आखिर ऐसा क्यों होता है
04-Jun-2016 09:57 AM 1234777
आज बेटी का जनम पाने का अफसोस हो रहा है। कई दिनों से मैं इस गहन चिंता में थी कि मेरा हीरा जनम, कौड़ी बदले क्यों जा रहा है? मेरे संगी-साथी नहीं, जूनियर भी, कहाँ-कहाँ से पहुँच गए और मैं ख्याली पुलाव पकाती, जहाँ की तहाँ बैठी हूँ। आत्ममंथन, आत्मज्ञान आदि-आदि के बाद आज मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि मेरा बेटी, पत्नी, माँ अर्थात कुल मिलाकर स्त्री होना, मेरी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। हमारे यहाँ बेटियाँ पाँव नहीं छूतीं। विवाह के समय बेटियों के पाँव छुए जाते हैं। नवरात्रों में कन्याओं के पैर पूजे जाते हैं। एक उच्चाधिकारी के सामने दो प्रतिभाएँ होती हैं। एक बालक, एक बालिका। गुण-योग्यता बराबर। बालक श्रद्धानत होकर उच्चाधिकारी के चरण आते-जाते छू लेता है। बालिका खींसें निपोरती रह जाती है। परिणाम क्या? सेवा का फल बालक की झोली में जा पड़ता है। चरण-स्पर्श बराबर वजन पर पासंग का काम करता है। दृष्टांत को दफ्तर के दुधारे गलियारे से निकाल साहित्य की सरस गली में ले जाती हूँ। तुलसी की कविता पूजा में स्थान पा गई और मीरा की विष का प्याला। कारण साफ है। तुलसीदास शुरू ही चरण वंदना से हुए - श्री गुरु चरण सरोज रज। मीरा को चरण कमल प्राप्त ही नहीं हुए। गुरु के चरणों में शीश नवाए बिना रचना सफलता को प्राप्त हो ही नहीं सकती। अगर पाँव परसने बेटी आती तो पाप लगता। बहन-बेटी से पाँव छुआते नहीं। माँ के पाँव छुए जाते हैं। रह गई बीवी सो चरणदासी और प्रियाओं का वास ह्रदय में। साहित्यकारों ने अपनी श्रीमंतियों को साहित्य में प्रोत्साहित नहीं किया। मुकाबला हो जाता। जहाँ टक्कर काँटे की थी, वहाँ डगर भी कंटकाकीर्ण ही रही। प्रियाओं को अलबत्ते लोगों ने प्रोत्साहित किया। प्रोत्साहन था, पर इतना ही था, जिसके चलते प्रिया अनुगामिनी और वामांगी रहे। आगे निकलने को हुई तो बता दी रहस्य की बात। उनके लिए हम ही लिखते थे! अब कौन दुष्ट हस्तलेख का विशेषज्ञ से परीक्षण कराने जाएगा? कह दिया सो सिद्ध! वो झूठ बोलेगा मुझे लाजवाब कर देगा। मैं सच बोलूँगी तब भी हार जाऊँगी। वह भाईसाहबों और भाभीजियों के पाँव छू-छूकर साहित्य में दाखिल हुए और जगह छेककर बैठ गए। बेचारी बहनें भाईसाहबों के स्वेटर ही बुनती रह गईं। आदमी का असली चेहरा पहचान ही न सकीं। असलियत न चेहरा बताता है, न वस्त्र। बोली तो होती है धोखा। आँखें देती हैं दगा। ऐसे में इनसान का असल रूप जानने का जरिया है उसकी चरणपादुकाएँ। चेहरा न देखिए, सिर्फ चरणों पर निगाहें जमाकर बैठें। पादुकाएँ इनसान का पूरा हाल बताती हैं। जो सड़कों पर चलते हैं, (चलना और टहलना अलग है)। द्वार से वाहन तक चलना और वाहन से उतरकर बिल्डिंग से सामना, चलना नहीं है। चलना वह,  कि जहाँ इनसान का सफर पाँवों के भरोसे ही पूरा होता हो। ऐसे सड़क अनुरागियों के पैर में पादुकाएँ होती हैं। बेचारी पादुकाएँ! घिसते जाना और घिसटते जाना ही उनकी नियति है, स्त्रीलिंग जो ठहरी। जो शान से चमकता है और काटता भी है वह होता है जूता यानी यहाँ भी शान मर्द की। वह बड़े-बड़े रईसों के पैर की शोभा बढ़ाता है। मेहनतकश इंसान के पैरों में घिसती है चप्पल। यह भेदभाव सिर्फ मर्द के पैरों में नहीं होता, औरत की दुनिया में भी होता है। रोज रसोई और बाजार में खटती है चप्पल और पार्टी में जाते हैं चमचमाते सैंडल। सैंडल पहने जाते हैं, उतारे जाते, संभाल कर रखे जाते हैं यानी व्याकरण की दुनिया में भी पुलिंग का ही बोलबाला है। अब जरा गहने जेवर की बात करें... हार, कंगन, झुमके...सबके सब ऊँचे पदों पर बैठने वाले गहने पुरुष हैं और सोने में बने हैं लेकिन पायल बिछिया जैसे स्त्रीलिंग गहनों को चाँदी से ज़्यादा कुछ नसीब नहीं। जगह भी उनकी पैरों में ही है। सब्जियों में आलू, गोभी और टमाटर मर्दों के नाम पर रजिस्ट्री ले चुके हैं। आलू छोटा है। गोभी ताजा है और टमाटर बड़ा है यानी सबसे लोकप्रिय सब्जियाँ पुरुष के खेमे में शामिल हो चुकी हैं। हर दावत में, शादी-ब्याह उत्सव में माँग और पूछ सिर्फ उनकी है। बेचारी लौकी तोरी रजिस्टर की गई है महिलाओं के नाम पर। लौकी मोटी है तोरी पतली है जैसे महिलाओं के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले वाक्यों का उनके लिए प्रयोग किया जाता है। उन बेचारियों को छोड़ दिया जाता है बीमारों और बूढ़ों की सेवा के लिए। बेचारी खटती रहती है। औरत का नसीब ही ऐसा है मरने खटने वाला। सड़क पर निकलो तो गाडिय़ों को देखो लोगों को भर-भर कर दौड़ रहीं हैं। लोग हैं कि ऐश कर रहे हैं। सड़क है कि घिस-पिट रही है और पेड़ हैं कि लहलहा रहे हैं। यही क्यों? बगीचे में देखिए- घास बेचारी आम आदमियों की तरह रौंदी जा रही है और फूल हैं किनारे क्यारियों में ऐश कर रहे हैं, खिलखिला रहे हैं। मानो न मानो स्त्री का दुर्भाग्य सिर्फ इंसान का रचा हुआ नहीं है, लगता है कि भगवान भी पुरुष के साथ मिला हुआ है... क्यों नहीं क्यों नहीं आखिर भगवान भी तो पुरुष ही है न? तो फिर जो ये कहते हैं कि दुनिया पुरुषों की बनाई हुई है उसमें कोई संदेह नहीं। खुद दुनिया बना के थक गया तो इंसान के निर्माण का काम स्त्री के सिर पर डाल कर हवा खाने चल दिया। और अब आधी दुनिया बेचारी बैठी हैं इंतजार में कि ऊपरवाला लौटे और देखें कि उसकी बेटियों के ऊपर कैसे-कैसे दुख के पहाड़ टूट रहे है और बाकी दुनिया मजे लूट रही है। किसी को कोई अफसोस ही नहीं! -अलका पाठक
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