03-Jan-2017 07:04 AM
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प्रतीभा किसी की मोहताज नहीं होती। प्रतीभा की कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं, कोई क्षेत्र नहीं होता बल्कि उसका कर्म ही उसकी जाति, धर्म और क्षेत्र होता है। भारत में ऐसी प्रतीभाओं की कमी नहीं है। ऐसी ही देसी प्रतीभा पहलवान गीता और बबीता फोगट बहनों पर आधारित फिल्म दंगल ने यह साबित कर दिया है कि देश में आज भी लोग प्रतीभाओं को पसंद करते हैं। दंगल आज बॉक्स ऑफिस पर ही नहीं लोगों के मन पर भी राज कर रही है। बिना बड़े स्टार, बिना बड़े बजट और बिना तकनीकी तामझाम के बनी इस फिल्म ने पांच दिन में कमाई के सारे रिकार्ड तो तोड़ ही दिया है, साथ ही यह संदेश भी दिया है की फिल्मों को सफलता के लिए बड़े स्टार, बड़े बजट और विदेशी लोकेशन की जरूरत नहीं है।
दंगलÓ साल की बहुप्रतीक्षित बायोपिक फिल्म अनुमानित थी। यह मनोरंजन और मैसेज का मारक मिश्रण बन उभर और निखर कर सभी के सामने आई। यह सफलता और लोकप्रियता के अप्रतिम मानक बनने के पीछे की कड़ी तपस्या, अनुशासन, त्याग, एकाग्रता और एकाकी जीवन की अपरिहार्यता को असरदार तरीके से पेश करती है। यह मानव जीवन के मुकम्मल मकसद पर रौशनी डालती है। वह यह कि जिंदगी में मिसाल बनने से कम कुछ भी मत स्वीकारो। बनना है तो प्रतिमान बनो। खुद के लिए। अपनों के लिए। समाज और राष्ट्र के लिए। हिंदी सिनेमा के जंगल में बड़े-बड़े सुपर स्टार पहलवान आते हैं अखाड़े में दांव लगाते हैं कुछ कई सौ करोड़ की ट्राफी जीत कर भी चारो खाने चित्त हो जाते हैं और कई बॉक्स ऑफिस की खिड़की में सांस लेने से पहले ही दम तोड़ देते हैं, लेकिन उनका दांव ऐसा होता जो दर्शकों के दिल पर धोबी पछाड़ दे देता है। उनमें से कुछ एक पहलवान बस अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं, लेकिन जो दर्शकों का दिल जीतता है वो असली पहलवान कहानी होती है। दंगल में भी जो असली पहलवान है, वह कहानी है, इसीलिए दंगल धाकड़ है और बॉक्स ऑफिस पर दंगल का मंगल कायम है और लंबे समय तक कायम रहेगा। जिस तरह देश के ज्यादातर स्पोर्ट्स चलन से बाहर हो गए हैं, वैसे ही दंगल (कुश्ती की प्रतियोगिता) भी हरियाणा जैसे कुछ राज्यों को छोड़ कर और कहीं कम ही होता है। पहले गांवों, कसबों का हर मेला और जलसा बिना दंगल के पूरा नहीं होता था। यह तब की बात है जब टीवी का रोग और इंटरनेट की लत नहीं थी।
अब तो दंगल का मतलब डब्लूडब्लूएफ की फर्जी फाइट से निकाला जाता है। हिंदी फिल्मों में सामाजिक सरोकार की कहानियों से जुड़े विषयों का टोटा रहता है। वहां ग्रामीण समाज से जुड़े किरदारों को तो हमेशा से ही हाशिए पर रखा गया है। दंगलÓ के पहलवान गांवों से आए हैं, लेकिन हर साल सैकड़ों फिल्में बॉलीवुड में बनती हैं, पर इन्हें नायक की तरह कम ही पेश किया जाता है। इससे पहले मैरिकॉम, भाग मिल्खा भाग और एमएस धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी आदि फिल्मों ने यह साबित कर दिया है कि अगर देसी प्रतीभाओं के संघर्ष को कहानी में पिरोकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाए तो वह सफलता के सारे मुकाम हासिल कर सकती है। लेकिन दंगल इन फिल्मों से कही आगे है। वह इसलिए की मैरिकॉम, भाग मिल्खा भाग और एमएस धोनी-द अनटोल्ड स्टोरी में बड़े कलाकार मुख्य भूमिका में थे, जबकि दंगल में वे चेहरे मुख्य किरदार में हैं जिनकी पहले कोई पहचान नहीं थी।
बॉलीवुड में अकसर देखा गया है कि प्रयोगधर्मी सिनेमा को कभी तरजीह नहीं दी गई। इसकी जिम्मेदारी गिने चुने ऑफबीट फिल्म बनाने वाले निर्देशकों पर डाल दी जाती है। और जिन के पास करोड़ों का बजट और वितरण की बड़ी मार्केट हैं वे भेड़चाल में चलते हुए उसी फार्मूले को दोहरा रहे हैं जो एक बार हिट हो जाता है। अगर कॉमेडी फिल्में हिट हो गई तो एक साथ ऐसी फिल्मों की लाइन लग जाएगी और अगर हॉरर चल निकली तो फिर इसी विषय पर फिल्में बनाई जाएंगी। कभी-कभी ऐसा भी दौर आता है जब अचानक से एक ही कहानी पर कई सारे फिल्म मेकर न सिर्फ एक साथ फिल्म बनाने लगते हैं बल्कि एक ही सप्ताह या एक ही दिन रिलीज करने पर भी अड़ जाते हैं। कहानी और विषयों को लेकर भेड़चाल का चलन कुछ यों है कि जो विषय सालों से अनछुए रहते हैं, अचानक एक ही वक्त टपक जाते हैं, जैसा इनदिनों खेल प्रतिभाओं के जीवन पर आधारित फिल्मों के मामले में हुआ है।
-डॉ. विजय शुक्ला