसे में, इनसे प्रदेश में विकास की उम्मीद लगाना अब जनता को बेमानी लगने लगा है। साथ ही, अगर आज यूपी में भाजपा सत्ता में आने का दम खम दिखा रही है, तो इसके पीछे एक मुख्य कारण केंद्र में भाजपा-नीत मोदी सरकार द्वारा अपने लगभग ढाई वर्ष के कार्यकाल में देश के विकास के लिए उठाए गए कदम हैं। यूपी की जनता मोदी सरकार की उज्ज्वला, जनधन, मुद्रा, प्रधानमंत्री आवास आदि योजनाओं पर आधारित सबका साथ सबका विकासÓ के एजेंडे को देख रही है और इससे प्रभावित भी नजर आ रही। यह सब वो कारण हैं, जिससे यूपी में भाजपा को मजबूती मिलती दिख रही है। बहरहाल, यूपी का चुनाव संग्राम अपने लगभग आधे सफर को तय कर चुका है। जनता मतदान करने के लिए घरों से निकल रही है। अब देखने वाली बात होगी कि यूपी की जनता किसे प्रदेश की कमान सौंपती है। उत्तरप्रदेश में चुनावों के दौरान जाति-धर्म व समुदाय आधारित वोट बटोरने की राजनीतिक दलों की फितरत रहती आई हैं। बीस करोड़ आबादी वाले उत्तर प्रदेश में लगभग सभी जाति धर्म के लोग रहते हैं, पर राजनीतिक दृष्टि से यह प्रदेश चार वर्गों में बट चुका है। पहला वर्ग सवर्ण, दूसरा वर्ग पिछड़ा, तीसरा दलित और चौथा अल्पसंख्यक है। पहले इसी जाति और सामाजिक समीकरण को समझ लिया जाय कि यूपी में जातियों की क्या स्थिति है? प्रदेश में सामान्य वर्ग 20.94 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग 54.05, अनुसूचित जाति 24.95 व अनुसूचित जनजाति वर्ग 0.06 प्रतिशत हैं। पूरी आबादी में अल्पसंख्यक 14.6 प्रतिशत, यादव 10.46, मध्यवर्ती पिछड़ा वर्ग 10.22 प्रतिशत तथा अत्यंत पिछड़ा वर्ग 33.34 प्रतिशत हैं। इसमें अति पिछड़ों की ही चुनाव में खास भूमिका होती है। अन्य पिछड़े वर्ग की आबादी में निषाद-मछुआरा 12.91, मौर्य-कुशवाहा-शाक्य-काछी 8.56 प्रतिशत, कुर्मी-पटेल 7.46, लोध-किसान 6.06 प्रतिशत, पाल-बघेल 4.43, तेली-साहू 4.03, कुम्हार-प्रजापति 3.42, राजभर 2.44, लोनिया-चौहान 2.33, विश्वकर्मा-बढ़ई 2.44, लोहार 1.81, जाट 3.7, गूजर 1.71, नाई सविता 1.01 व भुर्जी-कांदू 1.43 प्रतिशत हैं। सभी पार्टियां यहां जाति के आधार पर चुनाव लड़ती हैं। हालांकि आज प्रदेश के चुनाव में राजनीतिक वर्ग जाति और धर्म से ऊपर तो उठा है (क्योंकि स्वयं जनता ने इन मुद्दों को खारिज करना शुरू किया है)। लेकिन उसे स्वयं विकास के पैरामीटर की जानकारी नहीं है। अगर किसी बड़े नेता या मंत्री से पूछें कि मानव विकास सूचकांक पर प्रदेश की स्थिति क्या है या बाल मृत्यु दर क्यों कम नहीं हो रही तो अधिकांश बगलें झांकने लगेंगे। दरअसल उनकी ट्रेनिंग में विकास, कभी भी जनमत हासिल करने का मंत्र रहा ही नहीं है। इसके दो उदाहरण हैं। प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में संगीत सोम (मुजफ्फरनगर दंगों में चर्चित) जैसों को टिकट मिलना या मुख्तार अंसारी को अखिलेश की पार्टी में जगह न मिलने पर मायावती द्वारा हाथों हाथ लेना। मुख्तार जैसे कुख्यात अपराधी को टिकट ही नहीं दिया गया बल्कि मायावती ने उसके परिवार को बहुत ही सम्मानित परिवार बताया। इसके पीछे एक ही सोच थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कम से कम दस विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमान मतों की चाहत। मीडिया को भी अपने विश्लेषण के तरीके को बदलना होगा। चुनाव की रिपोर्ट शुरू ही होती है कि किस चुनाव क्षेत्र में कितने मुसलमान, कितने दलित और कितने पिछड़े जाति के लोग हैं? किस प्रत्याशी को कौन जाति वोट नहीं दे रही है? भाजपा और कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय पार्टियों पर यह जिम्मेदारी ज्यादा है। जाति और सांप्रदायिक अपीले धीरे-धीरे अपनी ताकत खो रहीं हैं क्योंकि जनता की प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता, तर्क-शक्ति और स्थिति को आंकने का तरीका बदल रहा है। सशक्तीकरण की झूठी चेतना जगा कर जातिवादी दलों ने 1990 से उत्तर भारत में समाज को जाति और संप्रदाय में जरूर बांटने का प्रयास किया। लेकिन अब जो सवाल कांग्रेस और मोदी से पूछे जा रहे हैं वही मायावती और अखिलेश से भी। लोकतंत्र की सेहत का एक पैमाना राजनीति की भाषा भी है। इस कसौटी पर हमारे देश की पार्टियां और उनका नेतृत्व करने वाले लोग कहां ठहरते हैं? इस सवाल का जवाब खोजने चलें तो अक्सर हमें निराशा ही हाथ लगेगी। अगर चुनाव के दिन हों तो राजनीति की भाषा में गिरावट और साफ नजर आएगी। ऐसा क्यों होता है? इसका एक कारण तो राजनीति की प्रकृति में है जिसमें खुद को औरों से बेहतर होने, दूसरों को खोटा सिद्ध करने और अपने को एकमात्र विकल्प बताने की होड़ हमेशा चलती रहती है। अगर यह आत्मविश्वास न हो कि हम औरों से बेहतर हैं, तो संगठित होने का बौद्धिक और भावनात्मक आधार ही टूट जाएगा। लेकिन खुद को औरों से बेहतर मानने के साथ-साथ आत्म-निरीक्षण भी जरूरी है, वरना आत्मविश्वास खोखले दंभ में बदल जाता है और फिर वही हर तरफ दिखता है। हमारे राजनीतिकों ने अपने गिरेबां में झांकना छोड़ दिया है। इसीलिए उन्हें दूसरों में तो खोट ही खोट नजर आते हैं, अपने में और अपनों में कोई खोट नहीं दिखता। लिहाजा, यह हैरत की बात नहीं कि चुनाव-प्रचार निंदा अभियान और घृणा अभियान में बदल जाते हैं। कुछ दिन पहले पंजाब विधानसभा के चुनाव में भाषा की मर्यादा तार-तार हो गई थी, अब वही उत्तर प्रदेश में हो रहा है। आक्रमण ही बचाव हैÓ की तर्ज पर कोई पीछे नहीं रहना चाहता। आपत्तिजनक बयान देने में औरों की तो छोडि़ए, खुद मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री ने कोई संकोच नहीं दिखाया। पर यह जुबान फिसलना भर नहीं है। गौर करें तो ऐसे बयानों के पीछे छिपी मंशा पकड़ी जा सकती है। अक्सर जाति और धर्म के नाम पर गोलबंदी करना मकसद होता है ताकि आसानी से वोट बटोरे जा सकें। न तो आदर्श चुनावी आचार संहिता की परवाह की जा रही है न सर्वोच्च न्यायालय के हाल में दिए फैसले की। सरकार बनाने में रालोद की महत्वपूर्ण भूमिका उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अगर किसी दल को बहुमत नहीं मिलता है तो ऐसे में राष्ट्रीय लोकदल की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। क्योंकि इस पार्टी की पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 26 जिलों की 77 विधानसभा सीटों पर पकड़ है। इस इलाके में जाटों की आबादी लगभग 17 फीसदी और मुसलमान 26 फीसदी हैं। लेकिन मुसलमान विभिन्न पार्टियों में बंटे हैं जबकि इस बार जाट अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल पर मेहरबान हैं। यहां के 10 से ज्यादा जिलों में जाट आबादी 40 प्रतिशत से ऊपर है। दरअसल, आरक्षण नहीं मिलने के कारण जाट भाजपा से नाराज हैं। उनका कहना है कि हरियाणा से लेकर राजस्थान तक भाजपा सरकार ने हमारे समाज को धोखा दिया है। हमारे लिए यही सबसे बड़ा मुद्दा है। संभावना जताई जा रही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर और बदायूं जिले में रालोद उम्मीदवार उलटफेर भी कर सकते हैं। सपा कांग्रेस गठबंधन में सीट न मिलने और टिकट कटने जैसी स्थिति में रालोद को कई क्षेत्रों पर प्रभावशाली उम्मीदवार