मनुष्य जीवन में धर्म सर्वत्र है
03-Mar-2016 07:33 AM 1235084

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र दोनों ही शब्द बड़े अच्छे हैं। हम जहां कहीं भी हों, हम सब यहां कुरुक्षेत्र में ही हैं। कुरु माने कर्म। क्षेत्र यानी जहां-जहां आप जाते हैं वहां कर्म होता है। आपके कुरुक्षेत्र में भी युद्ध होता है। बड़भागी और भाग्यशाली वो हैं जिनके कुरुक्षेत्र में कौरव पराजित होते हैं और श्रीकृष्ण की करुणा से सद्गुणों का साम्राज्य स्थापित होता है। पूरी गीता कह पाना और समझना बड़ा कठिन है। अनंत काल तक गीता का स्वाध्याय होता रहेगा। विचारक इसमें से नए-नए मोती प्राप्त करते रहेंगे। धर्म से प्रारंभ होने के बाद गीता का जहां पर्यवसान होता है, वहां एक शर्त है। श्रीमद्भगवद्गीता धर्मक्षेत्र से चलते-चलते पर्यवसान तक शोक को मिटाती है। मनुष्य के जीवन में शोक प्रकट होते हैं, यदि शोक मिटा लेता है तो उसका जीवन सुखमय होता जाता है।
यदि अर्जुन को शोक न आया होता तो शायद श्रीमदभगवद्गीता प्रकट ही नहीं होती। दरअसल श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध के समय एक चिंता जागी। यानी जो सारे संसार को चिंता से मुक्त करने वाला स्वयं चिंतित हो गया। भगवान ने सोचा कि अभी यदि अर्जुन को ज्ञान न दे पाया तो मेरा अस्तित्व विवादास्पद हो जाएगा। लोग कहेंगे कि अर्जुन को ही ठीक नहीं कर पाए तो दुनिया को क्या ठीक कर पाएंगे। इसलिए अपने अस्तित्व को ठीक करने के लिए भगवान ने ज्ञान की गंगा बहाई।
मनुष्य जब अपना धर्म निभाता है, तब संपूर्ण समाज लाभान्वित होता है और प्रगति करता है। लेकिन धर्म प्रेरणा बन सके , इसके लिए मनुष्य को स्व-चेतना को जगाना होगा। कल्याणकारी सोच बनानी होगी। यह मनुष्य और समाज के बीच परस्पर दायित्व की बात है। जहां धर्मबोध है, वहां कल्याण है। जैसे श्रीकृष्ण ने किया और संपूर्ण भारत के उत्थान का मार्ग प्रशस्त हुआ। परमपुरुष साधना मार्ग में न सिर्फ आगे ले चलने का दायित्व लेते हैं, वरन् पथ निर्देशना के साथ-साथ उसकी सामग्री का भी प्रबंध करते हैं, जिससे सब आगे बढ़ सकें, जिससे समाज के लोग आगे चलते रहें। ऐसा न होने पर मनुष्य अंधकार में ही रह जाता है, उसी में ऊंघता रहता है और कहता है- मैं ठीक हूं और अच्छा ही हूं। जैसे, कुएं का मेंढक समझता है कि कुएं के बाहर पृथ्वी नहीं है।
धर्म वह है, जो मनुष्य के जीवन के सभी क्षेत्रों के लिए प्रेरणा देता है। धर्म, मनुष्य जीवन में सब कुछ को लेकर है। मनुष्य का जीवन एक फूल नहीं है, बल्कि फूलों का एक गुच्छा या गुलदस्ता है, उसमें विभिन्न प्रकार के रूप, रस, रंग और विभिन्न प्रकार का माधुर्य है। वे उस माधुर्य को चारों ओर सभी कोनों में विकीर्ण करते चलते हैं। यह उनके अस्तित्व को सार्थक करता है और चरितार्थ भी।
