पंथ और धर्म में बहस बेमानी
15-Dec-2015 09:23 AM 1235073

पंथ और धर्म पर बहस शुरू हो चुकी है। संसद से उठी आवाज सड़क पर ज्यादा गूंजेगी। इस गूंज की कोई दिशा होगी या नहीं या सिर्फ राजनीतिक उल्लू ही सीधे किए जाएंगे? यह वक्त बताएगा। विकास की बात करनी है तो शिक्षा की बात करो। सभी धर्मों का मूल शिक्षा है। शिक्षा ही सर्वोपरि धर्म है। समाज में आज जितनी भी प्रगति है, वह शिक्षा की ही देन है। इंसानी सभ्यता के साथ-साथ शिक्षा और ज्ञान अर्जन के तरीके भी विकसित हुए। पहले ज्ञान अर्जन जहां आचरण और प्रवचन से होता था, वहीं अब यह विशाल प्रयोगशालाओं में शंख-पदम की गणनाओं को हल कर गॉड पार्टिकल की तलाश करता है। इससे भी बड़े प्रयोग के लिए फर्मी लेब तैयार हो रही है। दूर दराज के तारों और ग्रहों के राज खोले जा रहे हैं।
एक ओर जहां मानव का विज्ञान गोचर-अगोचर की गुत्थी सुलझा कर नए चमत्कार करने की ओर अग्रसर है, वहीं दुनिया में एक बड़ा तबका आज भी धर्म को सत्ता (विज्ञान से नहीं) से जोड़ कर शैतानी खेल खेलता है। आदमी-आदमी के खून का प्यासा है। एक दूसरे पर बम बरसा रहा है। गोलियां बरसा रहा है। पूरी दुनिया अशांत है। ऐसे लोगों के लिए धर्म का मतलब शिक्षा नहीं रूढिय़ां हैं। ऐसी रूढिय़ां, जिनके सामने इंसान की जिंदगी कोई मायने नहीं रखती। पहले कुदरत के अनदेखे कोप से डर कर जीवों की बलि दी जाती थी, अब स्वर्ग की हूरों की इच्छा से मानव बम बनकर सामूहिक हत्याएं की जा रही हैं। कहीं किसी के घर कुछ पकने पर धर्म का झंडा उठाकर भीड़ टूट पड़ती है। सिर्फ भारत और एशिया में ही नहीं यूरोप-अमेरिका, आस्ट्रेलिया सभी महाद्वीपों का यह हाल है। किसी की दाढ़ी, किसी का रंग, किसी की भाषा, किसी का खानपान ही किसी की हत्या का कारण बन सकता है। अन्य धर्मों के प्रतीक ऐसे लोगों को पागलपन की हद तक उग्र बना देते हैं, जो खुद को कट्टरपंथी कहते हैं और गैर धर्मों के प्रति अपनी घृणा को उजागर करने से ही खुद को धार्मिक और राष्ट्रभक्त मानते हैं। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में यह असहिष्णुता समान रूप से बढ़ रही है।
यह सिर्फ इसलिए है, क्योंकि धर्म का अर्थ शिक्षा की जगह कुछ प्रतीकों से जोड़कर मान लिया जाता है। कुछ महत्वाकांक्षी लोगों ने अपनी सत्ता की लालसा मिटाने के लिए धर्म को प्रतीकों में बांध कर अपने मतलब सिद्ध किए। जिन्होंने ऐसी मान्यताएं बनाईं, उन्होंने मानव जाति के लिए सिर्फ खतरा ही पैदा किया है। कोई झंडा धर्म नहीं हो सकता। कोई रंग धर्म नहीं हो सकता। कोई एक व्यक्ति धर्म नहीं हो सकता। धर्म का अर्थ इंसान की बुद्धि, उसका ज्ञान, उसकी शिक्षा सार्थक करती है। धर्म का नाम लेकर आतंकवाद फैलाने वालों ने न सिर्फ पूरी दुनियां में घृणा को और बढ़ाया है, बल्कि धर्म की साख पर भी सवाल खड़े किए हैं। उनके लिए धर्म सिर्फ प्रतीकों में बसता है। मगर धर्म की आत्मा तो सभ्यता के विकास में बसती है। सभ्यता का विकास शिक्षा से ही संभव है और शिक्षा ही सर्वोपरि धर्म है।
यह बड़े ही गौरव की बात है कि अधिकतर भारतीय चिंतकों और ऋषि मुनियों ने धर्म को शिक्षा से जोड़ा है। वैदिक व्याख्याएं इसकी गवाह हैं। वैदिक धर्म का मूल तत्व सब प्राणीयों का एक होना है। धर्म की यह विशाल परिभाषा है, जिसमें किसी नफरत की गुंजाइश ही नहीं बचती।
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानत:।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥
अर्थात : जो सब प्राणियों में एक ही आत्मा को देखता है, उसके लिए किसका मोह, किसका शोक।
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्॥
धैर्य, क्षमा, दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तर और बाह्य शुचिता), इन्द्रियों को वश मे रखना, धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या, सत्य और अक्रोध ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।) मनु ने धर्म के ये दस लक्षण बताए हैं। धर्म के नाम पर आज जो पाठ पढ़ाए जाते हैं, उन्हें इस कसौटी पर परखा जा सकता है। धैर्य, क्षमा और विद्या पर जोर दिया गया है। भगवान बुद्ध का अष्टांग मार्ग भी आचरण शुचिता से समाधि तक ले जाता है। जैन धर्म में श्रावक और मुनि के लिए जो पांच व्रत बताए गए हैं, उनमें पहले दो अहिंसा और सत्य हैं। चाणक्य ने भी यही कहा है कि संतोष से बढकर कोई सुख नहीं, तृष्णा से बढकर कोई व्याधि नहीं और दया के सामान कोई धर्म नहीं। अगर दया ही धर्म है तो मनघड़ंत प्रतीकों के लिए लोगों की जान लेने वालों को कैसे धार्मिक कहा जा सकता है।
धार्मिक जागरण काल के संत तुलसी दास भी यही कहते हैं -पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर-पीड़ा सम नहिं अधमाई। संत विनोबा तो यहां तक कह गए हैं-दो धर्मो का कभी झगड़ा नहीं होता, सब धर्मो का अधर्म से ही झगड़ा होता है। धर्म और अधर्म के बीच शिक्षा ही लकीर खींचती है। इसलिए शिक्षा ही सर्वोपरि धर्म है।
-ओम

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