सीरिया लहूलुहान, महाशक्तियां असमंजस में
17-Oct-2015 08:41 AM 1234828

सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद सन् 2000 से राष्ट्रपति या कहें तानाशाह के रूप में सीरिया के तख्त से चिपके हुए हैं। यह तानाशाही उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली जिन्होंने इनसे पहले तीस साल तक सीरिया पर शासन किया। सीरिया और इंग्लैंड में अपनी चिकित्सक (मेडिकल डॉक्टर) की पढ़ाई पूरी करने वाले बशर ने जब सत्ता संभाली तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उम्मीद जागी थी कि सीरिया में राजनीतिक सुधार होंगे, पर वह विश्वास भ्रम ही साबित हुआ। मध्यपूर्व की क्रांतियों में जब एक के बाद एक तानाशाह धराशायी हुए तो सीरिया में भी विरोध की दबी चिंगारी ने आग पकड़ ली। मध्यपूर्व के राष्ट्रों ट्यूनीशिया, लीबिया, मिस्र और यमन की तरह ढाई साल पहले यहां भी जनता ने राष्ट्रपति बशर और उनकी सरकार के विरुद्ध जंग छेड़ दी। शुरू में उत्साहवर्धक सफलता मिली और कई इलाकों से सरकार समर्थित सेना को खदेड़कर विरोधी लड़ाकों ने अपना कब्जा स्थापित कर लिया। बशर शासन के अंत को सन्निकट जानकर विश्व समुदाय ने राहत की सांस ली। धीरे-धीरे विरोधी सेना के पास अस्त्र-शस्त्र कम पडऩे लगे तो उन्होंने विभिन्न देशों से सहायता की गुहार लगाई।
आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे यूरोपीय देशों और अमेरिका ने इस मसले पर अपनी दूरी बनाए रखना ही श्रेयस्कर समझा। आर्थिक कारणों के अलावा जो दूसरा बड़ा कारण था वह यह कि मध्यपूर्व के अन्य देश, जहां तानाशाहों को उखाड़ा गया वहां दो वर्ष पश्चात भी कोई वैकल्पिक सशक्त व्यवस्था उभरकर उन देशों को नेतृत्व नहीं दे सकी। सारे देश अराजकता के दौर से गुजर रहे हैं। दूसरी ओर रूस और चीन बशर को हटाने के विरोध में हैं। इन सब उलझनों के बीच गृहयुद्ध में फंसे सीरिया में एक नया मोड़ आया, जब आतंकवादी संगठन मुस्लिम ब्रदरहूड ने मौका देखकर अपनी शक्ति को सीरिया के इस गृहयुद्ध में झोंक दिया। तीसरा मोर्चा खुल गया। अब स्थिति यह है कि हर धड़ा दो मोर्चों पर लड़ रहा है। बशर को बहाना मिल गया और उन्होंने अपने इस रक्तपात को आतंकवाद के विरुद्ध जंग घोषित कर दिया। कहने को तो वे शुरू से इस लड़ाई को आतंकवाद के विरुद्ध बता रहे थे, पर विश्व समुदाय इसे कुछ तवज्जो नहीं दे रहा था। मुस्लिम ब्रदरहूड के घुस जाने से सारे समीकरण बदल गए। खाड़ी के देशों सहित कोई राष्ट्र मुस्लिम ब्रदरहूड को सत्ता में नहीं देखना चाहता, क्योंकि मिस्र में किए गए प्रयोग से पहले ही सबके हाथ जल चुके हैं। बशर ने बड़ी चतुराई से रासायनिक हथियारों के उपयोग का दोष भी बड़ी आसानी से आतंकी संगठन पर मढ़ दिया है। कभी-कभी अनिर्णय का परिणाम अधिक खतरनाक होता है, गलत निर्णय के परिणाम से। महाशक्तियों के अनिर्णय ने आज सीरिया को ऐसे तिराहे पर ला खड़ा किया है, जहां हर रास्ता आत्मदाह की ओर जाता है। महाशक्तियां न बशर को समर्थन दे सकती हैं और न मुस्लिम ब्रदरहूड को। गलत हाथों में पडऩे के डर से जनता को भी शस्त्र मुहैया नहीं करवाए जा सकते। इसको देखते हुए 30 सितंबर को रूस ने सीरिया पर पहला हवाई हमला किया था। ठीक एक दिन बाद चीन ने कहा कि किसी को भी सीरिया में मनमानी नहीं करनी चाहिए। हालांकि उस वक्त तक चीन ने सीरिया के मुद्दे पर अपनी नीति स्पष्ट नहीं की। चीन ने न तो हवाई हमलों का जिक्र किया और न ही बशर अल असद के भविष्य का। हालांकि कुछ विशेषज्ञ चीन पर यह आरोप भी लगाते हैं कि उसने बशर अल-असद के कार्यकाल में सीरिया को हथियार देने में उसने अहम भूमिका अदा की। जानकारों की राय है कि चीन की इस नीति में बदलाव भविष्य में रूस का समर्थन पाने के लिए हुआ है। इसके पीछे अमरीका और पश्चिमी देशों के उसके सहयोगियों को नीचे दिखाने की एक कोशिश भी हो सकती है। चीन को इसका भी डर है कि बशर अल-असद के बाद सीरिया अस्थिर होगा और यह चीन के व्यापारिक हितों पर असर डाल सकता है।
चीन के उलट भारत सीरिया संकट और व्यापक तौर पर पूरे मध्य-पूर्व को लेकर अपनी स्थिति को स्पष्ट रूप से सामने रखता रहा है। यह पूरा क्षेत्र भारत की सुरक्षा और ऊर्जा की जरूरतों से जुड़ा है। इसलिए भारत बशर अल-असद के समर्थन में खड़ा है। उसका मानना है कि सीरिया में युद्ध में शामिल सभी पक्षों के बीच बातचीत से मसले का समाधान निकाला जाए। लेकिन सीरिया पर रूस के हमलों ने भारत को संकट में डाल दिया है। भारत की नीति सीरिया में किसी भी तरह के बाहरी सैन्य हस्तक्षेप के खिलाफ है।
-विकास दुबे


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