17-Nov-2015 08:46 AM
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हंसल मेहता की फिल्म अलीगढ़ सिर्फ समलैंगिक रुझान के आरोप में बर्खास्त किए गए प्रोफेसर की मार्मिक कहानी ही नहीं कहती है, मुझे लगता है कि यह मौजूदा समय में एक ईमानदार फिल्म मेकर की मुश्किलों को भी बयान करेगी।

भारतीय समाज में रिश्तों पर या उनकी की जटिलता पर कोई सवाल करना या उठाना हमेशा से जोखिम भरा रहा है। अलीगढ़ उसी समाज में समलैंगिकता के विषय को बेहद यथार्थवादी और संवेदनशील तरीके से छूने की कोशिश करती है। हंसल का सफर शुरू वैसे भी मुश्किलों से भरा रहा है। वे एक सहज इनसान है और व्यक्तिगत प्रचार से दूर रहते हैं। बतौर फिल्म मेकर वे अपनी फिल्मों से कभी संतुष्ट नहीं रहे। ये क्या हो रहा है, छल, वुडस्टक विला जैसी कई फ्लाप और अटपटी फिल्में बनाने के बाद शाहिद से फिल्म निर्देशक हंसल मेहता एक नए रूप में सामने आए। शायद उन्हें अपना रास्ता और फिल्म बनाने की अपनी शैली मिल गई और उन्होंने सिटी लाइट्स में अपनी इस शैली को बरकार रखा। अलीगढ़ उसी शैली की फिल्मों के साथ एक त्रयी (ट्रिलॉजी) रचती है। मामी फिल्म महोत्सव में दिखाई गई यह फिल्म अपने विषय और प्रस्तुतिकरण में पिछली दो फिल्मों से ज्यादा साहसिक है। यह अलीगढ़ मुसलिम यूनीवर्सिटी से समलैंगिक रुझान के आरोप में बर्खास्त किए गए प्रोफेसर की वास्तविक कहानी कहती है। मनोज वाजपेई ने इस फिल्म में प्रोफेसर श्रीनिवास रामचंद्र शिराज का किरदार निभाया है, जो अकेला रहता है और लता मंगेशकर के पुराने फिल्मी गाने सुनता है। अलीगढ़ फिल्म जिस तरह से बनाई गई वह हंसल की ईमानदार फिल्म मेकिंग को ही बयान करती है। फिल्म का विषय फाइनल होते ही सबसे बड़ी चुनौती हंसल के सामने यह आई कि उन्हें अलीगढ़ में फिल्म को शूट करने की इजाजत नहीं मिली। हंसल ने हार नहीं मानी और सैकड़ों फोटोग्राफ्स देखने के बाद बरेली की लोकेशन चुनी। बरेली शहर की गलियां और बाजार अलीगढ़ से मिलते-जुलते थे और लाल ईंटों से बना बरेली कॉलेज का आर्किटेक्चर भी अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से मेल खाता था। फिल्म के लाइन प्रोड्यूसर डॉ. राजेश शर्मा ने हंसल की काम करने की शैली का जिक्र करते हुए बताया, हमें एक रिक्शे वाले का घर फिल्माना था। हम सचमुच एक रिक्शे वाले के घर गए थे। आपको पता है कि हंसल का ध्यान किस बात पर गया? उन्होंने उसके घर के दीवारों पर निशान देखे। जो छोटी जगह में लोगों के आने-जाने, उठने-बैठने से पड़ जाते हैं। उन्हें कहा- यह फिल्म में होना चाहिए। हंसल ने इस फिल्म की लाइटिंग और फ्रेम पर बहुत ध्यान दिया है। फिल्म को बरेली में बड़ी खामोशी से लगातार डेढ़ महीने तक शूट किया गया। कोतवाली और जिला अस्पताल जैसी वास्तविक लोकेशंस तलाशी गईं और उन्हें लाइटिंग व कैमरा एंगल की मदद से एक अलग एस्थेटिक ब्यूटी दी गई।
भारत में मामी महोत्सव के बाद यह फिल्म दुनिया कुछ और बड़े महोत्सवों में दिखाई जाएगी। मगर हंसल के लिए सबसे बड़ी दिक्कत इसके सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान सामने आएगी। पिछले कुछ समय से सेंसर बोर्ड का रुख सभी को नजर आ रहा है, जिसने एक फिल्म में लेस्बियन शब्द पर कट लगा दिया और 50 शेड्स आफ ग्रे का भारत में प्रदर्शन रोक दिया। चाहे वो हंसल मेहता हों या मनोज बाजपेई या राजकुमार राव- मैंने इन दिनों आए उनके इंटरव्यू पढ़े तो कहीं न कहीं यह अंदेशा तैरता दिखा है कि अलीगढ़ शायद कुछ नए विवादों को जन्म देगी। हालांकि हंसल का हौसला जैसे इन सभी अंदेशों को दूर फेंक देता है। वे आश्वस्त अंदाज में कहते हैं, यह मेरी अब तक की सबसे रोमांटिक फिल्म है- काव्यात्मक, और कोमल। बिना किसी लव स्टोरी के।