यूपी के नए लोकायुक्त पर फंसा पेंच
02-Jan-2016 08:21 AM 1234784

उत्तर प्रदेश के नए लोकायुक्त को लेकर नया पेंच फंस गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही आदेश पर रोक लगा दी है। इस वजह से जस्टिस वीरेंद्र सिंह की नियुक्ति भी अधर में लटक गई है। यूपी सरकार की ओर से तय अवधि में लोकायुक्त का नाम नहीं सुझाने पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए अपनी तरफ से यूपी के लिए लोकायुक्त के नाम को मंजूरी दी थी। इसके तहत, अदालत ने नए लोकायुक्त के लिए रिटायर्ड जस्टिस वीरेंद्र सिंह का नाम तय किया था। बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने नए लोकायुक्त वीरेंद्र सिंह यादव की नियुक्ति पर सवाल उठाया था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि लोकायुक्त पद के लिए जिन पांच व्यक्तियों के नाम भेजे गए थे, उनमें वीरेंद्र सिंह का नाम शामिल नहीं था। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त की नियुक्ति का मामला काफी समय से लटका हुआ था, जिस पर राज्य सरकार में सहमति नहीं बना पा रही थी। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही कदम उठाते हुए वीरेंद्र सिंह को उत्तर प्रदेश का नया लोकायुक्त नियुक्त कर दिया था।
मुलायम के करीबी वीरेंद्र सिंह!
वीरेंद्र सिंह को कथित रूप से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का करीबी माना जाता है। लोकायुक्त पद के लिए वीरेंद्र सिंह उत्तर प्रदेश सरकार की पहली पसंद थे। राजभवन से जारी बयान के मुताबिक, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की ओर से न्यायमूर्ति वीरेंद्र सिंह को लोकायुक्त नियुक्त किए जाने संबंधी पत्रावली राज्यपाल को अनुमोदन के लिए भेजी थी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की प्रति प्राप्त होने के बाद राज्यपाल ने पत्रावली पर अपना अनुमोदन दिया।
निवर्तमान लोकायुक्त एन.के. मेहरोत्रा का कार्यकाल आठ महीने पहले ही पूरा हो चुका था, तब से वह सेवा-विस्तार के तहत पद की जिम्मेदारी निभा रहे थे। उत्तर प्रदेश सरकार यह नहीं समझ पा रही कि हंसे या रोये। हंसने का कारण भी वही है जो रोने का बनता है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिये ऐतिहासिक फैसले में उत्तर प्रदेश में खुद ही लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। यह करते हुए उसने उत्तर प्रदेश की सांविधानिक व्यवस्थाओं पर बड़ी प्रतिकूल टिप्पणी भी की। यह नियुक्ति और टिप्पणी राज्य सरकार के लिए चिंता का विषय होने चाहिए क्योंकि अदालत ने उसे देश भर के सामने अक्षम घोषित कर दिया। लेकिन, जिन सेवानिवृत जस्टिस वीरेंद्र यादव की नियुक्ति कोर्ट ने की, दरअसल राज्य सरकार उन्हें ही लोकायुक्त बनाना चाहती थी किंतु उनके नाम पर संबंधित पक्षों में सहमति नहीं बन पा रही थी। उनका नाम पैनल में था जिससे सुप्रीम कोर्ट ने एक छांट लिया। बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा क्योंकि यही तो सरकार चाहती थी। इसलिए बुधवार दोपहर से ही मीडिया गलियारों और सत्ता प्रतिष्ठानों में चर्चा आम हो गई कि सरकार के यहां मिठाइयां बंट रही हैं। सरकार इसलिए भी खुश है क्योंकि नियुक्ति के बाद उसके ऊपर लटक रही अदालत की अवमानना का खतरा भी टल गया। वैसे खुश तो मुख्य सचिव भी बहुत हैं जिन्हें इसी मामले में अदालत ने व्यक्तिगत रूप से हाजिर होने का हुक्म दिया था। अब इसकी भी जरूरत नहीं बची। बहरहाल, अब इस प्रकरण को जनता की तरफ से देखें। जाहिर है, सत्ता के लिए यह दृष्टि कठिन होती है और इसीलिए वह इससे बचती है। लेकिन, लोग यह जानना चाहते हैं कि क्यों न्याय की सर्वोच्च पीठ के बार-बार कहने के बावजूद राज्य सरकार एक नियुक्ति नहीं कर सकी। क्या यह योग्यता के ऊपर व्यक्तिगत पसंद को वरीयता देने का मामला नहीं।
ऐसा क्या था कि इतने बड़े राज्य में सरकार को लोकायुक्त की कुर्सी पर बैठने लायक एक अदद व्यक्ति नहीं मिल पा रहा था। जनता यह क्यों न पूछे कि अनिर्णय की यह पराकाष्ठा आम जन से जुड़े मुद्दों को भी प्रभावित करती है। जनता यह क्यों न कहे कि पूरे देश के सामने उत्तर प्रदेश एक बार फिर नकारात्मक कारणों से चर्चा में आया। उसके राजनीतिक नेतृत्व पर अंगुलियां उठीं और उसकी छवि खराब हुई। नेता यह गौरव तो बखूबी लेते हैं कि उत्तर प्रदेश देश को प्रधानमंत्री देता है लेकिन, शिक्षा और आर्थिक मोर्चे की उसकी बेचारगी पर बात ही नहीं करना चाहते। यही दुर्भाग्य है यूपी का।

ऐसा पहली बार हुआ
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 16 दिसंबर तक नए लोकायुक्त की नियुक्ति करने का समय तय करने के बाद राज्य सरकार ने आपातस्थिति में चयन समिति की बैठक बुलाई थी जो पांच घंटे तक चले विचार-मंथन के बाद भी किसी एक नाम पर सहमति नहीं बना पाई थी। लोकायुक्त के चयन की तीन सदस्यीय समिति में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य शामिल थे। उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक पहल करते हुए स्वयं ही उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त की नियुक्ति कर दी। उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त का मामला पिछले एक साल से लटका हुआ था।
-लखनऊ से मधु आलोक निगम

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