कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की सियासत!
06-Jul-2016 08:01 AM 1235146
जम्मू-कश्मीर में चुनावोपरांत जब भाजपा राज्य सरकार में भी सहयोगी भूमिका में आई तो लगभग ढाई दशक से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों के मन में उम्मीद जगी कि संभवत: अब उनका  पुनर्वास हो जाएगा। कश्मीरी पंडितों को लगा कि अब वे अपने उन पैतृक आवासों को पुन: प्राप्त कर सकेंगे, जहां से उन्हें आज से ढाई दशक पहले आतंकित और प्रताडि़त करके खदेड़ दिया गया था। तबसे अपने पुनर्वास की आस में जी रहे इन कश्मीरी पंडितों के मां खीरी भवानी दर्शन को जा रहे एक काफिले पर विगत दिनों जिस तरह से ईंट-पत्थरों द्वारा हमला किया गया, उसने देश को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि वे कितनी क्रूर मानसिकता के लोग हैं, जिन्हें इन हिन्दू पंडितों को वर्षों पहले विस्थापित और बर्बाद करने के बावजूद भी अब तक चैन नहीं मिला है? हालांकि कश्मीरी पंडितों के मंदिर जा रहे काफिले पर हुए ताजा हमले के बाद जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने न केवल मां खीरी भवानी मंदिर में जाकर पूजा की है बल्कि यह सकारात्मक बयान भी दिया है कि कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है और उनके पुनर्वास के लिए पूरा प्रयास किया जा रहा है। भले ही उनके इस बयान में सियासी बू आ रही हो, लेकिन जो भी हो कम से कम ये बयान राहत तो देता ही है। दरअसल, इस बात में भी कोई दो राय नहीं कि कश्मीरी पंडितों के प्रति महबूबा मुफ्ती की ये मधुर भाषा सिर्फ और सिर्फ इसलिए है कि उनकी सरकार हिन्दुत्ववादी विचारधारा वाली भाजपा के दम पर चल रही है। बस इसी राजनीतिक मजबूरी से ये बयान उपजा है और अगर इस सम्बन्ध में महबूबा सरकार कुछ काम करेगी, तो वो भी इस राजनीतिक मजबूरी के कारण ही होगा, जिसका पूरा श्रेय भाजपा को ही जाएगा। ये भाजपा की बड़ी सफलता भी होगी। जाहिर है यह देखते हुए समझा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर चुनाव के बाद आखिर क्यों भाजपा ने सभी विरोधों और आरोपों को नजरअंदाज कर पीडीपी संग न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार बनाने का निर्णय लिया था।  मौजूदा राजनीतिक हालात भाजपा के उस निर्णय को सही साबित करते दिख रहे हैं। अगर भाजपा उस वक्त यह नहीं करती तो संभव था कि पुन: चुनाव की स्थिति में पीडीपी को पूर्ण बहुमत मिल जाता और फिर भाजपा के पास राज्य में कुछ शेष नहीं रह जाता। लेकिन, अभी वो राज्य सरकार के साथ सहयोगी भूमिका में है और उसकी इच्छा के विरुद्ध महबूबा मुफ्ती कोई निर्णय नहीं ले सकती। जिस पर केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है। ऐसे में, कहना गलत नहीं होगा कि गठबंधन में भाजपा की स्थिति अधिक मजबूत है और इस न्यूनतम साझा कार्यक्रम की सरकार में अगर भाजपा अपने एजेंडे से दो कदम पीछे हटेगी तो महबूबा मुफ्ती को चार कदम पीछे हटना पड़ेगा। निश्चित ही ये स्थिति कश्मीरी पंडितों के लिए अच्छा संकेत तो है, लेकिन फिर भी उनका पुनर्वास अभी दूर की कौड़ी ही नजर आता है। क्योंकि केंद्र सरकार पैकेजों के जरिये उन्हें भौतिक रूप से तो पुनर्वासित कर सकती है, लेकिन ठोस योजना और सुरक्षा सुनिश्चित किए बगैर कश्मीर के मौजूदा सामाजिक हालात में उनका ये पुनर्वास पुन: उन्हें आफत में डालने जैसा ही होगा। निश्चित ही सरकार का ध्यान इन पहलुओं पर भी होना चाहिए और होगा भी। सरकार इन सब गुत्थियों को सुलझाए बिना कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास पर आगे नहीं ही बढ़ेगी। असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा 1990 में पंडितों के खिलाफ जब फसाद शुरू हुआ उस समय केंद्र में जनता दल की सरकार थी और राज्य में फारुक अब्दुल्ला सरकार के जाने के बाद राष्ट्रपति शासन लग गया था। जून 1991 में जनता दल की सरकार चली गई और केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई तथा नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। उस समय भी जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन यानी अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र का शासन ही था। लेकिन, कश्मीरी पंडितों पर जुल्म होते रहे और उक्त किसी भी दौर की सरकार ने जाने किस कारण उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कुछ नहीं किया। ये संवेदनहीनता सिर्फ सरकारी स्तर पर ही नहीं थी, बल्कि आज कहीं किसी दादरी की झड़प में एक समुदाय विशेष के आदमी के मारे जाने पर अपने पुरस्कार वापस कर असहिष्णुता का विलाप करने वाले इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के कानों में भी तब हजारों-लाखों कश्मीरी पंडितों के चीत्कार के स्वर नहीं पड़े। -श्यामसिंह सिकरवार
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