मौके पर लापता राहुल
04-Apr-2015 03:02 PM 1234775

सद का बजट-सत्र समाप्ति की ओर है। कई अहम विधेयक पारित हो चुके हैं और कई कतार में हैं, लेकिन कांग्रेस के पार्टी प्रेसिडेंट इन वेटिंगÓ राहुल गांधी ने अपनी छुट्टियां दो सप्ताह और बढ़ा ली है। इसका अर्थ यह है कि वे सोनिया गांधी की किसान रैली में ही शामिल होंगे। राहुल की इस पलायन प्रवृत्ति का क्या अर्थ लगाया जाए? मीडिया में तो इसकी चर्चा हो ही रही है लेकिन राहुल बेखबर हैं। ऐसा नहीं है कि वे सक्र्रिय न हों।  पर्दे के पीछे से सक्रियता दिखाने का क्या अर्थ है, यह कांग्रेस के बड़े नेता भी समझने में असमर्थ हैं। हालांकि उन्होंने ब्लॉक लेवल से लेकर कांगे्रस वर्किंग कमेटी तक चुनाव कराने का अपना वादा पूरा कर दिखाया है। चुनावों की घोषणा हो चुकी है और यह प्रक्रिया 2 माह चलेगी।
पार्टी को सुधारने में जुटे राहुल नाजुक मौकों पर ही गैरहाजिर क्यों रहते हैं? यह एक बड़ा सवाल है। केंद्रीय बजट से लेकर भूमि अधिग्रहण कानून के समय राहुल गांधी का संसद में रहना बहुत आवश्यक था। जरूरत के वक्त राहुल पहले भी नदारत रहे हैं। 28 दिसंबर 1914 को कांग्रेस की स्थापना के 130 वर्ष मनाए जाने के मौके पर पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी  नहीं पहुंचे। सोनिया गांधी ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की और बाकी नेताओं ने राहुल की गैरमाजूदगी पर हमेशा की तरह चुप्पी साध ली। राहुल से सवाल पूछने का साहस भला किसमें है। 15 मई 2014 को मनमोहन सिंह के विदाई समारोह में भी सोनिया गांधी के आवास पर राहुल गांधी नहीं पहुंचे थे, उस समय बहुत से नेताओं ने ऑफ द रिकॉर्ड राहुल की जमकर आलोचना भी की थी लेकिन खुलकर कुछ नहीं कहा। उत्तराखंड की बाढ़ के समय जून 2013 में तो राहुल गांधी विदेश में छुट्टी मना रहे थे। उस वक्त उत्तराखंड और केंद्र में भी कांगे्रस की ही सरकार थी। राहुल को उस आपदा के समय आना था। बलात्कार विरोधी विधेयक जब लोकसभा में पारित हुआ, तो 19 मार्च 2013 को राहुल गांधी सदन में ही नहीं पहुंचे। लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद भी राहुल गुमनामी में चले गए थे। मीडिया के सवालों से वे हमेशा बचते रहे हैं। एक टीवी चैनल के एंकर ने राहुल को पानी पीने पर मजबूर कर दिया था। राहुल आत्मविश्वास से जवाब नहीं दे पाए। उनके इस स्वभाव को कांग्रेस के नेता पचा नहीं पा रहे हैं।
खुलकर भले ही कोई कुछ न बोले लेकिन  इशारों ही इशारों में सभी बड़े नेता राहुल के इस अजीब स्वभाव के प्रति एक नहीं कई बार नाराजगी जता चुके हैं। इस बार इतनी लंबी छुट्टी ने कार्यकर्ताओं को भी मायूस किया है। उत्तरप्रदेश में तो कई जगहों पर उनके लापता होने और खोजकर लाने वाले को इनाम की घोषणा करते पोस्टर लगाए गए हैं। उनके अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी में लगे पोस्टरों पर शीर्षक दिया गया है, नेताविहीन अमेठीÓ, और इसके बाद एक फिल्मी गीत की पंक्तियां भी लिखी गई हैं - जाने वो कौन-सा देश, जहां तुम चले गए... न चि_ी न संदेश, कहां तुम चले गए...Ó इस पोस्टर में खराब सड़कों, बदतर स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा क्षेत्र और किसानों की दिक्कतों समेत अमेठी की कई समस्याओं का जिक्र करते हुए कहा गया है कि कांग्रेस पार्टी के सांसद के बारे में कोई भी सूचना देने वाले को इनाम दिया जाएगा। पोस्टर के नीचे अमेठी की जनताÓ का हवाला दिया गया है। राहुल गांधी को गुमशुदाÓ और लापताÓ बताने वाले पोस्टर बुलंदशहर और इलाहाबाद में भी लगाए गए हैं। इनमें भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी का पता बताने वाले को इनाम देने की घोषणा की गई है।
