17-Nov-2015 08:04 AM
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भगवान ने श्रीमुख से स्वयं कहा है कि गीता का पाठ करना और उस को सुनना सुनाना ज्ञान-यज्ञ है, उस से मैं पूजा जाता हूँ। पाठक को चाहिए के वह एक विश्वासी और श्रद्धावान यजमान बन कर बड़े गम्भीर भाव से इस यज्ञ को किया करे और

इसको परमेश्वर का पुन्यरूप परम पूजन ही समझे। इस भावना से गीता का ज्ञान, पाठक के ह्रदय में, आप ही आप प्रकाशित होने लग जाया करता है। श्रीमदभगवदगीता, हिन्दुओं के ज्ञाननिधि में एक महामुल्य चिंतामणि रत्न है, साहित्य-सागर में अमृत-कुम्भ है और विचारों के उधान में कल्पतरु है। सत्य पथ के प्रदर्शित करने के लिए, संसार भर में गीता एक अदवितीय और अद्भुत ज्योति-स्तम्भ है। श्रीमदभगवदगीता में सांख्य, पातान्जल और वेदांत का समन्वय है। इस में ज्ञान, कर्म और भक्ति कि अपूर्व एकता है, आशावाद का निराला निरूपण है, कर्तव्य कर्म का उच्चतर प्रोत्साहन है और भक्ति-भाव का सर्वोत्तम प्रकार से वर्णन है। श्रीमदभगवदगीता तो आत्म-ज्ञान की गंगा है। इस में पाप, दोष कि धूल को धो डालने के परम पावन उपाय बताये गए हैं। कर्म-धर्म का, बन्ध-मोक्ष का इस में बड़ा उत्तम निर्णय किया गया है। गीता, भगवान् के सारमय, रसीले गीत हैं जिन में उपनिषदों के भावों सहित, भक्ति-भाव भरपूर समाया हुवा है और वेद का मर्म भी आ गया है। श्रीमदभगवदगीता में नारायणी गीता का भी पूरा प्रतिबिम्ब विधमान हैं। इस का अपना मौलिकपन भी महामधुर और मनो-मोहक है। संक्षेप से कहा जाय तो यह सत्य है कि भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान के सागर को गीता-गागर में पूर्ण-रूप में भर दिया है। श्रीमदभगवदगीता में कर्मयोग की बड़ी महिमा है। कर्मों के फलों में आशा न लगा कर कर्तव्य-बुद्धि से कर्म करना कर्मयोग है। कर्तव्यों को करते हुए मोह में, ममता में तथा लालसा आदि में मग्न न हो जाना अनासक्ति है। अपने सारे कर्मों को, अपने ज्ञान-विज्ञान, तर्क-वितर्क और मतासहित, मन, वचन, काया से श्री भगवान की शरण में समर्पण कर देना, कर्तापन काया अभिमान न करना और अपने आप सहित कर्ममात्र को विधाता की भक्ति की वेदी पर बलि बना देना भक्तिमय कर्मयोग है; यही सच्चा संन्यास है। श्री कृष्ण के समय में लोग ज्ञान और संन्यास को मतरूप से मानते थे और कर्म की निंदा किया करते थे। इस लिए श्री महाराज ने कर्तव्य-पालन पर अधिक बल दिया है और कर्मत्याग का निषेध किया है।
श्री कृष्ण भगवान के श्रीमदभगवदगीता गीत बड़े सरल, अतिशय सुन्दर, बहुत ही बलाढ्य, अतीव सार-गर्भित और अत्यन्त उत्तम हैं। उन में सत्य का और तत्वज्ञान का निरुपण अत्युत्तम प्रकार से किया गया है। उन के श्रवण, पठन, मनन और निश्चय करने से मनुष्य का अंतरात्मा अवश्य्मेव जग जाता है, उस के चिदाकाश में सत्य के सूर्य का प्रकाश अवश्य ही चमक उठता है और उस का परम कल्याण होने में संदेह तक नहीं रह जाता। गीता के उपदेशामृत को भावना-सहित पान कर लेने से भगवदभक्त को परमेश्वर का परम धाम आप ही आप सुगमता से प्राप्त हो जाता है। श्रीमदभगवदगीता का यह माहात्म्य महत्वपूर्ण है कि इस को जीवन में बसाने से और कर्मो मे ले आने से मनुष्य का व्यक्ति-गत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन उन्नत हो कर उस का यह लोक सुधर जाता है और साथ ही आत्मा-परमात्मा का शुद्ध बोध हो जाने से उस की जन्म-बन्ध से मुक्ति भी हो जाती है। एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत शुरू होने से पहले योगिराज भगवान श्रीकृष्ण ने अ_ारह अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते हैं। चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता पड़ा। हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है। महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल जीवन का रहस्य उजागर किया। भगवान का विराट स्वरूप ज्ञान शक्ति और ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे ईश्वर की महिमा ही बताता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता है।
-ओम