17-Dec-2016 07:15 AM
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लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद और विधानसभा की जो तस्वीर पिछले एक दशक से देखने को मिल रही है उससे इसे राजनीति का अखाड़ा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि दोनों जगह हंगामे के सिवा कुछ नहीं हो रहा है। आलम यह है कि बेवजह के मुद्दों पर हंगामा खड़ा किया जाता है। जबकि कार्य मंत्रणा समिति की बैठक में जो मुद्दे तय किए जाते हैं उससे पक्ष और विपक्ष दोनों इत्तेफाक नहीं रखते। आलम यह है कि लगातार हो रहे हंगामों के कारण तो अब ऐसा लगने लगा है कि जैसे लोकसभा या विधानसभा के सत्र केवल सरकारी कामगाज निपटाने के लिए ही आयोजित हो रहे हैं।
सबसे पहले बात करते हैं मध्यप्रदेश विधानसभा के पांच दिनी शीतकालीन सत्र की। पहले दिन विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सीतासरण शर्मा की अध्यक्षता में हुई बैठक में तय किया गया कि इस पांच दिनी सत्र को और आगे बढ़ाया जाएगा साथ ही नोटबंदी, कुपोषण पर चर्चा की जाएगी। विपक्ष ने सिंहस्थ घोटाले पर भी चर्चा की मंशा जाहिर की लेकिन संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने इसे नकार दिया। लेकिन विधानसभा में जो नजारा देखने को मिला उससे तो यही लगा कि विपक्ष यानी कांग्रेस अपनी मनमानी के मुद्दे पर ही चर्चा करवाना चाहती है। पांचों दिन विधानसभा में कोई ऐसी बहस देखने को नहीं मिली जो जनहित से जुड़ी हो। कभी-कभी तो कांग्रेसी विधायक इतने आक्रामक और अराजक दिखे कि जैसे लगा वे सदन में नहीं सड़क पर हो। हालांकि हंगामे के बीच शासकीय बिल पास होते रहे, तृतीय अनुपूरक बजट पास हो गया, लेकिन किसी मुद्दे पर चर्चा नहीं हो सकी। कार्य मंत्रणा समिति की बैठक में सत्तापक्ष और विपक्ष के विधायक इस बात पर एकमत नजर आए कि पांचों दिन सदन की कार्यवाही शांतिपूर्ण ढंग से चलाई जाएंगी ताकि जनहित के मुद्दों पर अधिक से अधिक चर्चा हो सके, लेकिन चर्चा के लिए कोई तैयार नहीं दिखा। विधानसभा अध्यक्ष सीतासरण शर्मा कांग्रेसी विधायकों से अपील कर करके थक गए कि वे एक-एक मुद्दे पर चर्चा करवाएंगे, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। कांग्रेस विधायक पूरे सत्र के दौरान सिंहस्थ में भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर हंगामा करते रहे। हद तो यह भी दिखी कि प्रभारी नेताप्रतिपक्ष बाला बच्चन और वरिष्ठ विधायकों की मंशा के विपरीत विधायक जीतू पटवारी और सचिन यादव गर्भगृह में पहुंचकर हंगामा करते रहे। यही नहीं कांग्रेसी विधायक अध्यक्ष की तानाशाही नहीं चलेगी के नारे लगाते रहे। विधानसभा में हर बार की तरह इस बार भी सत्तापक्ष के विधायक भी गायब रहे। ऐसा एक दिन भी नहीं देखने को मिला जिस दिन दोनों पक्ष के विधायक पूरी संख्या में पहुंचे हों। विधानसभा के पांच दिनी सत्र को देखकर तो ऐसा ही लगा जैसे यह सत्र केवल सरकारी कार्यों को निपटाने के लिए बुलाया गया है। अगर सरकार को मुद्दों पर चर्चा करनी थी तो पांच दिन का ही सत्र क्यों बुलाया गया। कार्यमंत्रणा समिति की बैठक में तय होने के बाद भी सरकार ने सत्र आगे बढ़ाने की जरूरत नहीं समझी। सत्तापक्ष और विपक्ष के रुख को देखकर तो ऐसा ही लग रहा है जैसे वे सदन में केवल हंगामा करने ही आते हैं। इस बार विपक्ष जहां हंगामेदार रहा वहीं सरकार चर्चा से बचती रही। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस सत्र का औचित्य क्या था।