इलाहाबाद में कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा प्रायोजित कुछ ऐसे पोस्टर भी देखे गए थे, जिनमें मांग की गई थी कि चूंकि राहुल गांधी छुट्टियों पर हैं, इसलिए उनकी बहन प्रियंका वाड्रा को पार्टी अध्यक्ष बना दिया जाना चाहिए। राहुल की छुट्टियों को लेकर वैसे भी कांग्रेस बचाव की मुद्रा में ही दिखाई देती रही है। वरिष्ठ पार्टी नेताओं के मुताबिक राहुल विदेश में हैं, लेकिन यह जानकारी नहीं दी गई है कि वह किस देश में हैं। राहुल ने आत्ममंथनÓ के लिए छुट्टी की दरख्वास्त की थी। अब तक दो बार पार्टी के नेताओं ने राहुल के छुट्टियों से लौटने की घोषणा की है, लेकिन दोनों बार बाद में जानकारी दी गई कि छुट्टियां बढ़ा दी गई हैं।
राहुल ने आत्ममंथन के लिए जो समय चुना है उसमें कोई खराबी नहीं है। संंसद में वे वैसे भी कभी-कभार ही बोलते हैं। हाल-फिलहाल कोई चुनाव भी नहीं है। जब राहुल महाराष्ट्र चुनाव के समय अपनी बहन के परिवार के साथ छुट्टियां मनाने यूरोप जा सकते हैं, तो अभी जाने में क्या नया है? फर्क केवल इतना है कि महत्वपूर्ण अवसरों पर उनकी गैरमाजूदगी कहीं न कहीं यह संकेत देती है कि राहुल गांधी एक अनिच्छुकÓ राजनेता हैं। जब वे पूरे मन से राजनीति में नहीं हैं तो अपना समय बर्बाद क्यों कर रहे हैं? एक दौर था जब भट्टापारसौल से लेकर गरीबों के घर रात्रि विश्राम तक राहुल गांधी ने अलग तरह की राजनीति प्रारंभ की थी। वे सही ट्रैक पर जा भी रहे थे। कांग्रेस को लगातार मिलती पराजय से वे असहज अवश्य थे लेकिन कहीं न कहीं उन्हें पता था कि इन पराजय का मूल कारण समय के साथ कांग्रेस का तालमेल न हो पाना है। कांग्रेस अपने आप को बदल नहीं पाई है।
राहुल गांधी कांग्रेस को तब बदलना चाहते थे। पार्टी के दिग्गजों ने इस बदलाव को हवा में उड़ा दिया। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल ने पार्टी में एक बार फिर आमूलचूल परिवर्तन करने की कोशिश की। कुछ प्रदेशों में युवाओं को भी कमान सौंपी लेकिन नतीजा सिफर रहा। कई राज्यों में कांग्रेस हारती चली गई। अब सिमटकर छोटे-मोटे राज्यों में रह गई है। कर्नाटक छोड़ किसी अन्य राज्य में कांग्रेस की मौजूदगी न के बराबर ही है। दिल्ली में तो वह तीसरे स्थान पर खिसक गई। इसीलिए राहुल गांधी की लगातार सक्रियता और मौजूदगी परमावश्यक  है, पर राहुल गांधी खुद सक्रिय होना चाहते हैं या नहीं, यह एक अहम सवाल है। यदि सक्रिय होना भी चाहते हैं तो उनकी शर्त क्या है? राहुल की लंबी छुट्टी को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है।
सूत्र बताते हैं कि मई माह में राहुल गांधी कांग्रेस की कमान संभाल लेंगे, लेकिन अपनी शर्तों पर। क्या वे कांगे्रस के पुराने नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने वाले हैं? जिस तरह मोदी ने 75 पार के  नेताओं को भाजपा में किनारे कर दिया, उसी तरह राहुल भी नई टीम में युवा चेहरों को मौका देंगे। कई अहम सवाल हैं, जिनका जवाब शायद आने वाले समय में न मिल पाए क्योंकि जिस तरह का माहौल कांगे्रस में चल रहा है उसे देखते हुए आने वाला परिदृश्य दिन-ब-दिन डरावना दिखने लगा है। कांग्रेस का भविष्य अधर में है। उसके नेताओं में गहरा अवसाद और निराशा है। राज्य इकाईयां भी ठंडी पड़ी हुई हैं। राजनीति जिस ढर्रे पर अब तक चलती आई थी, उस ढर्रे पर अब नहीं चल सकेगी।
