23-May-2015 04:42 AM
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फिल्म पीकूÓ पिता-पुत्री के रिश्तों को आज के दौर के हिसाब से पेश करती है। इस कहानी में पिता को अपनी बेटी की शादी की चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि बुढ़ापे की समस्याओं से जूझने के दौरान उसको यही लगता है कि जब बेटी को पिता की जरूरत थी तो वह उसके लिए पूरी तरह खड़ा रहा और अब उसके जिंदा रहने तक बेटी को भी पिता का सारा ख्याल रखना चाहिए। यदि आप मसाला फिल्मों के शौकीन भी हैं तो भी इस फिल्म को देखकर आइए यकीनन आप निराश नहीं होंगे। निर्देशक शुजीत सरकार की यह बड़ी कामयाबी है कि ना सिर्फ उन्होंने कहानी को पटरी पर बनाए रखा बल्कि इसे रोचक बनाने में भी सफल रहे। फिल्म की कहानी पीकू और उसके पिता के इर्दगिर्द घूमती है। इसमें दिखाया गया है कि कब्ज से परेशान बुजुर्ग भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) अपने भावनात्मक उतार चढ़ाव से जूझता दिखता है। वह दिल्ली के चितरंजन पार्क के बंगाली एन्क्लेव में अपनी बेटी पीकू (दीपिका पादुकोण) के साथ रहते हैं। पिता और बेटी का यह रिश्ता कई बार तूफान खड़ा कर देता है। अपने घर के जुदा होने के गम में भास्कर दोबारा अपने घर जाना चाहते हैं, जहां उनका बचपन गुजरा था। ऐसे में दिल्ली से कोलकाता सड़क मार्ग से जाने के दौरान उन्हें कई मुश्किलों से दो चार होना पड़ता है। टैक्सी सर्विस का मालिक राणा चौधरी (इरफान खान) चिड़चिड़े बनर्जी की सनक से झुंझला उठता है, लेकिन कोई और विकल्प नहीं होने पर इन दोनों को खुद ही कोलकाता ले जाने का फैसला करता है और सफर के दौरान अपने तरीके से उनकी मर्ज का इलाज करता है। फिल्म की पटकथा शुजीत सरकार की ज्यादातर फिल्मों में पटकथा लेखन कर चुकीं जूही चतुर्वेदी ने लिखी है। जिन्होंने बड़ी ही खूबसूरती से दिल्ली में बसे एक बंगाली परिवार के सांस्कृतिक और भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाया है, जो कोलकाता से जुड़ी अपनी जड़ों से खुद को अलग नहीं कर पाते। दीपिका पादुकोण फिल्म का अहम हिस्सा हैं जो अभिनय के मामले में अमिताभ बच्चन और इरफान खान को टक्कर देती दिखती हैं।
कई मुश्किल दृश्यों को दीपिका ने बड़ी सहजता से निभाया।
अमिताभ बच्चन ने भी अपने किरदार को शानदार अभिनय से जीवंत कर दिया। इरफान खान, मौसमी चटर्जी और रघुबीर यादव का काम भी दर्शकों को पसंद आएगा। फिल्म का गीत-संगीत ठीकठाक है और उनका फिल्मांकन भी अच्छा हुआ है। निर्देशक शुजीत सरकार की यह फिल्म एक बार तो देखी ही जानी चाहिए।
गब्बर इज बैकÓ में वह बात नहीं
गब्बर इज बैकÓ का फिल्म शोले से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। यह तो करीब तेरह साल पहले बनी तमिल फिल्म रमानाÓ का हिन्दी रीमेक है। दक्षिण में कई सुपरहिट फिल्में दे चुके निर्देशक कृष की यह फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के प्रशंसकों को तो भाएगी लेकिन तर्कों की कसौटी पर कहानी निराश करती है। फिल्म भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए बनाई गई एक अंडरग्राउंड आर्मी की कहानी है जो अपने तरीके से भ्रष्ट लोगों को सबक भी सिखाती है और सजा भी देती है ताकि आगे कोई भ्रष्टाचार करने से पहले अंजाम की सोच ले।
फिल्म की कहानी आदित्य सिंह राजपूत (अक्षय कुमार) के इर्दगिर्द घूमती है जोकि अपनी पत्नी (करीना कपूर खान) के साथ खुशहाल जिंदगी गुजार रहा होता है कि अचानक कुछ ऐसा होता है कि उसका सब कुछ बिखर जाता है और जब उसे प्रशासन से कोई मदद नहीं मिलती तो वह अन्य लोगों की मदद करने के लिए एक ऐसी टीम बनाता है जोकि भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने में जुट जाती है। गब्बर नाम की इस सेना के निशाने पर वह सरकारी विभाग खासतौर पर हैं जिनसे आम आदमी का सीधा वास्ता पड़ता है। यह सेना भ्रष्टाचार करने वालों का अपहरण कर उन्हें अपने कानून के मुताबिक सजा भी देती है। इससे भ्रष्ट अफसरों और नेताओं के बीच डर का वातावरण बन जाता है। जब गब्बर सेना को पता चलता है कि वह जिन लोगों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं वह तो छोटी मछलियां हैं इसके बाद यह लोग बड़े लोगों की गिरेबां तक पहुंचते हैं और उन्हें भी सबक सिखाते हैं।
लेकिन यहां नायक गब्बर दर्शकों के मन में वैसी सिरहन पैदा नहीं करता जैसा शोलेÓ का खलनायक करता था। शोलेÓ को तो भूल जाइये, यह फिल्म इसी श्रेणी की दबंगÓ और सिंघमÓ की कतार में भी कहीं नहीं ठहरती। फिल्म में एक्शन दृश्य हैं लेकिन वे फिल्म को मजेदार नहीं बना पाते। खलनायक के नाम वाली इस फिल्म में एक खलनायक भी है जिसके किरदार को निभाया है तमिल तेलगू फिल्मों के अभिनेता सुमन तलवार ने। वह एक रियल एस्टेट क्षेत्र में प्रभाव रखता है और नौकरशाही को अपने इशारों पर नचाता है। फिल्म में कलाकारों का अभिनय सामान्य ही है। फिल्म में भटकाव बहुत ज्यादा है ओर एक साथ कई मुद्दों को कहने की कोशिश की गई है। कुल मिलाकर कहें तो गब्बर इज बैकÓ अक्षय कुमार के पक्के प्रशंसकों के लिए है। फिल्म का गीत-संगीत ठीकठाक बन पड़ा है।