विधानसभा के पांच दिनी शीतकालीन सत्र में सरकार ऐसे प्रश्नों के जवाब देने से बचती रही, जो उसे परेशानी में डाल सकते थे। ऐसे सवालों पर सरकार का एक ही जवाब रहा जानकारी एकत्र की जा रही। इस सत्र में कांग्रेस के महेंद्र सिंह कालूखेड़ा ने पूछा था कि मप्र में 2179 गृह निर्माण संस्थाओं में से 1100 ने प्लॉट आवंटन में जो भ्रष्टाचार किया, उन पर दर्ज प्रकरणों की स्थिति क्या है। रोहित हाउसिंग सोसायटी की 100 एकड़ जमीन पर 1500 प्लॉट के आवंटन को लेकर भ्रष्टाचार की शिकायतें और एसटीएफ जांच की प्रगति की जानकारी मांगी थी। बजट सत्र में तत्कालीन मंत्री गोपाल भार्गव ने स्वीकार किया था कि सोसायटी में प्लॉट आवंटन में फर्जीवाड़ा हुआ है और संचालक मंडल के खिलाफ तीन थानों में एफआईआर दर्ज है, उन पर 50 हजार का जुर्माना लगाया है। सदन के बाहर भार्गव ने एसटीएफ जांच की घोषणा की थी।
कालूखेड़ा ने ही राज्य सरकार द्वारा 2007 से 2014 तक डीमेट परीक्षा में फर्जीवाड़े की जांच के संबंध में जानकारी मांगी थी। कार्यकारी नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ने 2014-15, 2015-16 और 2016-17 में प्रदेश के प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में एनआरआई कोटे से प्रवेश पाए छात्रों, उनके अभिभावकों और एंट्रेस टेस्ट में उनके नंबर की जानकारी मांगने के साथ-साथ यह भी पूछा था कि इन छात्रों ने किस विदेशी मुद्रा में फीस जमा की, छात्रों को किस आधार पर एनआरआई माना और अभिभावकों के आय का क्या प्रमाण है? इस प्रश्न पर भी सरकार जवाब नहीं दे सकी। यही नहीं विभागीय मंत्रियों के आश्वासनों का भी जवाब नहीं मिला। विधानसभा सत्र के दौरान जब सदन में जनहित के मुद्दे उठते हैं तो विभागों के मंत्रियों की ओर से आश्वासन तो दे दिए जाते हैं, लेकिन सत्र बीतने के बाद विभागीय अधिकारी और मंत्री उन आश्वासनों पर ध्यान ही नहीं देते हैं। यही कारण है कि 2005 से लेकर जुलाई 2016 तक मप्र विधानसभा के 2 हजार से ज्यादा ऐसे आश्वासन लंबित हैं, जिन पर सरकारी विभागों ने अमल ही नहीं किया। सबसे ज्यादा लंबित आश्वासन नगरीय प्रशासन विभाग, स्वास्थ्य, राजस्व, पंचायत, लोक निर्माण, सहकारिता, कृषि एवं किसान कल्याण, शिक्षा विभाग से संबंधित हैं।
सूत्रों के अनुसार 2005 के बजट सत्र से लेकर जुलाई 2016 तक के मानूसन सत्र तक विधानसभा सचिवालय में विभिन्न विभागों के करीब 2489 आश्वासन लंबित हैं। शीतकालीन सत्र में इनमें से दो दर्जन से अधिक आश्वासनों पर विभागों की ओर से आधे-अधूरे जवाब पेश किए हैं। मजेदार बात यह है कि 1160 आश्वासन ऐेसे हैं, जिनकी विधानसभा सचिवालय को सरकार की ओर से कोई जानकारी ही नहीं दी गई। खास बात यह है कि विधानसभा की आश्वासन समिति द्वारा संबंधित विभागों से पत्राचार भी किया जाता है, लेकिन समिति के पत्रों को न तो विभागीय अधिकारी गंभीरता से लेते हैं और न ही विभागीय मंत्री विधानसभा की गरिमा को बचाने के लिए गंभीर दिखते हंै। यही कारण है कि पिछले 11 साल में आश्वासनों की संख्या बढ़कर 2 हजार के पार जा पहुंची है। ऐसे में सवाल उठता है कि विधानसभा के सत्र आखिर किस लिए आयोजित किए जा रहे हैं।
संसद ठप, जिम्मेदारी से बचने का प्रयास!
