यूपी में भाजपा का नया पंैतरा
02-Jan-2015 06:32 AM 1234787

उत्तरप्रदेश में नाथूराम गोडसे का कथित मंदिर भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने पर जो दुविधा समाजवादी पार्टी की है वही नाथूराम गोडसे पर भाजपा की है। भाजपा के एक सांसद नाथूराम गोडसे के प्रति सहानुभूति प्रकट करके आलाकमान की नाराजगी मोल ले चुके हैं। अब साध्वी निरंजन ज्योति से लेकर साक्षी महाराज तक बयानबाजी का खामियाजा भुगत रही भाजपा यूपी में नए मुद्दों की तलाश में है।

उत्तरप्रदेश में जब किसी ने नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करने की कोशिश की तो नरेंद्र मोदी ने सख्त रूख अपनाया, लेकिन अब सुनने में आया है कि मोदी की नाराजगी को दरकिनार कर कुछ लोग नाथूराम गोडसे का मंदिर बनवाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे भाजपा के उस अभियान को धक्का पहुंच सकता है जिसके तहत वह दलितों को अपना वोट बैंक बनाने की मुहिम में जुटी हुई है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिन्दुओं के एकीकरण की कोशिश कर रहा है। उधर भाजपा दलित-सवर्ण को एक छत्र लाना चाहती है।
उत्तरप्रदेश और बिहार के दलित और महादलित यदि हिंदुत्व चेतना से ओतप्रोत हो जाएं तो सोने मेंं सुहागा हो सकता है। भाजपा के रणनीतिकार इस तथ्य को भलिभांति जानते हैं। इसीलिए उनकी बदस्तूर कोशिश है कि दलितों और महादलितों में हिंदुत्व का गौरव पैदा किया जाए, ताकि वे आपस में बंटे बगैर भाजपा को अपना भाग्य विधाता मान लें। हिंदुओं के विभाजन से भाजपा कमजोर होती है, यह बात कल्याण सिंह के समय ही भाजपा को समझ में आ गई थी। अब भाजपा हिंदुओं के एकीकरण के अलावा उत्तरप्रदेश में एक दलित चेहरा तलाशने की कोशिश भी कर रही है। इसके लिए कई ऐसे संतों को भी आगे लाया जा रहा है जिनकी पृष्ठभूमि दलित है। इस हेतु उसने कई रणनीतियां अपनाई हैं। पहली रणनीति उनकी हिन्दू पहचान को उभारने की है और उन्हें बड़े हिन्दू समूह का हिस्सा बनाने की है।
उत्तरप्रदेश चुनाव के बाद हिन्दू-मुस्लिम टकराव की घटनाओं में से लगभग 70 घटनाएं दलित मुस्लिम टकराव की थीं। इन में मुख्य मुरादाबाद जिले के कांठ गांव की लाउड स्पीकर वाली घटना, सहारनपुर में सिख-मुस्लिम फसाद की घटना थी, जिस में हिन्दुओं की तरफ से सब से अधिक दलित ही गिरफ्तार हुए थे तथा अन्य दलित लड़की और मुस्लिम लड़का या मुस्लिम लड़की और दलित लड़का वाली घटनाएं शामिल हैं। इस प्रकार कम से कम उत्तरप्रदेश में तो भाजपा ने हिन्दू मुस्लिम फसाद के मामलों में दलितों को हिन्दू पक्ष का एक प्रमुख हिस्सा बना लिया है। इससे पहले भी भाजपा बाल्मीकियों, खटिकों और जाटवों का हिन्दू-मुस्लिम फसाद में इस्तेमाल करती रही है। भाजपा ने दलितों को आकर्षित करने के लिए दूसरा हथियार उनके ब्राह्मणीकरण का अपनाया है। इसके द्वारा उस ने उन दलित उपजातियों में अपनी घुसपैठ बढ़ाई है जो अभी भी कट्टर हिन्दू हैं और दलितों की बड़ी उपजातियों के विरोध में रहती हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में चमार/जाटव दलितों की सब से बड़ी उपजाति है और पासी, बाल्मीकि, धोबी और खटिक छोटी उपजातियां हैं।
परम्परा से यह छोटी उपजातियां चमार/जाटव उपजाति से प्रतिस्पर्धा और प्रतिरोध में रही हैं। इसीलिए ये उपजातियां राजनैतिक तौर पर भी इस बड़ी उपजाति से प्रतिस्पर्धा में रही हैं। बसपा का सब से बड़ा आधार चमार/जाटव उपजाति रही है और यह छोटी उपजातियां बसपा के साथ थोड़ी हद तक ही जुड़ी थीं। यह उपजातियां बसपा से प्रतिक्रिया में भाजपा अथवा समाजवादी पार्टी के साथ रही हैं। दलितों के सामाजिक विभाजन का असर उन के राजनैतिक जुड़ाव पर भी दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश में पिछले विधान सभा चुनाव में यह उप जातियां सपा की तरफ गई थीं और मायावती से रुष्ट हो कर चमार/जाटव वोटर भी सपा की तरफ गए थे।

