04-Jun-2016 07:24 AM
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गीता के सबसे प्रसिद्द सूत्रों में से एक है कर्म करो पर फल की इच्छा न करो। इसे अपने जीवन में कैसे अपना सकते हैं, और ये अपनाने से क्या बदलाव आ सकता है? जो मनुष्य किसी फल की इच्छा के बिना अपना कर्तव्य भली-भांति निभाता है, वही संन्यासी है और वही योगी है। सिर्फ कार्य और अग्नि को त्याग कर संन्यासी बनना संभव नहीं है। संन्यास ही योग है क्योंकि सभी स्वार्थों को त्याग कर ही योग को प्राप्त किया जा सकता है। जिसने अभी-अभी योग की शुरुआत की है, वह मनुष्य कर्म द्वारा योग को प्राप्त कर सकता है। मगर जो लोग पहले ही योग को प्राप्त कर चुके हैं, वे सभी कार्यों को त्याग कर ही उसमें सिद्ध हो सकते हैं। इंद्रियजनित वस्तुओं और कार्यों के प्रति हर तरह का जुड़ाव समाप्त होने, सभी सांसारिक इच्छाओं के समाप्त हो जाने पर कोई मनुष्य योग को प्राप्त कर सकता है। कोई अपने मन के द्वारा अपनी उन्नति करता है, या अवनति, यह उसके ऊपर है क्योंकि मन मनुष्य का मित्र भी हो सकता है और शत्रु भी।
जब वह कहते हैं, जो मनुष्य किसी फल की इच्छा के बिना अपना कर्तव्य भली-भांति निभाता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, सिर्फ कार्य और अग्नि को त्याग कर संन्यासी बनना संभव नहीं है,Ó तो इसका अर्थ है कि कर्म आपको नहीं उलझाता। मसलन, मान लीजिए, आप एक एकाउंटेंट हैं। ऑफिस जाना, जोड़-घटाव करना, घर आना, आपको नहीं उलझाता। मगर आप ऑफिस इसलिए जाते हैं क्योंकि उससे आपको इज्जत, सुविधाएं और दूसरे फायदे मिलते हैं। यहां आश्रम में जो स्वयंसेवक रसोईघर में खाना पका रहे हैं, जो लोग फूलों को सजा रहे हैं, या बाकी सारा काम कर रहे हैं, इन्हें कोई ईनाम नहीं मिल रहा। उन्हें इस काम के पैसे नहीं दिए जाते, उन्हें हॉल में बैठने तक को नहीं मिलता। आप इसलिए ऑफिस नहीं जा रहे क्योंकि आपको जोड़-घटाव करने में मजा आता है, बल्कि आप उस कार्य के फल के लिए ऑफिस जाते हैं। वह यही चीज आपको छोडऩे के लिए कह रहे हैं। अगर आपको तनख्वाह, इज्जत, सामाजिक सुविधाएं, किसी तरह का कोई लाभ न मिले, तो क्या आप तब भी काम करने के इच्छुक होंगे? ऐसा नहीं है कि आपको जो कुछ हासिल है, उसे आपको नहीं खाना या उसका आनंद नहीं उठाना चाहिए, मगर यदि ये चीजें नहीं होतीं, तो क्या आप तब भी इतनी ही तत्परता से काम करते? यहां पर सबसे महत्वपूर्ण बस यही है।
यहां आश्रम में जो स्वयंसेवक रसोईघर में खाना पका रहे हैं, जो लोग फूलों को सजा रहे हैं, या बाकी सारा काम कर रहे हैं, इन्हें कोई ईनाम नहीं मिल रहा। उन्हें इस काम के पैसे नहीं दिए जाते, उन्हें हॉल में बैठने तक को नहीं मिलता। मगर क्या आपको लगता है कि वे कोई चीज नाराजगी से करते हैं, जैसे, मुझे तो लीला में भाग लेने को भी नहीं मिलता, तो मैं यह सब क्यों करूं?Ó ऐसा कोई नहीं है। वे आराम से ये काम कर रहे हैं। यही कर्म के फल का त्याग करना है। फल की इच्छा किए बिना, प्रयास किया जा रहा है। अक्सर, मेरी ओर से आभार का एक शब्द भी नहीं होता है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि वे उसमें भी उलझें।
कर्म के फल की इच्छा ही उलझाती है
