भक्ति और संस्कृति...!
16-Feb-2016 06:38 AM 1234968

रामायण और रामचरितमानस हिन्दू संस्कृति के प्रमुख ग्रन्थ है...हर घर में इनका होना अनिवार्य है...श्रीराम के जीवनवृत पर आधारित श्रद्धा से जुडी होने के कारण अतुलनीय व पूज्यनीय तो है ही मगर ...सिर्फ धर्म की दृष्टि से ही नहीं, कविता या महाकाव्य के रूप में भी यह विलक्षण है...अलंकारों का ऐसा सुन्दर उपयोग और किसी भी महाकाव्य या ग्रन्थ में नहीं है ...इसे पढ़ते हुए व्यक्ति चकित , चमत्कृत रह जाता है...इतनी असाधारण प्रतिभा दैवीय ही हो सकती है। वाल्मीकि रामायण संस्कृत का महाकाव्य है जिसमें वाल्मीकि ने राम को असाधारण गुणों के होते हुए भी उन्हें एक मानव के रूप में ही चित्रित किया है...जबकि रामचरितमानस में तुलसीदास ने राम को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में।
राम चरित्र मानस न केवल धर्म ग्रंथ है बल्कि इसमें हमारी संस्कृति का भी दर्शन होता है। तुलसीदास की राम के विवरण और वर्णन में अपनी असमर्थता को प्रकट करती विनम्रता देखते ही बनती है...परन्तु कुटिल खल कामियों को हंसी-हंसी में विनम्रता के आवरण में कब तंज कर जाते हैं, पता ही नहीं चलता....
मति अति नीच ऊँची रूचि आछी।
चहिअ अमिअ जग सुरइ न छाछी।।
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई।
सुनिहहिं बालबचन मन भाई।।
मेरी बुद्धि तो अत्यंत नीची है, और चाह बड़ी ऊँची है। चाह तो अमृत पाने की है पर जगत में जुडती छाछ भी नहीं है। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर सुनेंगे।
जों बालक कह तोतरी बाता। सुनहिं
मुदित मन पित अरु माता।।
हंसीहंही पर कुटिल सुबिचारी।
जे पर दूषण भूषनधारी।।
जैसे बालक तोतला बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं किन्तु कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किये रहते हैं, हंसेंगे ही...
निज कवित्त कही लाग न नीका।
सरस होई अथवा अति फीका।।
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं।
ते बर पुरुष बहुत जग नाहिं॥
रसीली हो या फीकी अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष (व्यक्ति) जगत में बहुत नहीं हैं ...
जग बहू नर सर सरि सम भाई।
जे निज बाढहिं बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई।
देखी पुर बिधु बाढ़ई जोई।।
जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक है जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं। समुद्र- सा तो कि एक बिरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देख कर उमड़ पड़ता है ...महाकाव्य लिखने में तुलसी की विनम्रता देखते ही बनती है...जहाँ आप -हम कुछेक कवितायें लिख कर अपने आपको कवि मान प्रफ्फुलित हो बैठते हैं और त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाते ही भृकुटी तान लेते हैं, वहीं ऐसा अद्भुत महाकाव्य रचने के बाद भी तुलसीदास खुद को निरा अनपढ़ ही बताते हैं ...
कबित्त विवेक एक नहीं मोरे, सत्य कहूँ लिखी कागद कोरे ...काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझे नहीं है, यह मैं शपथ पूर्वक सत्य कहता हूँ ...मगर श्री राम का नाम जुड़ा होने के कारण ही यह महाकाव्य सुन्दर बन पड़ा है ..
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी,
अहि गिरी गज सर सोह न तैसी।
नृप किरीट तरुनी तनु पाई,
लहहीं सकल संग सोभा अधिकाई।
मणि, मानिक और मोती जैसी सुन्दर छवि है मगर सांप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाते हैं...राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर पर ही ये अधिक शोभा प्राप्त करते हैं ..
अति अपार जे सरित बर जून नृप सेतु कराहीं, चढ़ी पिपिलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं..
जो अत्यंत श्रेष्ठ नदियां हैं, यदि राजा उन पर पुल बंधा देता है तो अत्यंत छोटी चीटियां भी उन पर चढ़कर बिना परिश्रम के पार चली जाती हैं।
सरल कबित्त कीरति सोई आदरहिं सुजान ...
अर्थात चतुर पुरुष (व्यक्ति) उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो, जिसमे निर्मल चरित्र का वर्णन हो ...
जलु पे सरिस बिकाई देखउं प्रीति
की रीती भली।।
बिलग होई रसु जाई कपट खटाई
परत पुनि।।
प्रीति की सुन्दर रीती देखिये कि जल भी दूध के साथ मिलाकर दूध के समान बिकता है, परन्तु कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है ) स्वाद (प्रेम) जाता रहता है ... दुष्टों की वंदना और उनकी विशेषताओं का वर्णन बहुत ही सुन्दर तरीके से किया है ...संगति का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ...इसको भी बहुत अच्छी तरह समझाया है ..
-ओम

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^