भी मिल गए। संभावना जताई जा रही है की रालोद 30 से 35 सीटें जीत कर किंगमेकर की भूमिका में आ सकती है। क्या अमर सिंह को मिलेगा ठिकाना उधर, अमर सिंह नया ठिकाना तलाश रहे हैं। सपा के खिलाफ आग उगलने के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनका प्रेम यह दर्शा रहा है की वे भाजपा में जाने का मन बना चुके हैं। लेकिन लगता नहीं है कि भाजपा अमर को पार्टी में लेगी। क्योंकि अमर सिंह का कोई भरोसा नहीं है कि वे कब किसको निशाना बना लें। अपना राग जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं पार्टियां और नेता अपनी-अपनी जीत का राग अलाप रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पांच चरण के मतदान संपन्न हो गए हैं। इसके साथ ही पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव संपन्न हो चुका है तो मणिपुर और उत्तर प्रदेश के दो चरणों के प्रचार जोरों पर है।  सभी दलों के अपने-अपने दावे हैं और सभी के लिए जीत की अपनी रणनीति। मतदाताओं का रुख किस ओर करवट बदल रहा है कोई नहीं जानता। क्योंकि सभी की रैलियों में भीड़ उमड़ी और उमड़ रही भीड़ चुनावी विश्लेषकों के लिए हैरान कर देने वाली है। ऐसे में सबको 11 मार्च का इंतजार है। बहन जी ने छोड़ी पुरानी राह बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती इस बार सोशल इंजीनियरिंग पार्ट टू की तर्ज पर चुनाव लड़ रही हैं। कभी सोशल मीडिया से दूर रहने वाली बसपा प्रमुख ने न केवल सोशल मीडिया का सहारा लिया है बल्कि प्रचार के लिए पेशेवर गायक की रिकार्डिंग को भी प्रमुखता से सुनाया जा रहा है जिसके लिए लखनऊ में पार्टी मुख्यालय में वार रूम के जरिये पूरे प्रचार कार्यक्रम की रणनीति तैयार होती है। इसकी जिम्मेदारी सतीश चंद्र मिश्र के बेटे के पास है। मायावती के करीबियों के मुताबिक इस बार बसपा अपनी राजनीतिक रणनीति में बदलाव करके चुनाव लड़ रही है। इसलिए दलित-मुस्लिम गठजोड़ को प्रमुखता दी गई है। इसी गठजोड़ के कारण बहन जी ने दलितों के साथ-साथ मुसलमानों को सबसे अधिक टिकट दिया है। इतना ही नहीं मायावती ने मूर्तियों, स्मारकों से अब दूरी बनाते हुए कहा है कि अगर प्रदेश में उनकी सरकार आएगी तो न मूर्तियां लगेंगी और न ही संग्रहालय बनाए जाएंगे बल्कि विकास और गुंडाराज खत्म करने को प्राथमिकता दी जाएगी। शाह के करीबियों की बड़ी भूमिका अबकी बार 300 पार का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी ने इस बार चुनावों में पूरी ताकत झोंक रखी है। हालांकि उम्मीदवारों की सूची जारी होने के बाद अंदरखाने नाराज चल रहे नेताओं को मनाने में पार्टी रणनीतिकारों को काफी मशक्कत करनी पड़ी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए भी यह चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि उनके प्रभारी रहते हुए पार्टी ने लोकसभा चुनाव में 80 में से 71 सीटों पर जीत हासिल की थी और दो सीटें सहयोगी दल को मिली। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा सामने रखकर चुनाव लडऩे वाली भाजपा ने इस बार किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। अमित शाह ने बागी नेताओं को मनाने के लिए अपने खास लोगों को चुनावी मैदान में उतार दिया है। बिहार के संगठन महामंत्री नागेंद्र, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव, संगठन महामंत्री सुनील बंसल, प्रदेश के प्रभारी ओम माथुर, बिहार के पूर्व मंत्री नंदकिशोर यादव, बिहार भाजपा के पूर्व अध्यक्ष मंगल पांडेय सहित कई नेताओं को प्रचार-प्रसार से दूर रखकर