18-Jul-2016 06:40 AM
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युग बदलने से पृथ्वी पर जीवन प्रकाशमय क्यों हो जाता है? अगर हॉल में अंधेरा है और मैं बत्ती जलाता हूं तो मैं प्रकाश अंधेरे को नष्ट करता है। मूर्ख विद्वानों या शोषकों ने इसके पीछे छुपे संकेत को समझे बिना इसका अर्थ लगा लिया। इसका अर्थ सांकेतिक है। जैसे सौर मंडल घूमता है, यह अंधेरे पक्ष में जाता है और यह जैसे ही उससे बाहर आता है, रोशनी बढऩे लगती है।
सत युग में लोग कभी कभार ही बात करते थे, क्योंकि तब मन ही संवाद का जरिया हुआ करता था। अंधेरे से बाहर निकलते ही रौशनी हम पर बरसने लगेगी। यहां तक कि अगर आप नहीं भी चाहेंगे तो भी अचानक आपका दिमाग चटकने लगेगा और बेहतर काम करने लगेगा, क्योंकि आप एक अलग युग में प्रवेश कर गए हैं। जैसा कि हम कहते हैं मेरे दिमाग की बत्ती जल गयी हैÓ, इंसान ने हमेशा बुद्धि को प्रकाश से जोड़ा है। अकसर पुराणों में कहा गया है कि एक बार जब सौर मंडल कलियुग से बाहर आ जाएगा तो उसकी चमक अपने आप बढ़ेगी। अलग-अलग युगों में इंसान की बुद्धिमत्ता और संवाद का अलग-अलग आयाम होता है।
सत युग में जीवन जीने और संवाद के लिए बुद्धि नहीं, बल्कि मन सबसे महत्वपूर्ण आयाम होता है। तब मान लीजिए मैं थोड़ी दूर हूं और मुझे आपसे कुछ कहना है तो मुझे उसके लिए न तो माइक्रोफोन की जरूरत होती और न ही मुझे चिल्लाना पड़ता। अगर मैं उसके बारे में सोचता भर तो आपको वह बात समझ में आ जाती। सत युग में लोग कभी कभार ही बात करते थे, क्योंकि तब मन ही संवाद का जरिया हुआ करता था। जो भी करना होता था, वो सब मन से ही होता था। यहां तक कहा गया है कि उस दौर में गर्भधारण भी शारीरिक तौर पर नहीं होता था, मानसिक होता था।
त्रेता युग में फोकस या केंद्र मन से बदल कर नीचे आंखों में आ गया। त्रेता युग में प्रचलित भाषा से पता चलता है, कि तब आंखें सबसे ज्यादा प्रभावशाली माध्यम हुआ करती थी। उस समय भारत में बुनियादी अभिवादन हुआ करता था मैं आपको देख रहा हूं।Óअकसर पुराणों में कहा गया है कि एक बार जब सौर मंडल कलियुग से बाहर आ जाएगा तो उसकी चमक अपने आप बढ़ेगी। उसका मतलब होता था कि मैं आपके हर पहलू से देख रहा हूं।Ó उस समय के लोग अपनी आंखों को एक शक्तिशाली माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करते थे। इस प्रक्रिया को नेत्र स्पर्शÓ कहा गया है, जिसका मतलब है कि आप अपनी आंखों से किसी को स्पर्श कर सकते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-ये चारों ब्रह्मा जी के ही पुत्र हैं। कथा है कि एक बार ब्रह्मा ने अपने इन चारों पुत्रों को बुलाकर उनकी कुशल क्षेम पूछी। तब सतयुग, त्रेता और द्वापर ने कहा, हे पिता, बाकी सब कुछ तो ठीक है, पर यह कलियुग बड़ा पापी और घोर अन्यायी है। इसकी व्यवस्था में आते ही हमारे सारे शुभ कर्म समाप्त हो जाते हैं। तब कलियुग ने कहा, हे पिता, आप इनकी बातों पर ध्यान न दें। जो ये कह रहे हैं, स्थिति उससे उलटी है। इसी सतयुग की व्यवस्था में हिरण्यकश्यपु का शासन चला, महाराज हरिश्चंद्र ने इतना कष्ट सहन किया, उनके प्रति सतयुग ने क्या न्याय किया? अंतत: इस सतयुग की व्यवस्था को ठीक करने के लिए भगवान को नरसिंह अवतार लेना पड़ा। आप त्रेता की बात तो पूछिए ही नहीं, इसकी शासन व्यवस्था को ठीक करने के लिए परशुराम को अधर्मी राजाओं को 21 बार दंड देना पड़ा और रावण का अत्याचार मिटाने के लिए खुद राम को अवतरित होना पड़ा। और ये द्वापर महाराज जो बैठे हैं, इनकी तो बात ही क्या कहूं, इनका तो संपूर्ण काल ही षड्यंत्रों से भरा पड़ा है। जब धर्म और न्याय की मूर्ति विदुर और युधिष्ठिर जैसे लोगों का पूरा जीवन राजनीति और धर्म के दुष्चक्रों को सुलझाने में बीता। पांडवों को दासों का सा जीवन बिताना पड़ा। भरी सभा में नारी के वस्त्र हरण का आदेश दिया गया और ज्ञानी मौन बैठे रहे। यदि भगवान कृष्ण का अवतार न होता, तो उस कपट और कुटिल राजनीति को काट पाना संभव न था। फिर कलियुग ने कहा, लेकिन हे पिता, मेरे यहां भगवान को अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है। यहां मनुष्य ही स्थितियों में परिवर्तन कर सकता है। कलियुग की इस बात का मर्म समझने के लिए हमें सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग - चारों का धर्म समझना होगा। सभी युगों के धर्म नित्य हैं , यानी वे मनुष्य की वृत्तियों में सदा मौजूद हैं। उसके हृदय में जो सतोगुण है, वह सतयुग का धर्म या प्रभाव है। सतोगुण की अधिकता हो, कुछ रजोगुण भी हो, कर्मों में प्रीति हो और जीवन सुखी हो, इस व्यवस्था का नाम त्रेता है। रजोगुण की प्रधानता हो, थोड़ा सतोगुण और तमोगुण भी हो, पर मन में भय, विषाद और आशंका भरा हो, तो समझो, वही द्वापर है। और तामस की प्रधानता हो, कार्य में रुचि हो, पर रजोगुण का अभाव हो, चारों ओर विरोध हो, तो समझो कलियुग का प्रभाव है। कलियुग में सारे काम कपट और कुटिलता से किए जाते हैं। वह हमारी मनोवृत्ति का दोष है। युग का कोई दोष नहीं है। अप्सराएं तो पहले भी थीं, जो देवताओं का मनोरंजन करती थीं। सोमरस पहले भी उपलब्ध था, उसकी चर्चा वेदों में भी है। लेकिन उस समय आत्मरंजन करने वाले ऋषियों की परंपरा मजबूत थी। वे समाज को दिशा देते थे।
-ओम