03-Sep-2016 06:51 AM
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सवा अरब आबादी वाले देश भारत में एक-दो ओलंपिक पदक मिलने से लोग इतने जोश में हैं तो ताज्जुब नहीं क्योंकि हमारे लिए हर ओलंपिक में पदकों का अकाल रहा है।
पीवी सिंधु और साक्षी मालिक को मिली सफलता से यदि पूरा देश मचल उठा है तो आश्चर्य नहीं क्योंकि इस बार इन दोनों लड़कियों ने देश की लाज रख ली। इसके पहले हमारे पास संतोष करने के लिए महज दीपा करमाकर का जिमनास्टिक में जोरदार प्रदर्शन था। देश की इन तीन बेटियों का जज्बा अब हमारी पीढ़ी की किवदंतियों का हिस्सा है। इनके कारण पदक तालिका में अब भारत का नाम भी शामिल हो गया। लेकिन ये जश्न, ये जोश उस समय
फीका लगने लगता है जब हम लड़कियों की लगातार घटती आबादी पर नजर डालते हैं, खासतौर से 0-6 आयु वर्ग की। जरा गौर कीजिये, 1961 के जनगणना के अनुसार 0-6 की उम्र वाले हर 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 975 थी। जब 2011 की जनगणना के नतीजे सामने आए तो कन्याओं की संख्या घट कर 906 हो गयी। इस सामाजिक अपराध में हरियाणा और पंजाब सबसे आगे है। हमें मालूम है कि कन्या भ्रूण हत्या बच्चियों की इस घटती संख्या का प्रमुख कारण है। सरकार भी इसे स्वीकार करती है।
लड़कियों का अनुपात बेहतर करने के लिए कई योजनाएं आयी हैं लेकिन अब तक इसमें कोई अधिक फायदा नहीं हुआ है। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद लड़कियों के प्रोत्साहन के लिए लड़की बचाओ, लड़की पढ़ाओ का नारा दिया है। कुछ साल पहले महाराष्ट्र में प्रशासन ने 300 लड़कियों का एक समारोह में नामकरण किया। उनकी उम्र 15-16 थी लेकिन उनके माता-पिता ने उन्हें अब तक कोई नाम नहीं दिया था।
उन्हें केवल नकुशा कह कर बुलाया जाता था क्योंकि वो अपने परिवार में पैदा होने वाली दूसरी या तीसरी बेटियां थीं। उनकी जगह उनके माता-पिता बेटे की उम्मीद कर रहे थे।
इसलिए उन्हें नकुशा कहा गया यानी अनचाही और बेनाम औलाद। ये उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं कि सिंधु और साक्षी की कामयाबी से लाखों ऐसे माता-पिता प्रेरित होंगे जो बेटी नहीं बेटा चाहते हैं। और ये माता-पिता लड़कियों और बेटियों पर कोई एहसान नहीं करेंगे। ये तो आम बात है। विकसित समाज में बेटी बेटे से कम नहीं होती। अगर अब भी बेटियों से घृणा करने वाले परिवारों ने सबक नहीं सीखा तो हमारे देश में सिंधु और साक्षी जैसी बेटियाँ कैसे पैदा होंगी?ये नवयुवतियां विश्व मंच पर चमकीं और देश की शान बनीं। भारत में किसी लड़की के लिए इस मंजिल तक पहुंचना कितना कठिन है, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। सिंधु, साक्षी, दीपा, या सानिया मिर्जा, मेरी कॉम, साइना नेहवाल, कर्णम मल्लेश्वरी जैसी प्रतिभाओं को आगे बढऩे के लिए भारत में सिर्फ खेल संबंधी चिर-परिचित बाधाओं को ही पार नहीं करना पड़ता, बल्कि उन्हें सदियों पुरानी परंपराओं से भी लडऩा पड़ता है।
स्मरणीय है कि स्कर्ट पहनकर खेलने के लिए सानिया मिर्जा के खिलाफ मजहबी फतवा जारी हुआ था। शरीर संबंधी वर्जनाएं और शादी ना होने की चिंता परिवारों में आज भी इतनी हावी हैं कि कोई लड़की महज बागी बनकर ही खेल के मैदान में उतर पाती है।
लेकिन दूसरों के लिए इसका अंदाजा लगाना शायद आसान ना हो कि जिमनास्टिक को चुनने और उसमें बने रहने के लिए दीपा को कैसी सामाजिक मुश्किलों से संघर्ष करना पड़ा होगा। और साक्षी उस राज्य (हरियाणा) से आती हैं, जहां कन्या भ्रूण-हत्या की समस्या गंभीर रही है। 2011 की जनगणना के
अनुसार वहां हर 1000 पुरुष पर महज 834 महिलाएं थीं, जबकि राष्ट्रीय अनुपात 919 का था। ये रुझान इसलिए क्योंकि महिलाओं को दोयम समझा जाता है। लेकिन रियो के बाद देश में हवा बदलने वाली है। और यह बदलाव सुखद होगा।
रियो ने पूर्वाग्रहों को निराधार साबित किया
ये धारणा आज भी नहीं टूटी कि लड़के नाम रोशन करते हैं, जबकि लड़कियां पराया धन होती हैं। बहरहाल, रियो की कहानी ने फिर ऐसे पूर्वाग्रहों को निराधार साबित कर दिया है। वहां लाज भारत की बेटियों ने रखी है। अच्छी बात है कि इससे परिवार व समाज में लड़कियों के योगदान एवं भूमिका पर नए सिरे से बहस छिड़ी है। इस बहस को आगे बढ़ाने की जरूरत है। इसमें बार-बार जोर देना होगा कि लड़कियां भी अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व लेकर जन्म लेती हैं। आधुनिक समाज वह है, जो उनके व्यक्तित्व को फूलने-फलने का पूरा मौका देता है। ऐसे अवसरों के अभाव के बावजूद भारत की बेटियों ने इतना नाम रोशन किया है, तो जब स्थितियां अनुकूल होंगी तो कौन-सी उपलब्धि उनकी पहुंच से बाहर रह जाएगी?
-माया राठी