लोकतंत्र का पंच संदेश
04-Jun-2016 09:37 AM 1234814
जब मोदी का जादू जुमला बनकर हाशिए पर जा रहा था और कांग्रेस अपने बचे-खुचे आंकड़ों के साथ संसद से सड़क तक शक्ति प्रदर्शन कर रही थी तभी पंच परमेश्वरÓ के संदेश ने पासा पलट दिया। भाजपा कच्छ से लेकर कामरूप तक पहुंच गई और हिंदी भाषी क्षेत्र के बाहर अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई। जंग-ए-आजादी से जुड़ी कांग्रेस अपने रसातल पर है और क्षेत्रीय क्षत्रपों की दमदार मौजूदगी भारत में संघवाद के अच्छे भविष्य का एलान कर रही है। इस तथ्य पर ध्यान देना जरूरी है कि भाजपा की विराट जीत वहीं हुई है जहां उसके मुख्य मुकाबले में कांग्रेस थी। बाकी जगह तो स्थानीय शक्तियों की तूती बोल रही है। पांच राज्यों का संदेश भाजपा की अखिल भारतीय स्वीकार्यता का है।तस्वीर राज्यवार चुनाव परिणाम के विश्लेषण से और साफ होगी जो दर्शाती है जनता ने फूल और पत्तियों (भाजपा का चुनाव चिह्न कमल का फूल, अन्नाद्रमुक का चुनाव चिह्न पत्तियों, तृणमूल कांग्रेस का चुनाव चिह्न तिरंगे वाल पत्तियां है) को ज्यादा समर्थन दिया है। अम्मा ने रचा इतिहास देश के प्रमुख दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में 28 सालों बाद ऐसा हुआ है जब कोई पार्टी सत्ता में वापस लौटी हो। इससे पहले एमजी रामचंद्रन ने विधानसभा चुनावों में जीत की हैट्रिक लगाई थी। मतदाताओं ने द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन को नकार दिया हालांकि पिछले चुनावों के मुकाबले इस गठबंधन का प्रदर्शन अच्छा रहा। जयललिता की जीत में मददगार रहे तथ्यों में सबसे पहला यह है कि उन्होंने राज्य में अम्मा ब्राण्ड को मजबूत कर दिया था और अब नमक से लेकर सीमेंट तक अम्मा ब्राण्ड के चलते हैं। जयललिता ने विकास से पहले लोगों के कल्याण को प्राथमिकता दी जिसे मतदाताओं ने पसंद किया। अम्मा रसोई में सस्ता खाना, अम्मा फॉर्मेसी से सब्सिडी वाली दवाईयां, कम दामों में मिलने वाला अम्मा मिनरल वाटर, गुणवत्ता वाला लेकिन सस्ता अम्मा साल्ट तथा बाजार में बेहद कम कीमत में मिलने वाले अम्मा सीमेंट का मोह लोग छोड़ नहीं पाये। इसके साथ ही लोगों ने 90 वर्षीय द्रमुक प्रमुख करुणानिधि की बजाय 68 वर्षीय जयललिता को अपना नेता चुना। हालांकि जयललिता के बारे में भी कहा जाता है कि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं चल रहा है लेकिन लोगों ने इसकी परवाह नहीं की। इसके अलावा जयललिता के ऊपर इस बार पहले की तरह भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं था बल्कि वह कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा आय से अधिक संपत्ति मामले में बरी होने के बाद मुख्यमंत्री बनी थीं। असम में मोदी की बहार पूर्वोत्तर राज्य असम में भाजपा की जीत ऐतिहासिक है। यहां भाजपा ने पिछली हारों से सबक लेते हुए इस बार मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार पेश किया और कुछ क्षेत्रीय ताकतों से हाथ मिलाकर सभी को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की। हालांकि असम गण परिषद से समझौता करने पर पार्टी को स्थानीय कार्यकर्ताओं की भारी नाराजगी झेलनी पड़ी थी और पार्टी के कई