अब यदि एक मनुष्य धार्मिक है तो वह जीवन के प्रत्येक स्तर पर अपनी धार्मिकता का चिन्ह अंकित करता चलेगा। वह व्यक्तिगत जीवन में न तो अन्याय करेगा और न अन्याय को सहेगा ही। वह सामाजिक जीवन में भी जनगोष्ठी के बारे में कोई अन्याय नहीं होने देगा, किसी अन्याय को सहन नही करेगा। मनुष्य का अस्तित्व जड़, स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन सबको लेकर है। जिससे सभी मनुष्य सतपथ पर रह सकें, जिससे अन्न, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा की व्यवस्था हो, उस ओर वह अवश्य देखेगा।
गलती या भटकाव के फलस्वरूप यदि कोई चोर बनता है, तो उस चोर का जितना दायित्व है, उससे लाख गुना अधिक दायित्व समाज का है, क्योंकि समाज ने ही उसको चोरी करने में प्रवृत्त किया था। कृष्ण जिस युग में आविर्भूत हुए थे, उस युग में भारत छोटी जनगोष्ठियों में, छोटे-छोटे राष्ट्रों में विभक्त था। वे एक-दूसरे के साथ केवल संघर्ष में लिप्त रहा करते थे, यह संघर्ष कोई आदर्शगत संघर्ष नहीं था।
यह संघर्ष तत्कालीन राजाओं की साम्राज्य-लिप्सा के कारण होता था। इसके पीछे और न तो कोई दर्शन था, न कोई शुभ भावना थी और न ही कोई कल्याण प्रेरणा थी। केवल व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि, व्यक्तिगत लोभवृत्ति को चरितार्थ करने के लिए राजा लोग एक दूसरे के राज्य के ऊपर आक्रमण करते थे। उनके भीतर धर्म बोध का अभाव था। इसलिए वे इस तरह अन्याय करते थे, देश टुकड़ों-टुकड़ों मे बंट गया था।
कृष्ण ने देखा कि ये छोटे-छोटे देश अकेले आत्मरक्षा में असमर्थ हैं। जो आत्मरक्षा में असमर्थ हैं, वे जनकल्याण करने में भी असमर्थ हैं। वे लोग आत्मरक्षा की व्यवस्था कर सकें और जिससे वे यथोचित तरीके से जनकल्याण कर सकें,  इसलिए  कृष्ण ने निश्चय किया कि सबको एक धर्मराज में बांध देंगे, टुकड़ों में बंटे भारत को एक कर देंगे, ताकि उसकीजनगोष्ठियां संयमित हो सकें और यह संयम और धर्म भित्तिक भारत मनुष्य जाति को नया पथ दे सके।
मनुष्य जाति को नये रूप से समझा सके कि तुम मनुष्य हो, मनुष्य के विचार से तुमको मिल-जुल कर आगे बढऩा होगा और मिल-जुल कर जनकल्याण करना होगा। टुकड़ों में बंटा भारत एक हो सके और महाभारत का गठन हो सके, इसी के लिए कृष्ण ने समस्त धर्मबुद्धि संपन्न राजाओं को, धर्मबुद्धि सम्पन्न मनुष्यों को, साधारण मनुष्यों को भी, बल्कि केवल साधारण मनुष्य ही नहीं, अवज्ञागत मनुष्य को भी (जैसे विदुर कोई साधारण मनुष्य भी नहीं थे, वे अवज्ञागत मनुष्य थे), सभी को लेकर एक धर्मराज्य की प्रतिष्ठा के स्वप्न को यथार्थ रूप देने का प्रयास किया। उस समय देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था, इस प्रकार के छोटे राज्य अपने को बचा नहीं पाते, रक्षा नहीं कर पाते, यह बात कृष्ण पहले ही समझ गये थे, इसलिए इस प्रकार की व्यवस्था भी की थी। उस समय अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र, मगध इत्यादि छोटे-छोटे राज्य थे। इस प्रकार समस्त धार्मिकों को एक झंडे के नीचे लाकर एक धर्मराज्य, एक महाभारत बनाने का उनका प्रयास था।
-ओम

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