पहले अपनी पार्टी को आजाद कराओ!
16-Mar-2016 08:37 AM 1234940

भूमिहार समुदाय के कन्हैया बार-बार रोहित वेमुला या आंबेडकर का नाम ले रहे हैं। यह अच्छी बात है पर क्या इसकी वजह वामपंथियों के खत्म होती प्रासंगिकता और दलित छात्र संगठन का मजबूत उभार है?
बीते 3 मार्च की रात जेल से रिहा होने के बाद जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया ने जोरदार भाषण दिया। देश को भाषण बहुत पसंद है, लोगों को नरेंद्र मोदी का भाषण भी काफी पसंद आया था। कन्हैया का भाषण न केवल टीवी चैनलों पर चला बल्कि अगले दिन अखबारों की लीड खबरों में रहा। देश में अधिकतर लोगों को एक नायक चाहिए होता है और सोशल मीडिया पर गौर करें तो वे कन्हैया को इसके बाद कुछ इसी तरह पेश कर रहे हैं। मौजूदा परिदृश्य में संघ, बीजेपी और असल में मोदी के खिलाफ विपक्ष को तथा कथित प्रगतिशील लोगों को एक चेहरा चाहिए और भाषण के बाद वे कन्हैया को कुछ इसी तरह जता रहे हैं। लेकिन कन्हैया जिस संघवाद, ब्राह्मणवाद, जातिवाद, मनुवाद से आजादी की बात कर रहे हैं क्या वे खुद अपने छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन (एआइएसएफ) और पार्टी सीपीआई को आईना दिखाएंगे। क्या वे खुद अपनी संगठन और पार्टी को इन चीजों से आजाद कराएंगे? कायदे से तो उन्हें पहले यहीं करना चाहिए, देश तो इन बुराइयों से पहले ही लड़ रहा है। जिन लोगों ने बिहार में एआइएसएफ और सीपीआई को नजदीक से देखा है या देख रहे हैं, वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे होंगे। इन दोनों संगठनों के नेतृत्व में दलित न के बराबर हैं। बिहार में सीपीआई के मुखिया यानी राज्य सचिव सत्य नारायण सिंह भूमिहार हैं। इससे पहले भी इस पद पर भूमिहार समुदाय के राजेंद्र सिंह थे। पार्टी से जुड़े एक सूत्र के मुताबिक, इसकी राज्य कार्यकारिणी में 31 लोग हैं, जिनमें एकमात्र दलित जानकी पासवान हैं। इस कार्यकारिणी में तकरीबन 11 भूमिहार, 5 राजपूत, 4 ब्राह्मण, 3 कायस्थ और आधा दर्जन पिछड़े हैं। इनमें महिला भी सिर्फ एक हैं। पिछले साल इस कार्यकारिणी में से करीब एक दर्जन लोगों को हटाया गया था। हटाए जाने वालों में अधिकतर ओबीसी और एक आदिवासी थे। पार्टी ने इसको सालना प्रक्रिया बताया पर सवाल उठता है कि अधिकतर पिछड़े समुदाय के लोगों को क्यों हटाया गया? सच पूछा जाए तो पार्टी अपने सवर्णवाद के लिए प्रदेश में बदनाम है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी और डिप्टी महासचिव गुरुदास दासगुप्ता हैं। हालांकि पार्टी के राष्ट्रीय सचिव डी। राजा दलित हैं और वे हिन्दी प्रदेश के रहने वाले नहीं बल्कि दक्षिण भारत के तमिलनाडु के हैं।