नेता साथ छोड़ भी गये थे लेकिन आखिरकार आलाकमान का दांव कामयाब रहा। अब भाजपा के ऊपर अपने वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी तो है ही साथ ही गठबंधन सहयोगियों को साथ बनाए रखने का कौशल भी यहाँ दिखाना होगा। भाजपा के लिए यहां बड़ी कामयाबी इस मायने में रही कि अभी पिछली विधानसभा में पांच सीटों वाली पार्टी अब अपने दम पर बहुमत में आ गयी है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर पार्टी जितना बोलती रही है उतना कर के दिखाना उसके लिए आसान नहीं होगा। भाजपा ने यहां मुख्यमंत्री पद का चेहरा उतारकर ठीक किया क्योंकि बिहार में हार के बाद पार्टी भी समझ चुकी है कि हर जगह मोदी के चेहरे को पेश नहीं किया जा सकता। केंद्रीय मंत्री सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व को लोगों ने पसंद किया है क्योंकि उन्होंने देखा है कि सोनोवाल अर्से से असम के हित में विभिन्न आंदोलनों में सक्रिय रहे। भाजपा को कांग्रेस से आए हिमंत बिस्वशर्मा जैसे नेताओं को एडजस्टÓ करने में मुश्किल हो सकती है क्योंकि पार्टी उन पर पहले भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रही है अब जबकि बिस्वशर्मा के खिलाफ जांचें चल रही हैं उसमें कितनी तेजी आएगी यह देखने वाली बात होगी। असम के चुनाव परिणाम कुछ ऐसे ही प्रत्याशित भी थे क्योंकि तरुण गोगोई के 15 सालों के शासन से जनता ऊब गई थी और कुछ परिवर्तन चाहती थी। गोगोई सरकार पर भ्रष्टाचार के भी कई आरोप थे। लोकसभा चुनावों में राज्य में कांग्रेस की करारी हार के बाद जब गोगोई ने मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा कांग्रेस अध्यक्ष को सौंपा था यदि वह तब ही स्वीकार कर लिया जाता तो संभवत: कांग्रेस राज्य में अपनी लाज बचा सकती थी। असम में संघ और उससे जुड़े संगठनों ने भी अर्से से जबरदस्त मेहनत की है। असम पूर्वोत्तर का प्रवेशद्वार भी है। यहाँ से भाजपा की जीत का संदेश अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में भी जाएगा। पुडुचेरी ने बचाई लाज यह एकमात्र ऐसा राज्य रहा जहाँ के चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए प्रसन्नता लेकर आये। वहाँ मुख्यमंत्री एन. रंगासामी की पार्टी कड़ी चुनावी टक्कर में आखिरकार पिछड़ गयी और सरकार अब कांग्रेस के नेतृत्व वाली होगी। रंगासामी की हालाँकि अपनी छवि अच्छी थी लेकिन अपने मंत्रियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का वह सही तरह से बचाव नहीं कर पाये। द्रमुक और अन्नाद्रमुक का करिश्मा भी यहाँ नहीं चल पाया। भाजपा लेकिन अपना वोट प्रतिशत बढ़ाने में यहाँ सफल रही। अब देखा जाए तो कुल नौ राज्यों में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें होंगी और जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब में भाजपा सरकार में शामिल है। इस तरह देश की 43 फीसदी आबादी के बीच भाजपा की सरकार है या भाजपा सरकार में शामिल है। जबकि कांग्रेस और संप्रग की सरकारें अब मात्र 15-16 फीसदी आबादी के बीच सिमट कर रह गयी हैं। इस स्थिति को देखते हुए निश्चित रूप से कांग्रेस को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सही विकल्प खड़ा करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। राहुल गांधी के नेतृत्व पर फिर सवाल उठे हैं और संभव है कि उनको कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की घोषणा कुछ और समय टल जाये। कांग्रेस को यह समझना होगा कि उसकी तरह क्षेत्रीय ताकतें भी प्रधानमंत्री पद का सपना देखती हैं इसलिए राह आसान नहीं है। कल तक नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की दौड़ में सबसे आगे थे लेकिन अब ममता बनर्जी और जयललिता भी हैं। भाजपा जिस तरह एकला चलो की राह पर आगे बढ़ रही है और राज्यों में अपना विस्तार कर रही है जरूरत है कांग्रेस को भी खुद को मजबूत बनाने की ना कि सहयोगी दलों के सहयोगी के रूप में खड़े होकर मुसकुराने की। बहरहाल, फिलहाल भाजपा के लिए यह सर्वाधिक खुशी का मौका है क्योंकि दिल्ली और बिहार में हार के बाद कहा जा रहा था कि पार्टी के दिन अब लदने शुरू हो गये हैं। सब पर भारी ममता सभी पूर्वानुमानों को पछाड़ते हुए तृणमूल कांग्रेस की आंधी जिस प्रकार पश्चिम बंगाल में चली है उससे निश्चित ही विपक्षी दल सकते में होंगे। यहां चुनावों से पहले सारदा घोटाले और नारद स्टिंग मामले को लेकर जिस तरह तृणमूल कांग्रेस को घेरा गया था उसे मतदाताओं ने पसंद नहीं किया। मतदाताओं ने अपनी दीदीÓ पर एक बार फिर विश्वास जताया है। तृणमूल की इस बार की जीत इस मायने में भी बड़ी है कि पिछले चुनावों में कांग्रेस और तृणमूल के एक साथ लडऩे पर जितनी सीटें मिली थीं इस बार तृणमूल ने कमोबेश उतनी ही सीटें अपने बलबूते हासिल कर ली हैं। केरल में सरकार के खिलाफ शुरू से माहौल केरल में सरकार के खिलाफ जिस तरह का माहौल था उससे उसका जाना पहले ही तय माना जा रहा था। वैसे भी केरल में मतदाता हर सरकार को पलटते रहे हैं। इस लिहाज से इस बार सत्ता में आने की बारी वाममोर्चा की थी ही। लेकिन देखना होगा कि मुख्यमंत्री पद के लिए क्या वीएस अच्युतानंदन अब भी वामदलों की पसंद रहते हैं या फिर किसी अन्य को सरकार की कमान सौंपी जाती है। केरल में यदि वाममोर्चा की हार होती तो यह निश्चित ही देश के वाम आंदोलन के लिए बड़ा धक्का होता। केरल के अलावा त्रिपुरा ही है जहाँ वामदलों की सरकार है। पश्चिम बंगाल की हार हालाँकि वामदलों को सालती रहेगी। केरल में मुख्यमंत्री ओमन चांडी के खिलाफ अपनी ही पार्टी के लोग जिस तरह लगे हुए थे और सत्तारुढ़ गठबंधन में बिखराव था उससे भी इस मोर्चे की चुनावी संभावनाएँ कमजोर हुईं। यहाँ चुनावी वर्ष में कानून व्यवस्था को लेकर सवाल उठे और भ्रष्टाचार के कई मामलों की आंच मंत्रियों ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय तक भी आई जिससे सरकार की छवि खराब हुई। भाजपा ने इस दक्षिणी राज्य में खाता खोलकर अपना आधार बढ़ाया है। यहाँ पार्टी ने एस. श्रीसंत को भी चुनाव मैदान में उतार कर युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश की थी। यहाँ विधानसभा में पहुँचने मात्र से ही भाजपा फिलहाल खुश नजर आ रही है हालाँकि उसने जिस स्तर का प्रचार राज्य में किया था उससे वह कम से कम पाँच-सात सीटों की उम्मीद तो कर ही रही थी। -कोलकाता से इन्द्र कुमार
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