कांग्रेस को शीघ्र ही कोई बड़ा बदलाव करना पड़ेगा। लेकिन इसके लिए राहुल कितने तैयार हैं, यह जानना जरूरी है। कांग्रेसी निराश हैं और उनकी निराशा का सबब यह भी है कि गांधी परिवार के सदस्यों को छोड़कर किसी को भी यह नहीं पता है कि राहुल गांधी कहां हैं और वे कब तक लौट आएंगे। जब राहुल छुट्टी पर गए थे तब कहा गया था कि वे 5 मार्च तक लौट आएंगे। लेकिन 5 मार्च को बीते दो हफ्ते हो गए और राहुल का कोई अता-पता नहीं है। यह भी बताया गया था कि राहुल 16 मार्च को जंतर-मंतर पर भूमि-अधिग्रहण के खिलाफ प्रदर्शन और 17 मार्च को पार्टी के मार्च तक लौट आएंगे, लेकिन ये दोनों घटनाएं भी घट गईं और राहुल नहीं आए। राहुल की लंबी गैरमौजूदगी से इन अटकलों को बल मिलने लगा है कि पार्टी में पुराने लोगों (ओल्ड गार्ड) की भूमिका को लेकर मां-बेटे के बीच गंभीर मतभेद हैं और राहुल गांधी ने मन बना लिया है कि वे तब तक नहीं लौटेंगे, जब तक सोनिया उनकी बात मान नहीं लेतीं।
यह भी बताया जा रहा है कि राहुल, जो कि पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्रÓ के हिमायती हैं, यह नहीं चाहते कि उन्हें पार्टी अध्यक्ष मनोनीतÓ किया जाए, बल्कि वे यह चाहते हैं कि उन्हें पार्टी अध्यक्ष के रूप में निर्वाचितÓ किया जाए। इसके लिए वे इस साल के अंत तक का इंतजार करने के लिए भी तैयार हैं। राहुल ने ही युवा कांग्रेस में चुनावी प्रक्रिया का समावेश किया था और वे यह भी चाहते हैं कि कांग्रेस कार्यसमिति, जो कि एक लंबे समय से महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लेने वाली पार्टी की शीर्ष संस्था है, में भी चुनाव कराए जाएं। पार्टी के पुराने नेताओं की जिद के चलते राहुल का यह प्रस्ताव माना नहीं जा रहा है।
ऐसे में अप्रैल में होने वाला अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का बहुप्रतीक्षित अधिवेशन सितंबर-अक्टूबर तक टल सकता है। वर्ष 2010 में सोनिया गांधी पांच वर्षों के लिए पार्टी की अध्यक्ष चुनी गई थीं और यदि वे अपने बेटे को अध्यक्ष बनाने के लिए फिर से चुनाव नहीं लडऩे का फैसला लेती हैं तो उन्हें वर्ष के अंत तक अध्यक्ष की कुर्सी खाली करनी होगी। पार्टी में पीसीसी स्तर पर संगठनात्मक चुनाव जारी हैं और वे जुलाई तक ही पूरे हो पाएंगे। ऐसे में साल के अंत तक पीसीसी और एआईसीसी के प्रतिनिधिगण पार्टी अध्यक्ष का चुनाव कर सकेंगे। पार्टी के संगठनात्मक विकास के लिए इसके संविधान में भी बदलाव किए जा सकते हैं। मसलन, प्राथमिक और सक्रिय सदस्यों के नामांकन की प्रक्रिया को पुन: बहाल करना। कांग्रेस में वर्ष 2010 तक यह व्यवस्था थी कि 25 नए सदस्यों का नामांकन कराने वाला व्यक्ति सक्रिय सदस्य बन सकता है। इस प्रावधान को समाप्त करने के बाद से पार्टी में नए सदस्यों को जोडऩे के कार्यकर्ताओं के उत्साह में कमी आई है। यह भी किया जा सकता है कि पार्टी के किसी भी विंग के सदस्य को स्वत: कांग्रेस का सदस्य माना जाए। मसलन, यदि कोई युवा कांग्रेस का सदस्य है तो वह स्वत: कांग्रेस पार्टी का भी सदस्य होगा। राहुल गांधी यह भी चाहते हैं कि पार्टी अध्यक्ष के कार्यकाल को पांच वर्ष से घटाकर तीन वर्ष का कर दिया जाए। मजे की बात यह है कि पहले यह तीन वर्ष का ही था और वर्ष 2010 में राहुल के आग्रह पर ही इसे बढ़ाकर पांच वर्ष किया गया था।
-ऋतेन्द्र माथुर

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