एक बार जब आप कर्म के फल की इच्छा को छोड़ देते हैं, तो कार्य आसानी से हो जाता है। जब कोई इंसान कोई काम सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि उसे वह काम पसंद है और सबसे बढ़कर क्योंकि वे चाहते हैं कि कोई और भी उसका आनंद उठाए, चाहे उन्हें भी वहां बैठने को मिले या नहीं, तब वह कार्य आपको नहीं उलझाता। एक बार जब आप कर्म के फल की इच्छा छोड़ देते हैं, तो वह कर्म आपको नहीं उलझाता। आपको उससे क्या मिलेगा, उसकी अपेक्षा आपको उलझाती है। बस खुद को ध्यान से देखिए जहां भी आप किसी अपेक्षा के बिना कर्म करते हैं, आपका अनुभव क्या होता है, और जहां आप किसी उम्मीद से कर्म करते हैं, वहां आपका अनुभव कैसा होता है। अगर आप इसे ध्यान से देखेंगे, तो आप गीता की बात करेंगे। चूंकि आप जागरूकता के कारण कर्म के फल का त्याग नहीं करेंगे, इसलिए प्रेम की इतनी बातें की जाती हैं। जब आपके अंदर किसी के लिए प्रेम की गहरी भावना होती है, तो कर्म के फल का त्याग करना आसान होता है। इस अर्थ में, आम तौर पर दुनिया में हर कहीं, और खास तौर पर इस संस्कृति में, स्त्रियां पुरुषों से बेहतर कर्मयोगी होती हैं। पति और बच्चों के साथ गृहिणी का दायित्व निभाना एक पूर्णकालिक काम है। अगर वे खाना पकाती हैं, तो चाहे वे खुद खाएं या नहीं, वे अपने पति और बच्चों को खिलाना चाहती हैं। वे जो कुछ भी करती हैं, उसके लिए किसी फल की इच्छा नहीं करतीं। किसी कारण से उनमें एक अलग गुण होता है, शांति और जीवन की एक खास किस्म की भावना होती है। इस पीढ़ी में, वह गायब हो रहा है, क्योंकि वे शिक्षा प्राप्त कर रही हैं और दुर्भाग्यवश, शिक्षा का ढांचा जिस तरह तैयार किया गया है, वह अंतहीन इच्छाओं को जन्म देता है। जब आप शिक्षा हासिल कर लेते हैं, तो बैठकर आराम करने का कोई सवाल नहीं होता। आपको लगातार सक्रिय रहना पड़ता है। आधुनिक शिक्षा ने प्रगति में इस पागलपन को ला दिया है। 60 के दशक के दौरान, हिप्पियों का एक नारा था चाहे आप चूहा दौड़ जीत भी लें, फिर भी आप चूहे ही रहेंगे।Ó आपको कर्म से जुड़ी ऊर्जा का या तो खर्च करना होगा या उससे परे जाना होगा। सबसे आसान तरीका है, उसे खर्च करना। अगर आप ज्यादा काम करेंगे, तो कर्म के लिए निर्धारित ऊर्जा जल्दी ही खर्च हो जाएगी। क्या आप भी एक चूहा बनना चाहते हैं? हिप्पी आंदोलन का मकसद सही था अलग होने की चाह, जीवन के दूसरे आयाम को जानने की चाह, मगर दुर्भाग्यवश, उसे मार्गदर्शन नहीं मिला। कुछ अवसरवादी लोगों ने उसका दुरुपयोग किया और यह सारी चीज लडख़ड़ा गई। लोग ड्रग्स लेने लगे, आत्महत्या करने लगे, शराब पीने लगे और कहीं और पहुंचने की बजाय तेजी से अपने विनाश की ओर बढऩे लगे। कुछ लोगों ने अपना जीवन सही कर लिया, बाकी मिट गए। कर्म के फल से मुक्त होना एक संपूर्ण मुक्ति है। कर्म अपने आप में कभी पीड़ा नहीं होता, बल्कि कर्म का फल पाने की इच्छा रखना पीड़ा को जन्म देता है। अगर आपको बदले में कोई अपेक्षा नहीं होगी, तो आप खुशी-खुशी और जबर्दस्त क्षमता से काम करेंगे क्योंकि आखिरकार उसका नतीजा क्या होता है, उससे आपको फर्क नहीं पड़ता। अगर आपको कुछ करने में मजा आएगा, तो आप खुद को पूरी तरह उसमें झोंक देंगे। हम यही संस्कृति पैदा करना चाहते हैं। अगर आप ब्रह्मचारियों को देखें, तो वे अपनी चरम प्रकृति की ओर जाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। आपको भी, आप सब को भी मेहनत करनी चाहिए। कर्म के फल की आशा न करें।
-ओम