विधानसभा के बजट सत्र के दौरान प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण में प्रदेश के हालात की झलक देखने को मिलती है। सर्वेक्षण के अनुसार प्रदेश में कमाई से ज्यादा खर्च हो रहा है। इस कारण प्रदेश सरकार पर लगातार कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। उधर, सरकार को विकास योजनाओं के लिए हर माह लगभग 1 हजार करोड़ रुपए का कर्ज लेना पड़ रहा है।
जिस तरह घर को चलाने के लिए बजट की जरूरत होती है, उसी तरह सूबे या मुल्क की गाड़ी बेफिक्री से चलाने के लिए सरकार के खजाने में दौलत होनी चाहिए। लेकिन मप्र का राजकोष खाली है। कमाई से ज्यादा खर्च है, राज्य का इस साल का जितना बजट है, उससे ज्यादा कर्ज है, आय से ज्यादा कर्ज पर ब्याज का बोझ है। ऐसे में सबके जेहन में एक ही सवाल है कि 'कर्ज पर निर्भर मप्रÓ कैसे 'आत्मनिर्भर मप्रÓ बनेगा? यही इन दिनों चिंता का सबसे बड़ा सबब है। बता दें कि मप्र पर कर्ज का बोझ बढ़कर इस वित्तीय वर्ष में 2.52 लाख करोड़ से भी ऊपर जा पहुंचेगा, अभी यह कर्ज 2.31 लाख करोड़ है, जबकि साल 2021-22 का कुल बजट ही 2.41 करोड़ 375 करोड़ है, जबकि उसमें करीब 50,938 करोड़ का राजकोषीय घाटा दिखाया गया है। पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस की महंगाई की मार से कराह रही जनता को राहत तो दूर की कौड़ी रही, क्योंकि इसकी झलक तो बीते दिनों बजट के पेश होने के एक दिन पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण में दिख गई थी, जिसने राज्य की कंगाली की तस्वीर को सामने लाकर रख दिया था।
बजट से एक दिन पहले पेश राज्य के आर्थिक सर्वे में बताया गया था कि कोरोनाकाल में प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय 1 लाख 3 हजार 288 रुपए से घटकर सालाना 98 हजार 418 रुपए रह गई है यानी प्रति व्यक्ति की औसत आमदनी 4 हजार 870 रुपए घटी है। 2020 की स्थिति में रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 30 लाख के करीब हो गई है। 10 लाख से ज्यादा छोटे, मझोले उद्योग-धंधे बंद हो गए। यह आंकड़ा तो एक साल पुराना है, जबकि कोरोनाकाल ने कितने लाख उद्योग-धंधों पर ताला डलवाया है, ये इस गिनती में शामिल नहीं है। राज्य की जीडीपी में 3.37 फीसदी और विकास दर में 3.9 फीसदी गिरावट की बात क्या करें, क्योंकि यह तकनीकी भाषा और गुणा-भाग आमआदमी नहीं समझता। सरकार की माली हालत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है, कि वह किसानों की फसल बीमा के करीब 180 करोड़ का भुगतान नहीं कर सकी है। हर महीने वेतन, पेंशन, ब्याज चुकाने के लिए सरकार को कर्ज लेना पड़ रहा है।
जब हम गले-गले कर्ज में डूबे हों, तो विकास योजनाएं कैसे चलेंगी, कैसे मप्र आत्मनिर्भर बनेगा, यह एक बड़ा सवाल है। यह सवाल इसलिए है कि राज्य की आमदनी 76,656 करोड़ है, लेकिन वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने के लिए सरकार को 85,499 करोड़ की जरूरत है। यानी इन कामों के लिए ही सरकार को कुल आय से 8 हजार करोड़ से ज्यादा की रकम जुटानी होगी। खनिज हो या आबकारी, अधिकांश विभागों से मिलने वाले राजस्व में कमी आई है, सरकार को अकेले बिजली कंपनियों का 34 हजार करोड़ का कर्ज चुकाना है, जो वह नहीं दे रही है और बिजली कंपनियां अपनी कंगाली, खस्ताहाली को दूर करने के लिए आमआदमी के लिए बिजली के दाम बढ़ाने की तैयारी कर रही है। मतलब साफ है कि महंगाई की आग में आम जनता को झुलसना है। अगर सरकार को गांव, गरीब, किसान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगार, उद्योग सहित कोई भी योजना संचालित करना या कोई काम करना है, तो उसके लिए उसे केंद्र सरकार पर निर्भर रहना होगा, या बाजार से कर्ज लेना पड़ेगा। मप्र राज्य विधानसभा में बजट पर पिछले दो दिन से चर्चा हो रही है, सरकार तो अपनी सक्षमता को लेकर तमाम दलीलें पेश कर रही हैं, लेकिन विपक्ष के सवालों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सब एक ही सवाल कर रहे हैं कि कर्ज पर निर्भर मप्र आत्मनिर्भर मप्र में कैसे तब्दील होगा। मसलन कांग्रेस के युवा नेता जयवर्धन सिंह ने बजट पर चर्चा में कहा कि सरकार को बजट घोषणाओं पर काम करने के लिए नए वित्तीय वर्ष में 50 हजार करोड़ का और कर्ज लेना पड़ेगा। इससे तो बजट से ज्यादा सरकार पर कुल कर्ज हो जाएगा। साफ है कि सरकार आत्मनिर्भर मप्र नहीं, बल्कि कर्ज निर्भर मप्र बना रही है। किसान कर्जमाफी की रकम भी पिछले बजट में रखी गई 8 हजार करोड़ से घटाकर मात्र 3 हजार करोड़ कर दी गई है। पूर्व वित्तमंत्री तरूण भानोट ने कहा कि केंद्र ने राज्यांश में 12 हजार करोड़ घटा दिए, लेकिन शिवराज सरकार कर्ज लिमिट बढ़ाए जाने से खुश है। इस साल 21 हजार करोड़ सिर्फ कर्ज पर ब्याज के चुकाए गए हैं, यानी 60 करोड़ रुपए रोज यानी ढाई करोड़ रुपए प्रति घंटे हम ब्याज दे रहे हैं, हर साल 30 से 40 हजार करोड़ का कर्ज सरकार पर बढ़ता जा रहा है, इसी अनुपात में ब्याज की रकम भी सालाना करीब 3 से 4 हजार करोड़ बढ़ती जा रही है।
11 महीनों में 23 हजार करोड़ कर्ज
कोरोनाकाल के 11 महीनों में मप्र सरकार 23 हजार करोड़ कर्ज ले चुकी है। साल 2018 के अंत में राज्य पर कुल कर्ज 1 लाख 80 हजार करोड़ था, जो अब बढ़कर 2 लाख 31 हजार करोड़ तक जा पहुंचा है और इस वित्त वर्ष की समाप्ति तक 2 लाख 52 हजार करोड़ हो जाएगा। पिछले कुछ महीनों में हमने देखा है कि सरकार के पास केवल वेतन देने लायक पैसा ही बच पाता है। हर महीने ओव्हर ड्राफ्ट की स्थिति से बचने के लिए सरकार को बाजार अथवा केंद्र सरकार से कर्ज लेना पड़ता है। जितने बुरे हाल अभी हैं, ऐसी स्थिति 2003 में दिग्विजय सिंह के कार्यकाल के अंतिम दिनों में पैदा हुई थी।
- जितेंद्र तिवारी