डू नॉट डिस्टर्ब मीÓ
31-Mar-2016 10:18 AM 1234795

जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में समझौते की सरकार बन गई है। लेकिन कहा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर की सियासत में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और भाजपा झेलम दरिया के दो ऐसे किनारे हैं, जो आपस में कभी नहीं मिलते। विपरीत विचारधारा वाली इन दोनों पार्टियों का मिलकर सरकार बनाना एक नया प्रयोग है जो लडख़ड़ाते, घिसटते हुए किसी तरह चलेगा। लेकिन कितना चलेगा यह वक्त ही बताएगा। क्योंकि महबूबा डू नॉट डिस्टर्ब मी की शर्त पर सरकार बनाने को राजी हुई हैं। मुफ्ती मुहम्मद सईद की मौत के बाद दोनों पार्टियों ने एक बार फिर सत्ता की बागडोर संभाली है। ये जितना वक्त की जरूरत थी, उतनी ही दोनों की सियासी मजबूरी। राज्य में महबूबा मुफ्ती की ताजपोशी के बाद लोगों की उम्मीदें और आशाएं फिर जाग जाएंगी।
पीडीपी और बीजेपी भले ही झेलम के दो ऐसे किनारे हैं, जो कभी नहीं मिलते, लेकिन दोनों साथ झेलम का पानी तो पी सकते हैं। अब देखना यह है कि समझौते की यह सरकार कितने दिन तक कायम रहती है। भले ही एक बार फिर से पीडीपी और भाजपा की सरकार बन गई है, लेकिन कश्मीर में सरकार को लेकर महबूबा मुफ्ती का अब तक का रवैया भाजपा को समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन महबूबा ने संकेत दिया है कि घाटी में लोकतंत्र के अच्छे दिन तभी आएंगे जब मोदी नहीं बल्कि उनके मन की बात होगी।
वैसे तो मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में बनी सरकार को उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के मिलन के तौर पर देखा गया, लेकिन बात बस इतनी ही नहीं थी। जनादेश और राजनीतिक हालात ऐसे रहे कि दोनों को साथ होना पड़ा। बीजेपी को जम्मू में तो पीडीपी को कश्मीर में मैंडेट मिला था। कहना ये भी होगा कि दोनों ही दलों ने आगे बढऩे की हिम्मत दिखाई और गठबंधन सरकार बनी। हालात अब भी जस के तस हैं। दोनों में से कोई भी फिर से चुनावी मैदान में उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पाए और गठबंधन की सरकार बना ली। हाल ही में आरएसएस के सीनियर नेता इंद्रेश कुमार का बयान था कि भाजपा और पीडीपी के बीच विश्वास बहाल करने के उपायों की मांग नहीं की जा सकती, बल्कि दोनों सहयोगियों की सोच एक जैसी होने पर ही विश्वास बनेगा। इंद्रेश कुमार कहते हैं, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस जैसे दलों को अपनी अलगाववादी विचारधारा से बाहर निकलना होगा और भारतीय बनना होगा, केवल भारत समर्थक नहीं।
पीडीपी और भाजपा, दोनों दलों के दिलों को जोडऩे की कड़ी है एजेंडा ऑफ  अलाएंस, जिसे पीडीपी नेता अक्सर एक पाक दस्तावेज के तौर पर प्रोजेक्ट भी करते रहे हैं। ये तो जगजाहिर है कि महबूबा मुफ्ती की हमेशा अलगाववादियों से सहानुभूति रही है। जिस बात पर मुफ्ती मोहम्मद सईद चुप रह जाते थे, महबूबा खुलेआम कहती रही हैं। वैसे शपथ लेने के बाद मुफ्ती सईद भी खुद को रोक नहीं पाए थे और सूबे में शांतिपूर्वक चुनाव का क्रेडिट अलगाववादियों से लेकर पाकिस्तान तक को दे दिया था। जिस तरह कन्हैया कुमार भारत से नहीं बल्कि भारत में आजादी का फॉर्मूला पेश किया है उसी तरह महबूबा कामकाज में आजादी चाहती हैं। अब देखना यह है कि भाजपा नेता और उप मुख्यमंत्री निर्मल सिंह इसे कब तक बरकरार रख पाते है।

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