16-Sep-2015 01:35 PM
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ईश्वर विश्वास पर ही मानव प्रगति का इतिहास टिका हुआ है। जब यह डगमगा जाता है तो व्यक्ति इधर- उधर हाथ पांव फेंकता विक्षुब्ध मन: स्थिति को प्राप्त होता दिखाई देता है। ईश्वर चेतना की वह

शक्ति है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर जो कुछ है, उस सब में संव्याप्त है। उसके अगणित क्रिया कलाप हैं जिनमें एक कार्य इस प्रकृति का विश्व व्यवस्था का संचालन भी है। संचालक होते हुए भी वह दिखाई नहीं देता क्योंकि वह सर्वव्यापी सर्वनियंत्रक है। इसी गुत्थी के कारण कि वह दिखाई क्यों नहीं देता, एक प्रश्न साधारण मानव के मन में उठता है- ईश्वर कौन है, कहां है, कैसा है? यह जानने के लिए हमें आध्यात्मिक होना पड़ेगा। अध्यात्म एक ऐसा चिंतन है जो हमें जीवन के परम अर्थ से अवगत करवाता है, अन्धकार निहित जीवन को प्रकाशित कर जीवन के वास्तविक ध्येय के दर्शन करवाता है, भटकी हुई आत्माओं के ध्येय की स्थापना कर उन्हें सही मार्ग पर अग्रसर करता है। यानी अध्यात्म व्यक्ति को पुरानी स्मृति, आज का शोध और भविष्य की योजनाओं के बारे में विचार करवाता है। आत्मा जब भौतिक परिधान (शरीर) का वरण करती है तब वह निश्छल व निष्पाप होती है, धीरे धीरे जब वह जीवन पथ पर आगे बढ़ती है तो असंख्य घटकों को मिला कर जीवन का निर्माण करती है, किन्तु सदैव मनुष्य का स्वामी मन घटकों का सही सांमजस्य न कर पाने के कारण मनुष्य को उसके वास्तविक पथ से भ्रष्ट, चिंताओं युक्त और चिंतन से मुक्त कर देता है। साथ ही बिगड़ जाता है तारतम्य, आत्मा से परमात्म का मंजिल से राही का। इस तारतम्य के बिगड़ जाने के परिणाम सदैव दुश्प्रभावाकारी होते हैं। युवा आज की भागदौड़ में भूल जाता है कि पहले क्या था, आज क्या है। आज क्या चल रहा है वह सोच नहीं पाता। वह केवल भविष्य की योजनाओं के बारे में आधे-अधूरे विचार करता रहता है। मकान, दुकान, आधुनिक परिधान, संसाधन की सोच में वह भूल जाता है कि वह क्या है? जीवन किस तरह जीना है। इस तारतम्य के टूटने पर जीवन का हाल बिलकुल वैसा हो जाता है जैसा रेड लाइट बंद होने पर चौराहों का होता है। कोई किसी को ठोंक देता है तो कोई किसी को। आधत्मिकता से दूर आधुनिकता की गोद में बैठा मनुष्य, छणिक आनंद एवं स्वार्थ का चिंतन करता है इसीलिए चिंता से मरता है। आज हमारा परिवेश आध्यात्मिकता से दूर हुआ है तो इसके परिणाम हमारे सामने है! आध्यात्मिकता से दूर हो जाने से मनुष्य सीधा कत्र्तव्यच्युत हो जाता है और कर्तव्यपरायण व्यक्ति सदैव आध्यात्मिक होता है। कहा भी गया है कर्म ही पूजा है। प्रयोगात्मक दृष्टि से देखें तो व्यक्ति व्यक्ति में आध्यात्मिकता की अलख जलाने से सम्पूर्ण समाज का कल्याण निश्चित है क्योंकि अगर प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने कत्र्तव्य का पालन करे तो समाज से सारी बुराइयां स्वत: ही दूर हो जाएंगी, न लोक स्वार्थी होगा न तंत्र। किन्तु क्या ऐसा संभव है, प्रकाश से तीव्र गति