ठीक इसी तरह एआइएसएफ की बात करें तो इसके राज्य सचिव सुशील कुमार (यादव) हैं तो प्रदेश अध्यक्ष परवेज आलम (मुस्लिम) हैं। राष्ट्रीय स्तर पर बिहार के विश्वजीत कुमार (भूमिहार) एआइएसएफ के महासचिव हैं तो राष्ट्रीय सचिव मो। कादिर। जाहिर है, कन्हैया के संगठन और पार्टी के नेतृत्व की सामाजिक संरचना को देखें तो दलित नदारद हैं। तो क्या इन्हें दलितों की राजनीति तो करनी है पर उन्हें बस पैदल और शहीद होने वाले सिपाही बना कर? जाहिर है, इन्हीं वजहों से दलितों-वंचितों की आवाज उठाने का दावा करने वाली पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव में जीरों पर सिमट गई। वह पहले ही बिहार या अन्य हिन्दी प्रदेशों में आधार खो चुकी है और मायावती-लालू-नीतीश जैसे नेताओं में वंचित समुदाय अपना अक्स देखते हैं। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में सीपीआई के सिर्फ तीन सवर्ण उम्मीदवार 10,000 से ज्यादा वोट हासिल कर पाए थे, जबकि पार्टी के पिछड़े समुदाय के आठ उम्मीदवारों ने 10,000 से ज्यादा वोट हासिल किया था। इससे जाहिर है, सवर्ण पार्टी नेताओं के मुकाबले ज्यादा जनाधार पिछड़े समुदाय के नेताओं का है।
एक बात और कि करीब दो साल पहले पटना के आंबेडकर छात्रवास (दलित छात्रावासा) पर कथित तौर पर बगल के सैदपुर हॉस्टल के भूमिहार छात्रों ने हमला कर दिया था और जातिसूचक टिप्पणियों के साथ दलित छात्रों के साथ मारपीट की थी। इस हमले में एआइएसएफ के नेता और पटना विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के तत्कालीन उपाध्यक्ष अंशुमान भी कथित तौर पर शामिल थे। बाद में भूमिहार समुदाय के अंशुमान पार्टी संगठन के खिलाफ ही गतिविधियों में लिप्त रहे और इसलिए उन्हें निकाल दिया था। दिलचस्प कि छात्रसंघ चुनाव में उनके समुदाय के छात्रों का समर्थन लेने के लिए ही संगठन ने उन्हें शामिल किया था और एकाएक उपाध्यक्ष प्रत्याशी बनाया था। राज्य में वाम संगठनों में सवर्णों के वर्चस्व के ऐसे कई दास्तान भरे पड़े हैं। लिहाजा, हमें मोदी का हमशक्लÓ नहीं चाहिए। पुरानी हिन्दी फिल्मों सरीखा एक अच्छा दिखने वाला और दूसरा बुरा। खुद भूमिहार समुदाय के कन्हैया बार-बार रोहित वेमुला या आंबेडकर का नाम ले रहे हैं। यह अच्छी बात है पर क्या इसकी वजह वामपंथियों के खत्म होती प्रासंगिकता और दलित छात्र संगठन का मजबूत उभार है? लेकिन प्रतिनिधित्व के सवाल के बगैर यह अधूरा है। अगर वाकई इन लोगों को अपनी गलती का एहसास हो रहा है तो जिस मनुवाद और ब्राह्मणवाद से वे आजादी की बात कर रहे हैं, क्या वे पहले अपने संगठन या पार्टी पर लागू करेंगे? और यह बात अन्य वाम संगठनों पर भी इसी तरह लागू होती है।
आखिर यह कैसी जीत
लग रहा है कि जैसे कन्हैया अंतरिम जमानत पर नहीं, बाइज्जत बरी होकर आया हो। अपनी खुशी के खुमार में कन्हैया समर्थक बुद्धिजीवी शायद अंधे और बहरे हो गए हैं।  तभी तो इस अंतरिम जमानत को छह महीने की एक रियायत मानने की बजाय वे इसे कन्हैया की जीत बता रहे हैं। उन्हें शायद अंदाजा ही नहीं कि ऐसा करके वे न केवल अपनी बौद्धिकता के स्तर को मटियामेट कर रहे हैं, बल्कि देश की जो थोड़ी-बहुत जनता उनसे परिचित है, उसकी नजरों में भी खुद को गिरा रहे हैं।
-ऋतेन्द्र माथुर

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