राइट-टू-पी की लड़ाई
04-Jun-2016 08:38 AM 1234871
स्त्रियों के विशेषाधिकारों की बात आजकल बेशक जोर-शोर से की जा रही है, लेकिन हकीकत यह है कि वे आज तक भी बहुत से बुनियादी अधिकारों से वंचित है। ऐसा ही एक बुनियादी अधिकार है सार्वजनिक शौचालयों की सुविधा। स्कूल, कालेज, दफ्तर और सार्वजनिक जगहों में स्त्रियों के लिए साफ-सुथरा शौचालय अब भी एक सपना ही है। स्त्रियों की इसी बुनियादी जरूरत को ध्यान में रखते हुए हाल ही में मुंबई में तैंतीस गैरसरकारी संस्थाओं ने मिलकर राइट-टू-पीÓ नाम से एक अभियान शुरू किया है। जिसके तहत स्त्रियों के लिए साफ-सुथरे, सुरक्षित और मुफ्त के शौचालयों की मांग की जा रही है। 2.2 करोड़ की आबादी वाले शहर मुंबई में स्त्रियों के लिए पैसे देकर प्रयोग किए जा सकने वाले लगभग ग्यारह हजार शौचालय हैं। सार्वजनिक जगहों पर स्त्रियों के लिए अक्सर ही बेहद गंदे, टूटे दरवाजे वाले, बिना पानी वाले और असुरक्षित शौचालय मिलते हैं। राइट-टू-पी अभियान की सदस्य सुप्रिया सोनर का कहना है कि स्त्रियों और पुरुषों के लिए सार्वजनिक शौचालयों की सुविधा में इतने बड़े फर्क का मुख्य कारण लैंगिक असंवेदनशीलता है। बहुत सारे पुरुषों को भी खुले में ही पेशाब करना पड़ता है, इसलिए हमारा कहना है कि साफ-सुथरा शौचालय उनका भी अधिकार है। इस कारण उन्हें भी इस अभियान से जुडऩा चाहिए। सार्वजनिक जगहों पर शौचालय न होने के कारण पेशाब करने के लिए छोटी बच्चियों, लड़कियों और स्त्रियों को एकांत जगह तलाशनी पड़ती है, जहां उनके साथ दुराचार और बलात्कार की घटनाएं होने की आशंका बहुत बढ़ जाती है। यह स्त्रियों की गरिमा का भी सवाल है। देश में लगभग 6.3 करोड़ किशोरियों को अलग से शौचालय उपलब्ध नहीं है, जिस कारण महीने में छह-सात दिन उन्हें स्कूल छोडऩा पड़ता है। दूसरी तरफ गांवों में लगभग दो तिहाई लड़कियां शौचालय न होने के कारण स्कूल छोडऩे पर भी मजबूर होती हैं। इस तरह से सार्वजनिक शौचालयों का अभाव न सिर्फ लड़कियों-स्त्रियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है, बल्कि जीवन में आगे बढऩे की संभावनाओं को भी खत्म करता है! संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि यह दुखद विडंबना है कि भारत में प्रति सौ व्यक्ति शौचालयों की संख्या कम है और मोबाइल की संख्या ज्यादा! ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत की स्त्रियों को ही सार्वजनिक स्थानों और संस्थानों में महिला शौचालयों की घोर कमी का सामना करना पड़ रहा है। पड़ोसी देश चीन में भी महिला शौचालयों की स्थिति बेहद खराब है। मुंबई में चल रहे राइट-टू-पी अभियान की ही तरह चीन में 1912 में ओक्यूपाइ मैंस टायलेटÓ अभियान चला था। चीन में सार्वजनिक महिला शौचालयों की कमी से तंग आकर कॉलेज की छात्राओं के एक समूह ने आक्यूपाई वॉल स्ट्रीट की तर्ज पर आक्यूपाइ मैंस टायलेट जैसे अभियान की शुरूआत की। इस अभियान के तहत छात्राओं ने पुरुष शौचालयों का उपयोग करते हुए सार्वजनिक महिला शौचालयों को बढ़ाने की मांग की। 1996 में ताइवान में भी इस तरह के अभियान सामने आए थे। ऐसे अभियान लैंगिक समानता की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए जरूरी हैं। हाल ही, में केरल की एक एजेंसी ने शहर के मुख्य स्थानों और पर्यटक स्थलों पर विशेष रूप से महिलाओं के लिए शौचालय बनाने की परियोजना शुरू की है। देश में पहली बार इस तरह की अनूठी पहल हो रही है। राज्य महिला विकास निगम द्वारा इस योजना के पहले चरण में महिला शौचालय बनाए जाएंगे। इन शौचालयों में महिलाओं के लिए सैनिटरी नैपकिन वेंडिंग और इस्तेमाल किए जा चुके नैपकिन को जलाने वाली मशीने भी लगाई जाएंगी। केरल के एरनाकुलम में लड़कियों के एक स्कूल में देश का पहला इलेक्ट्रानिक शौचालय बनाया गया है। स्कूल, कॉलेज, दफ्तरों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर महिला शौचालयों का न होना, न सिर्फ  स्त्रियों के स्वास्थ्य को ही बुरी तरह प्रभावित करता है, बल्कि उनके सार्वजनिक जीवन पर भी बुरा असर डालता है। सार्वजनिक बदलाव को प्रोत्साहित करने वाला एक एक संस्था ने अपने अध्ययन में बताया है कि जिन लड़कियों-स्त्रियों को साफ-सुरक्षित शौचालय नहीं मिलते उन्हें दिन में बारह-तेरह घंटे पेशाब रोकना पड़ता है। इस कारण वे बेहद कम पानी पीकर काम चलाती हैं। खतरनाक बीमारियों की जड़ देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रियों की इस अव्यक्त समस्या का नोटिस लिया है। स्कूलों में लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों की व्यवस्था को शिक्षा के बुनियादी अधिकार से जोड़ा गया है। क्योंकि ज्यादा देर तक पेशाब रोकने, पेशाब कम करने के या कम पानी पीने के कारण महिलाओं के शरीर में कई खतरनाक बीमारियों के पैदा होने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है। यह महज संयोग ही नहीं कि लड़कियों में मूत्रनली में संक्रमण का खतरा लड़कों की अपेक्षा ज्यादा होता है। एक शोध में सामने आया है कि सोलह साल की उम्र से पहले ग्यारह प्रतिशत लड़कियों और चार प्रतिशत प्रतिशत लड़कों में पेशाब संबंधी संक्रमण होता है। -माया राठी
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