बागी नेताओं को मनाने और वार रूम में बैठकर प्रचार की रणनीति तय करने की जिम्मेदारी दी गई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के रणनीतिकार जाट मतदाताओं को लुभाने के लिए उनके बीच जाकर इस तरह का प्रचार कर रहे हैं कि आजादी के बाद अब तक किसी एक पार्टी से 17 जाट सांसद कभी नहीं बने। भाजपा का जाटों पर इतना विश्वास है कि इन 17 सांसदों में से 4 सांसद केंद्र में मंत्री पद को शुभोभित कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में हाल में हुए विधानपरिषद के चुनाव में भाजपा ने जाट उम्मीदवार को ही अपनी पहली पसंद बनाया और वर्तमान विधानसभा चुनाव में 15 टिकट जाट बिरादरी से दिए। यूपी भाजपा को मध्यप्रदेश का सहारा उत्तरप्रदेश में बेहद कड़े एवं त्रिकोणीय मुकाबले में फंसी भाजपा को मध्यप्रदेश भाजपा का सहारा मददगार साबित हो रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर इस समय मप्र के मंत्री और सैकड़ों भाजपा नेता उत्तरप्रदेश मेंं पसीना बहा रहे हैं। दरअसल, उत्तरप्रदेश की सीमा मध्यप्रदेश के लगभग एक दर्जन जिलों से लगी हुई है। हजारों रिश्तेदारियां म.प्र. और उ.प्र. के बीच हंै। व्यापार, व्यवसाय एवं नौकरी के लिए भी एक-दूसरे के राज्य में वर्षों से कर रहे हैं। राजनीति भी ऐसी कि उत्तरप्रदेश के सपा नेता दीपनारायण यादव की पत्नी मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले से विधायक बन जाती है तो मध्यप्रदेश में जन्मी भाजपा नेत्री उमा भारती पहले उत्तरप्रदेश की चरखारी विधानसभा से विधायक तो फिर झांसी से लोकसभा सदस्य चुनी जाने के बाद केन्द्र में मंत्री हैं। यही नहीं जब-जब पृथक बुन्देलखंड राज्य की बात चलती है तब-तब उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के जिलों को मिलाकर ही होती है। कुल मिलाकर उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश का संबंध रोटी, बेटी से लेकर राजनैतिक रूप से एक-दूसरे में सराबोर है। यही कारण है कि इस समय उत्तरप्रदेश में भाजपा बेहद कड़े मुकाबले में है। सो, उसे मध्यप्रदेश भाजपा का सहारा बेहद असरकारी लग रहा है। मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री नरोत्तम मिश्रा पिछले एक माह से उत्तरप्रदेश में डेरा डाले हुए हैं। वहीं अब पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव भी केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देश पर प्रचार करने पहुंचे। यहां उन्होंने केन्द्रीय मंत्री उमा भारती के साथ सभाओं को संबोधित किया। गृह एवं परिवहन मंत्री भूपेन्द्र सिंह ने भी कार्यकर्ताओं की बैठक ली। इनके अलावा प्रदेश भाजपा सैकड़ों नेता जातीय समीकरणों के तहत उत्तरप्रदेश के दर्जनों विधानसभा क्षेत्रों में डेरा जमाए हुए हैं। जाहिर है मध्यप्रदेश में जब चुनाव होते हैं तो उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती जिलों के भाजपा नेता भी प्रचार करने मध्यप्रदेश आते हैं लेकिन मध्यप्रदेश के नेता जिस दमदारी और प्रभावी ढंग से उत्तरप्रदेश में भाजपा का प्रचार कर रहे हैं उससे उत्तरप्रदेश में पार्टी को मजबूत सहारा मिला है। यही कारण है कि उत्तरप्रदेश के नेता मध्यप्रदेश के नेताओं को चुनाव तक रुकने का आग्रह भी कर रहे हैं लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि आखिर मध्यप्रदेश भाजपा का सहारा उत्तरप्रदेश में पार्टी को चुनाव जिता सकता है क्योंकि पार्टी उत्तरप्रदेश में खंदक की लड़ाई लड़ रही है। -मधु आलोक निगम
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