भक्ति का भाव निष्काम
02-Oct-2015 07:28 AM 1235179

संसार में सुख और दुख जीवन के क्रम है। जिस तरह आंधी-तूफान, वर्षा और सूरज की तपिश का आकाश पर कोई असर नहीं होता, वैसे ही सुख और दुख हमें टीवी सीरियल की तरह लेना चाहिए। यह भगवान की व्यवस्था है। जब तक निस्वार्थ और निष्काम सेवा भाव के साथ हम भक्ति नहीं करेंगे, हमारे कर्मों का फल भी अनुकूल नहीं मिलेगा। अध्यात्म के अभाव को दूर कर हम इंद्रियों पर नियंत्रण रखना सीख लेंगे तभी हमारा सेवा-धर्म फलीभूत हो सकेगा। मानव के लिए सबसे बड़ा धर्म है निष्काम कर्म। जिसके जीवन में निष्कामता है, वही जीवन मुक्त है और उसी के वश में भगवान है। जो जीव निष्कामता से कर्म करता है, उसे फिर से इस दुनिया में नहीं आना पड़ता। जीव को अगर ईश्वर को प्राप्त करना है तो प्रत्येक जीव से निष्काम प्रेम करना सीखना पड़ेगा तभी उसे भगवान के दर्शन होंगे। जीव को जाति-पाति तेरा-मेरा भुलाकर प्रकृति और मनुष्य में परमात्मा का दर्शन करना चाहिए। जीव को भगवान से मिलने का सरल साधन है भक्ति। भक्ति के मार्ग में जीव को सबसे पहले दुखों का सामना करना पड़ता है जो उन दुखों से नहीं घबराते, उसे ही परम पद प्राप्त होता है जिसे अमरता कहते हैं।
निष्काम कर्म से तात्पर्य कामना-रहित कर्म से है। इस वर्ग में अनन्य भगवद् प्रेमी, अनन्य भगवद् सेवक एवं अनन्य भगवद् भक्त ही आते हैं । कुछ लोग या समाजसेवी भी ऐसे होते हैं जो निष्काम कर्म को ही करते और मानते हैं। निष्काम कर्म वाले का अपना नाम का कोई विषय वस्तु नहीं होता है जो कुछ भी होता है, सब परमप्रभु को समर्पित रहता है तथा परमप्रभु को ही सर्वतोभावेनÓ स्वीकार्य होता है। निष्काम-कर्म ही वास्तव में सेवाÓ है। सकाम कर्म तो नौकरी है, गुलामी है, दासता है, जब शरीर को प्रतिफल विहीन कर्म में लगाया जाता है तो उसमें किस प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है वह न तो कही जा सकती है और न लिखी ही। यदि दिल में किसी भी प्रकार की कामना उत्पन्न हो जाय तो जिससे कामना की उत्पत्ति होती है उसे ही त्याग देना चाहिये। हम यदि परमात्मा या भगवान् के समक्ष अपनी चाह रखेंगे तो हमारे चाह का भी एक स्तर होगा जिसको पूरा कर देना भगवान के लिये कोई बड़ी बात नहीं, परन्तु पूरा होने पर दूसरी चाह, तीसरी चाह रखते जायेंगे इससे तो सब तरह से अच्छा है कि हम बिना कुछ चाह के ही भगवान के प्रति अनन्य प्रेम, अनन्य सेवा एवं अनन्य भक्ति हेतु अपने को ही उत्कट श्रद्धा विश्वास एवं ईमान के साथ उन्हीं को समर्पित करके पूर्णत: दोष-रहित या निर्दोष जीवन-पद्धतिÓ का संकल्प लेकर उसी के अनुसार जीवन-यापन करें। हम एक उदाहरण से इसे
समझ सकते है। जैसे जिनके यहां संतान के रूप में लड़कियां पैदा होती है वह उसे पढ़ाते हैं लिखाते हैं बड़ा करते हैं, कोई भेदभाव नहीं करते है और फिर उसका विवाह करते हैं। विवाह के बाद उसका नाम, वंश कुल सब कुछ बदल जाता है फिर भी माता-पिता उसका पालन-पोषण करते हैं। बगैर किसी स्वार्थ के। इसे कहते हैं बगैर फल की इच्छा का निष्काम कर्म। वे उनका लालन-पालन बिना भेदभाव के करते हैं। जबकि उनको मालुम है कि लड़की की सेवा का सुख  उन्हें पूरे जीवनभर नहीं मिलना है। उनके इस निष्काम भाव से लड़की के लालन-पालन का असर यह होता है कि जब भी जरूरत पड़ती है लड़कियां आ खड़ी होती हैं। जबकि हम बड़ी अपेक्षा के साथ पुत्र का लालन-पालन करते हैं, लेकिन वह समय पर काम नहीं आता है।
निष्काम भक्ति भगवान को चाहती है और सकाम भक्ति भगवान से कुछ चाहती है ...पंचवटी में एक दिन जब लक्ष्मण जी कन्द मूल फल लेने के लिए वन में गए तब भगवान श्री राम जी सीता जी से बोले-
सुनहु प्रिया बरत रुचिरसुसीला.!
मै कछू करबि ललित नर लीला.!!
तुम्ह पावक महूँ करहु निवासा.!
जौ लगि करौ निसाचर नासा.!!
अर्थात-हे प्रिय! मै अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मै राक्षसों का नाश करूं तब तक तुम अग्नि में निवास करो। श्रीराम ने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही सीता जी प्रभु के चरणों को ह्रदय में धरकर अग्नि में समां गई सीता जी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहां रख दी जो उनके जैसे ही शील स्वभाव और रूपवाली और वैसे ही विनम्र थी। यहां एक बात बड़ी विचारणीय है,जब तक सीता जी थी तब तक कभी उन्होंने भगवान श्रीराम से कोई इच्छा नहीं की। पिता का वचन भगवान को निभाना था पर वे बिना कुछ कहे पति के पीछे हो ली। लक्ष्मण जी से भी कभी कुछ नहीं कहा। जानकी जी भक्ति का प्रतीक है, और जो जानकी अग्नि देव के साथ गई वे निष्काम भक्ति थी जिन्होंने भगवान से या अन्य किसी से, न कभी अपशब्द कहे, न कोई इच्छा व्यक्त की। जानकी जी के अग्नि में जाने के बाद अब जो जानकी थी वे सकाम भक्ति की प्रतीक है, निष्काम भक्ति भगवान को चाहती है और सकाम भक्ति भगवान से कुछ चाहती है , और सकामता कभी-कभी इतनी बड़ी हो जाती है कि क्या मांग रही है ये भी भूल जाती है। इसलिए सोने का हिरन देखते ही वही मांगने लगीं। और सकामता अर्थात इच्छा जब बढ़ती है तो लक्ष्मण जी जैसे संत के समझाने पर भी समझ में नहीं आता। उल्टा वे लक्ष्मणजी को ही अपशब्द कह देती है। इसलिए प्रभु भक्ति में सकाम भक्ति से ज्यादा निष्काम भक्ति करना श्रेष्ठ है, जैसे गोपियों ने की। उनकी भक्ति में प्रेम में सबकुछ था। कुछ नहीं था तो केवल सबसे बढ़ी बाधा कामना, इच्छा नहीं थी। हम मन को सुधार लेंगे तो वह हमें शबरी बना देगा और बिगाड़ लेंगे तो शूर्पणखा बना देगा। इसलिए अगर हम निष्काम भाव से भगवान की पूजा-आराधना करते हैं तो भगवत कृपा जरूर मिलेगी।
-ओम

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