रखने वाले मन को संयत करना कोई आसान कार्य नहीं है। मन को संयमित रखने के लिए हमें रामायण, महाभारत, गीता और भागवत का अध्ययन करना जरूरी है। भागवत का शाब्दिक अर्थ भक्ति, ज्ञान, वैराज्ञ्य और त्याग है। इन चार शब्दों में ही पूरा जीवन समाया है। ईश्वर कैसा है व कौन है, यह जानने के लिए हमें उसे सबसे पहले आत्मविश्वास- सुदृढ़ आत्म- बल के रूप में अपने भीतर ही खोजना होगा। ईश्वर के संबंध में भ्रान्तियां भी कम नहीं हैं । बालबुद्धि के लोग कशाय कल्मषों को धोकर साधना के राज-मार्ग पर चलने को एक झंझट मानकर सस्ती पगडण्डी का मार्ग खोजते हैं।उन्हें वही शार्टकट पसन्द आता है। वे सोचते हैं कि दृष्टिकोण को घटिया बनाए रखकर भी थोड़ा बहुत पूजा उपचार करके ईश्वर को प्रसन्न भी किया जा सकता है व ईश्वर विश्वास का दिखावा भी। जबकि ऐसा नहीं है। उपासना, साधना, आराधना की त्रिविध राह पर चल कर ही ईश्वर दर्शन संभव है। यह इसलिए भी जरूरी है कि ईश्वर विश्वास यदि धरती पर नहीं होगा तो समाज में अनीति मूलक मान्यताओं, वर्जनाओं को लांघकर किये गए दुष्कर्म का ही बाहुल्य चारों ओर होगा, चारों ओर नरपशु, नरकीटकों का या Ó जिसकी लाठी उसकी भैंस काÓÓ शासन नजर आएगा। अपने कर्मों के प्रति व्यक्ति सजग रहे, इसीलिए ईश्वर विश्वास जरूरी है। कर्मों के फल को उसी को अर्पण कर उसी के निमित्त मनुष्य कार्य करता रहे, यही ईश्वर की इच्छा है जो गीताकार ने भी समझाई है।
प्रभु के प्रति अगाध श्रद्धा और अध्यात्म का संगम किसी व्यक्ति को कहां तक पहुंचा सकता है, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी शक्ति है, जो उसका जीवन बदल सकती है। बस मन और इच्छाशक्ति मजबूत होने चाहिए। महत्वपूर्ण कर्म है। अगर कर्म महान हैं तो व्यक्ति देवताओं से भी महान बन सकता है। वहीं अगर कर्म नीच हैं तो हो सकता है कि राक्षसों से भी निम्न श्रेणी प्राप्त हो। आज आधुनिकता की दौड़ में समाज इतना आगे निकल गया है कि वह सारी चीजें ऑनलाइन चाहता है। यहां तक की जीवन साथी की तलाश भी ऑनलाइन होने लगी है। एक-दूसरे का गुण-दोष जानने की कोशिश तक नहीं की जा रही है। ऐसे में घर, समाज, प्रदेश और देश में विघटन हो रहा है। आजकल मेरा ध्यान इस सवाल की ओर बार-बार जाता है कि आज से सौ-पचास वर्ष बाद भारत का रूप क्या होने वाला है। क्या वह ऐसा भारत होगा, जिसे कंबन, कबीर, अकबर, तुलसीदास, विवेकानंद और गांधी पहचान सकेंगे अथवा बदलकर वह पूरा-का-पूरा अमरीका और यूरोप बन जाऐगा? पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों से भारत आधुनिकता की ओर बढ़ता आ रहा है, लेकिन समझा यह जाता है कि भारत अब भी आधुनिक देश नहीं है, वह मध्यकालीनता से आच्छन्न है। स्वतंत्रता के बाद से आधुनिकता का प्रश्न अत्यंत प्रखर हो उठा है, क्योंकि चिंतक यह मानते हैं कि हमने अगर आधुनिकता का वरण शीघ्रता के साथ नहीं किया, तो हमारा भविष्य अंधकारपूर्ण हो जायेगा। अतएव यह प्रश्न विचारणीय है कि आधुनिक बनने पर भारत का कौन-सा रूप बचने वाला है और कौन बलिदान में जायेगा।
-ओम