देश की संसद का उपयोग सकारात्मक बहस के लिए ही होना चाहिए। कानून बनाने के लिए होना चाहिए। लेकिन, इन दिनों अधिकतर समय संसद की कार्यवाही ठप करने में बीत जाता है। नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्ष ने संसद ठप कर रखी है। यह पहला मौका नहीं, जबकि विपक्ष संसदीय कामकाज नहीं होने दे रहा हो। आज जो नेता सरकार में हैं और विपक्ष को उसका दायित्व याद दिला रहे हैं, वे भी पूर्व में विरोध का यही तरीका अपनाते रहे हैं। यही नहीं, विपक्षी दलों के नेता जो पूर्व में सरकार में थे, वे भी संसद ठप होने पर वही तर्क और भाषा इस्तेमाल करते थे, जो सत्ता पक्ष कर रहा है। कितना सही है संसदीय लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन के लिए सांसदों का संसद का कामकाज रोकने का तरीका? सोलह नवम्बर से शुरू संसद के सत्र में जिस तरह हंगामा हुआ वह देशहित में नहीं था। गरीबों की दुहाई सरकार भी देती है और विपक्ष भी, लेकिन संसद की हर मिनट की कार्यवाही पर खर्च होने वाले ढाई-तीन लाख रुपए का हिसाब देने को कोई तैयार नहीं है। न प्रधानमंत्री न विपक्ष के नेता। संसद के बाहर प्रधानमंत्री कहते हैं कि उन्हें संसद में कोई बोलने नहीं देता, इसलिए संसद के बाहर जनसभा में बोल रहा हूं।
शोर तो बहुत हुआ, पर चर्चा में सब चुप
पांच दिन चले विधानसभा के शीतकालीन सत्र में कई मुद्दों पर यूं तो सदन में बहुत शोर-गुल हुआ, लेकिन सार्थक चर्चा में कांग्रेस सहित विपक्ष के आधे विधायक मौन रहे। ये हाल तब है, जब कांग्रेस सत्र शुरू होने के पहले से लेकर अंतिम दिन तक इसकी अवधि बढ़ाने की मांग करता रहा। सत्र में किसानों की समस्याओं, नोटबंदी से उपजे हालात जैसे गंभीर विषयों सहित अनुपूरक बजट पर चर्चा हुई, लेकिन आधा विपक्ष इसमें शामिल नहींं हुआ और न ही अपने क्षेत्र की समस्याओं को गंभीरता से उठाया। विपक्ष के सदस्यों के चर्चा में भाग लेने पर पड़ताल में स्पष्ट हुआ कि करीब 50 फीसदी सदस्य सदन में मौन रहे। ग्वालियर-चंबल संभाग के सदस्यों में से महिला विधायक इमरती देवी हो या शंकुतला खटीक ही पांच में से दो-तीन दिन ही आईं, लेकिन चर्चा में शामिल होने के बजाय मौन रहीं।
-विकास दुबे