16-Feb-2017 08:52 AM
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हां दादा पायलागी! कैसे हैं. . .? कल जैसे ही दुकान के शुभारंभ का समाचार मिला मन प्रसन्न हो गया। अब आऊंगा तो लडडू जरूर खाउंगा...सब आपकी कृपा है...जी हां जी हां. ..।
दूरभाष पर कवि मित्र की दूर शहर में रहने वाले एक वरिष्ठ कवि से बातचीत हो रही है। कवि मित्र बात करते समय यों झुके हुए थे, मानो चरण स्पर्श करने के बाद रीढ़ सीधी करने का समय ही नहीं मिल पा रहा हो। वास्तव में वे एक ऐसे सज्जन से बात करने में लगे थे जिनकी पहुंच पुरस्कार/चयन समितियों में अच्छी थी, और जो जुगाड़मेंट के क्षेत्र में माहिर माने जाते थे। कवि मित्र को जैसे ही पता लगा कि इन सज्जन के तीसरे बेटे ने एस.टी.डी., पी.सी.ओ., फोटोकॉपी की दुकान खोली है, उन्होंने तुरंत अवसर का लाभ उठाया और दूरसंचार विभाग के तारों पर सवार होकर उनके पांव छू लिए।
बात पूरी कर मेरे पास आकर बैठते हुए बोले, बुढ्ढ़ा बहुत खुर्राट है, पर क्या करें! साहित्य के क्षेत्र में जमना है तो ऐसे लोगों के पांव छूने ही पड़ेंगे। मैंने देखा उनके चेहरे पर चंद मिनटों पहले जला हुआ खुशी का बल्ब फक्क से बुझ गया था और वे कड़कड़ा रहे थे। बाद में बड़ी देर तक तथाकथित खुर्राट बुढ्ढ़े को गालियां देते रहे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उनकी वह खुशी वास्तविक थी या यह गुस्सा वास्तविक है। यह तो जाहिर है कि उनके कथन में कुछ न कुछ असत्य अवश्य था।
सच पूछा जाए तो जीवन में हर आदमी कभी न कभी झूठ बोलता है। झूठ की अपनी महत्ता, अपनी उपयोगिता है। सत्य बोलने वाले लोग सतयुग में भी बहुत कम रहे होंगे इसलिए तो राजा हरिश्चंद्र का सत्यवादी होना आज तक याद किया जाता है। धर्मराज युधिष्ठिर का छदम सत्य अश्वत्थामा हत नरो वा कुंजरो वा पुराण प्रसिद्ध है। और तो और बहुत सारे पौराणिक पात्र तो झूठा (छदम) रूप भी धारण करते थे। गौतम ऋषि नदी पर स्नान के लिए गए तो एक देवता ने तुरंत गौतम ऋषि का डबल रोल लिया व पहुंच गए अहिल्या के समीप। बाकी की कथा आपको मालूम ही है।
सुनते हैं पहले आदमी इतना सच्चा होता था कि झूठ पकड़े जाने पर उसका चेहरा फक्क हो जाता था। जब झूठ बढऩे लगा तो झूठ पकडऩे की मशीन ईजाद की गई। आजकल तो कई लोगों ने इस मशीन पर भी उसी तरह विजय पा ली है जैसे मच्छरों ने डीडीटी पर या मलेरिया परजीवी ने ब्लड टेस्ट पर। एक समय एक विशेष प्रकार के झूठ का नामकरण भी हुआ था सफेद झूठ। इसमें व्यक्ति इतनी होशियारी से झूठ बोलता था कि उसकी शिनाख्त ही नहीं हो पाती थी और सुनने वाला उसे पूरी तरह सच्चा समझ लेता था। सफेद झूठ ने लंबे समय तक संवादों, लेखों, कहानियों में अपना स्थान बना कर रखा।
सभी बदलने के साथ अब इस मामले में भी प्रगति हुई है। झूठ की, और झूठ बोलने वालों की नई-नई किस्में तैयार होने लगी हैं। पहले रुपहले पर्दे पर जिस अभिनय के आधार पर अभिनय सम्राट या ट्रेजेडी किंग की उपाधि मिलती थी वह अभिनय अब ढेरों लोग, खासतौर पर, नेतागण करने लगे हैं। एक निष्णात झूठ जो इन दिनों खूब चल रहा है उसमें नामकरण का प्रश्न भी चर्चाओं और गोष्ठियों में उठाया जा रहा है, मसलन किसी न्यूज चैनल पर कैमरे के सामने मौजूद पार्टी प्रवक्ता कहता है, हम लोगों में कोई मतभेद नहीं हैं, इस मसले पर सभी लोग एक मत हैं। सारे दर्शकों को शत प्रतिशत विश्वास होता है कि उसकी बात में जरा-सी भी सत्यता नहीं है। पार्टी में जूतम पौजार चल रही है। फिर भी प्रवक्ता जी के बोलने में अद्वितीय आत्मविश्वास है। वह बार-बार कहते हैं, पार्टी में मतभेदों की बात विरोधियों द्वारा फैलाई गई है, इनमें कोई सच्चाई नहीं है। अब इस झूठ को आप क्या नाम देंगे? इसके सामने तो सफेद झूठ भी पानी भरता प्रतीत होता है। अगले दिन वही प्रवक्ता बड़ी शान से घोषणा करता है, पार्टी में अनुशासन बनाए रखने की खातिर चार लोगों को छ: वर्षों के लिए पार्टी से निष्कासित किया जाता है।
विज्ञापनों की दुनिया ने रेशमी झूठ किंवा चमकीले झूठ को घर-घर में प्रसारित कर दिया है। बुढ़ाते लोग अपने श्वेत केशों को अश्वेत बनाने के लिए विज्ञापनी वस्तुएं खरीदते हैं व खुद को जवान सिद्ध करते हैं। बालों को काला करने के जादू ने स्त्री-पुरुष सभी को सम्मोहित कर रखा है। संधिकाल में जी रही रमणियां, जो जवानी को जाने नहीं देना चाहतीं, अपनी त्वचा को रेशमी मुलायम बनाने के प्रसाधनों का भरपूर दोहन कर रही हैं। जन्नत की हकीकत भले ही सबको मालूम हो, दिल को समझाने के लिए थोड़ी-सी लीपापोती में बुरा क्या है? आखिर चमकीला झूठ चमक ही बढ़ाएगा ना? सच बोलने में अक्सर खतरा रहता है। चोर को चोर या भ्रष्ट को भ्रष्ट कहना कतई समझदारी नहीं है इसलिए चतुर सुजान अपनी वाक्पटुता से बात को सत्य असत्य से परे ले जाते हैं, अपने पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारते। यदि जरूरी ही हो तो सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात की सुरक्षित नीति अपनाते हैं। आंखर, राजा नंगा है कहने की नासमझी कोई नादान ही करता है। ऐसी ही नादानी व्यंग्यकार करता रहता है, जहाँ विसंगति देखता है तुरंत बोल पड़ता है, पर इस बारे में कुछ बोलना भी बेकार है क्योंकि यदि वह समझदार ही होता तो व्यंग्यकार क्यों बनता?
- डॉ. अखिलेश बार्चे