16-Apr-2016 06:47 AM
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क्या आप तुलसीदास के रामचरितमानस के लंकाकाण्ड की चौपाई- प्रभु ताते उर हतईं न तेही। एहि के ह्रदय बसत वैदेही।Ó से रूबरू हैं? यह राक्षसी त्रिजटा है, जो सीता से कहती है कि राम, रावण के ह्रदय में, बाण इसलिये नहीं मार रहे

क्योंकि उसमें सीता बसती हैंÓ। जबकि हम सब यही जानते और मानते हैं कि नाभि में अमृत होने की वजह से रावण मर नहीं रहा था। मुझे लगता है कि ऐसी ही अन्य कई गुमनाम चौपाइयों, दोहों और सोरठों से मानस में कथात्मक यथार्थ का जो एक अलग और वास्तविक अर्थ-वलय बनता है उसे जाना जाए। दरअसल, आलोचकों और कथा-वाचकों ने हमारे आँखों में अपने अर्थ की पट्टी बाँध दी है। एक अदभुत कथा को खींच-तान कर लुगदी बना दिया गया है। कवियों पर उसका गहरा प्रभाव बना रहा। छायावादी निराला को इसने अत्यंत प्रभावित किया जिसका परिणाम राम की शक्तिपूजा है,पर आगे हम देखेंगे कि यह मानस से अधिक यथार्थवादी कविता नहीं है। खैर, त्रिलोचन भी कहते हैं- तुलसी बाबा मैंने कविता तुमसे सीखीÓ।
दरअसल, प्रगतिवादी दौर में इस ग्रन्थ की लोकप्रिय सत्ता को जबदस्त चुनौती मिली। मानस के विचार-पक्ष को प्रश्नांकित किया गया। इसमें सामंती मूल्यों का साहित्यिक-संस्थायन देखा गया। कुछ आलोचकों ने इसे धर्म-ग्रन्थ घोषित कर दिया। मुक्तिबोध जैसे कवि-आलोचक ने मानस को पतनशील कविता बताया तथा इसकी आधुनिक प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किये। आज भी, रामचरितमानस एक अत्यंत विवादास्पद कविता के रूप में हमारे सामने है। हिन्दी की दलित एवं स्त्री धारा में यह उपेक्षित है। दलित गुटों ने तो इसे सार्वजनिक रूप से जलाया भी है। स्त्री-विमर्श में भी यह विरोध की प्रमुख किताबों में है। स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से मानस के अंशों को धीरे-धीरे हटाया जा रहा है। क्या सचमुच मानस की कविता की अर्थवत्ता हमारे समय में खत्म हो चुकी है? भारत की अधिकाँश जनता को जिस कविता ने अभी भी एक भाव-धारा में बाँध रखा है क्या उसका साहित्यिक और सामाजिक मूल्य अब कुछ नहीं है? क्या मानस धर्मान्धता का प्रचार करने वाली एक खतरनाक पुस्तक है जिसे मंदिरों तक ही सीमित रहने देना चाहिए? क्या वह हिंदू-जिहाद का प्रचार करने वाली आसमानी किताब है? सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे। का रचनात्मक आदर्श रखने वाला काव्य-ग्रन्थ रामचरितमानस क्या आज प्रासंगिक नही है?
इन प्रश्नों को मु_ी में भीचे, सहमा-सा मैं मानस के नजदीक गया। पढ़ा और गुना - सांगोपांग। फिर, भीतर-बाहर के अंतर्ज्ञान ने एक व्यापक बोध भी मिला। अतीत एक अत्यंत महीन छन्नी है, उसमें से वही छन कर वर्तमान में आता है जो प्रासंगिक होता है। और तब मैंने पाया कि मानस अभी भी लोक कंठ में मौजूद है- ऐक्य रचती भाव-धारा के रूप में। तो क्या हम शिक्षित लोग ही उसे गलत तरीके से पढ़ रहे हैं ? जबकि, मैंने पढ़ा, तुलसी साफ़-साफ़ कह रहे हैं- उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेहुँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें।Ó यानी ब्रह्म से मुझे मतलब नहीं, नाम-रूप धारी सृष्टि में मैं नाम को अपनाता हूँ। और यह नाम भक्त के मन में सामाजिक सक्रियता की आग है। आप मानस ध्यान से पढ़े तो जरूर लगेगा कि उनकी चिंता ब्रह्म आदि धार्मिक-आध्यात्मिक प्रश्नों से उतनी नहीं जितनी संसार और लोगों की रहनी से है। वे इसी चिंता और संकल्प से मानस को लिखते दीखते हैं। यह झूठी सोच है कि क्षरते वर्ण धर्म से उत्पन्न क्षोभ और संशय ने यह उनसे लिखवाया। इसलिये, मेरी विनती है कि दाहिने-बाएँÓ की खलता छोड़ व शंका त्याग मानस को फिर से और ध्यान से पढ़ा जाय।
सो सब हेतु कहब मैं गाई।
कथा प्रबंध विचित्र बनाई
सर्वप्रथम, मेरे मत में, मानस मूलत: एक साहित्यिक ग्रन्थ है अत: उसे उसी निगाह से पढऩा और मूल्यांकित करना चाहिए। अधिकांशत: तो तुलसी खुद समझ की डोर पकड़ा देते हैं, पर कहीं-कहीं खुद अपने विवेक का भी प्रशिक्षण करना पड़ता है। मानस का आरम्भ ही होता है-
वर्णानामर्थसंघानाम रसानां छंदसामपि ।
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणी विनायकौ ।
अर्थात वर्ण और अर्थ का संघनन। और यही भामह कहते हैं- शब्दार्थौ सहितौ काव्यम। थोड़ा अलग हटकर, वाणी के देवता की वंदना है किन्तु वंदना तो अहमन्यता, अहंकार का तिरस्करण है। कबीर और तुलसी में शायद यही बुनियादी अंतर है। आँखिन की देखी का सात्विक अहंकार है कबीर में और इसी से उनकी कविता भक्ति को एक सीमा के बाद खुन्नस में बदल देती है, जिसके प्रतिक्रियात्मक रूप सकरात्मक एवं नकरात्मक दोनों हैं। हालाँकि स्वयं तुलसी कबीर को
अपना संगी ही मानते हैं- अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा।
मानस के रूप में कोई उपनिषद या दर्शन-ग्रन्थ लिखने का भाव उनका नहीं है। उनका संकल्प भनिति विचित्र सुकवि कृत है। अर्थात वे कविता या साहित्य की रचना में प्रवृत्त होते हैं। इसीलिए, साहित्येतर उलझनों के शमन हेतु तुलसी समझ के निर्णायक सूक्ष्म सूत्र रचते हैं। ये सूत्र-चौपाइयां बालकाण्ड के बत्तीसवें दोहे के बाद शुरू हो जाती हैं। ये मानस के साहित्यिक, कथात्मक स्वरुप की घोषणा करती महत्वपूर्ण चौपाइयां हैं। यथार्थ के कथात्मक-प्रस्तुतिकरण का ये एक मेयार गढ़तीं हैं। इन्हें ध्यान से पढ़े तो तो तुलसी के कथाकार-मानस की सही समझ होगी। तुलसी इनमें कथा-शिल्प की बात कर रहे हैं- सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध विचित्र बनाई।।Ó आज का कथा-शिल्पी भी यही निवेदन करता है पाठक से।
-ओम