पूर्व में कांग्रेस और भाजपा भी इन जातियों को सीमित सीमा में अपनी पार्टी में समाहित करने में सफल रही हैं। ये उप जातियां बसपा की जगह दूसरी पार्टियों में अपना स्थान ढूंढ़ती रही हैं और इधर बसपा से लगभग अलगाव में चली गई हैं, जिसका खामियाजा मायावती को 2012 और 2014 के चुनाव में भुगतना पड़ा। यही स्थिति रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के समय में थी। देश के दूसरे राज्यों में भी इसी प्रकार का सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है। महाराष्ट्र में महार दलितों की सब से बड़ी उपजाति है और चम्भार और ढेड छोटी उपजातियां हैं। वहां पर उसी प्रकार का सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है। दलितों के इस राजनैतिक और सामाजिक बंटवारे का कारण राजनैतिक आरक्षण भी है। वर्तमान संयुक्त मताधिकार प्रणाली के अंतर्गत आरक्षित सीटों पर वही दलित जीत पाता है जो सवर्ण जातियों का वोट प्राप्त कर सकता है। चूंकि सवर्ण वोट राजनैतिक पार्टियों के पास रहता है अत: वे जिस को चाहते हैं वह ही जीत पाता है। यह व्यवस्था दलित पार्टियों की सब से बड़ी कमजोरी है।  भाजपा ने भी इस चुनाव में इसी व्यवस्था का लाभ फायदा उठाया है और सब से अधिक आरक्षित सीटें जीती हैं और आगे भी काफी आशान्वित है।
दरअसल दलितों में शुरू से ही दो प्रकार की सांस्कृतिक विचारधारा पनपती रही हैं। एक हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद के खिलाफ और दूसरी उसकी पक्षधर/पुराने समय में भक्ति आन्दोलन और वर्तमान में अम्बेडकरवाद के प्रभाव में कुछ उपजातियां भक्ति आन्दोलन के प्रभाव में ब्राह्मणवाद के विरोध में खड़ी हुई थीं और कुछ उपजातियां हिन्दू धर्म के दायरे में ही रहीं। पंजाब में आदि-धर्म आन्दोलन, उत्तरप्रदेश में आदि-हिन्दू आन्दोलन, आंध्र में आदि-आंध्र, तमिलनाडु में आदि-द्रविड़ आन्दोलन और बंगाल में नमोशूद्र आन्दोलन इसके प्रमुख आन्दोलन रहे हैं। बीसवीं सदी में डॉ. अंबेडकर के प्रभाव में हिन्दू धर्म के खिलाफ एक देश व्यापी आन्दोलन चला जिस की परिणति 1956 में हिन्दू धर्म का त्याग और बौद्ध धम्म का स्वीकार है। एक तरफ हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म ग्रहण करने वालों की संख्या में बहुत बड़ी वृद्धि हो रही है वहीं दूसरी ओर दलितों की छोटी उपजातियों का ब्राह्मणीकरण हो रहा है।
हाल में आर.एस.एस. ने दलितों की छोटी हिन्दू उप-जातियों को पटाने के लिए तीन पुस्तकों का विमोचन किया है, जिसमें कहा गया है कि खटिक, बाल्मीकि और चमार पूर्व में क्षत्रिय जातियां थीं परन्तु मुसलमानों ने उन्हें अपना गुलाम बनाकर प्रताडि़त किया और नीच बना दिया और भाजपा उन्हें फिर से क्षत्रिय बनाकर सम्मान दे रही है। इससे कुछ दलित उपजातियों के भाजपा के जाल में फंसने की पूरी सम्भावना है क्योंकि एक तो वे अभी तक हिन्दू बनी हुई हैं और दूसरे वे बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया में रहती हैं। इसके अलावा वर्तमान चुनाव प्रक्रिया से भाजपा उन्हें आरक्षित सीटें जितवाकर राजनैतिक लाभ भी पहुंचाने की स्थिति में है। इस हालत के लिए दलितों की राजनैतिक पार्टियां भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं जिन्होंने इन उपजातियों को उचित प्रतिनिधित्व न देकर भाजपा को उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने का अवसर दिया है, जिससे हिंदुत्व मजबूत हुआ है। हिंदुत्व की मजबूती ही भाजपा का आधार है। भाजपा को समर्थन करने वाले सारे संगठन सारे देश में हिंदुत्व को मजबूत करने में जुटे हुए हैं। अब सभी वर्गों से पुरोहित और पंडित बनाए जा रहे हैं, छुआछूत और जात-पात को भी अलविदा करने की तैयारी की जा रही है। इसका फायदा निश्चित रूप से हिंदू एकीकरण को मिलेगा।

  • लखनऊ से मधु आलोक निगम
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