मप्र में नगरीय निकाय चुनाव का घमासान चरम पर पहुंच गया है। भाजपा और कांग्रेस का पूरा फोकस 16 नगर निगमों के महापौर की कुर्सी पर है। दोनों पार्टियों की कोशिश है कि अधिक से अधिक महापौर की सीटें जीतकर मिशन-2023 के लिटमस टेस्ट में पास हो जाएं। इसके लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पूरा दम लगा रखा है। क्योंकि इन चुनावों में दोनों नेताओं की साख दांव पर है।
मप्र में 2022 और 2023 को चुनावी समर का साल कहा जा रहा है। अभी पंचायत और नगरीय निकाय के लिए घमासान हो रहा है तो 2023 में विधानसभा चुनाव के नगाड़े बजेंगे। माना जा रहा है कि 2023 के सत्ता के फाइनल मुकाबले के लिए पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव सेमी फाइनल जैसा होगा। यहां मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है। इसके लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। इसलिए ये चुनाव दोनों नेताओं के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। प्रदेश में 347 नगरीय निकायों में चुनाव हो रहे है। इसमें 16 नगर पालिका निगम हैं, 76 नगर पालिका परिषद हैं और 255 नगर परिषद हैं। नगर निगम के चुनाव दो चरणों में होंगे। पहला चरण 6 जुलाई और दूसरा चरण 13 जुलाई को होगा। पहले चरण की मतगणना के परिणाम 17 जुलाई तक घोषित हो जाएंगे और दूसरे चरण के परिणाम 18 जुलाई को आएंगे।
इससे पहले चुनावी मैदान में दोनों पार्टियों के साथ ही शिवराज और कमलनाथ के लिए भी यह समय किसी चुनौती से कम नहीं है। भाजपा जहां सभी 16 नगर निगमों में अपना कब्जा बरकरार रखना चाहेगी, वहीं कांग्रेस की कोशिश है कि वह इस बार भाजपा को मात देकर अपनी स्थिति मजबूत करे। गौरतलब है कि 2015 के नगरीय निकाय चुनाव की तो भाजपा के शत प्रतिशत मेयर चुने गए थे। भाजपा ने सभी 16 शहरों के मेयर पद पर कब्जा किया था। वहीं, नगर पालिका अध्यक्ष के 97 पदों के निर्वाचन में 53 पर भाजपा ने और 39 पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। नगर परिषद के अध्यक्ष पदों के लिए हुए मुकाबले में भाजपा ने 154 और कांग्रेस ने 96 सीटें जीती थीं। जिला पंचायत और जनपद पंचायत चुनाव के आंकड़े भी भाजपा की तरफ झुके हुए थे। जिला पंचायत की 51 सीटों में से 40 पर भाजपा ने कब्जा किया था। कांग्रेस को सिर्फ 11 सीटें ही मिली थीं। जनपद पंचायत अध्यक्ष के 313 पदों के लिए हुए चुनाव में भाजपा ने 214 और कांग्रेस ने 99 सीट जीती थीं।
लंबे अंतराल के बाद 1995 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के शासनकाल में पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव हुए थे। साल 2003 तक कांग्रेस के शासनकाल में निकायों में कांग्रेस का दबदबा रहा। इसके बाद के 17 साल शिवराज सरकार ने राज किया। 2014-15 के बाद अब 7 साल के अंतराल के बाद हो रहे चुनाव में तगड़ा मुकाबला हो गया हैं। अपनी पसंद से टिकिट वितरण करके भाजपा की कमान शिवराज ने अपने हाथों में रखी है। वहीं, कांग्रेस का नेतृत्व कमलनाथ संभाल रहे हैं, जिन्होंने अधिकांश टिकिट अपने सर्वे के आधार पर बांटे है। भाजपा को सभी 16 नगर निगम बचाने के लिए ताकत लगानी पड़ रही है। यह भी कहा जा रहा है कि यह चुनाव 2023 के विधानसभा चुनाव के लिए सेमीफाइनल हो सकता है। फिलहाल गांव और शहर में 4 लाख से ज्यादा जनप्रतिनिधियों का चुनाव हो रहा है। वैसे वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में शिवराज ज्यादा मजबूत दिखाई दे रहे हैं। लेकिन किसानों की नाराजगी, शहरी क्षेत्रों में असंतुलित विकास उनके लिए परेशानी खड़ा कर सकता है। बात करें पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की तो उनके लिए 2020 में सत्ता गंवाने के बाद यह चुनाव बड़े मौके की तरह है, क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्हीं के हाथ में कमान थी और कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में लौटी थी। अपनी पसंद के लोगों को टिकिट दिलाने के कारण दोनों पर ही बेहतर प्रदर्शन का दबाव है। दोनों ही नेताओं ने राजनीतिक सभाओं के माध्यम से जोर अजमाइश शुरू कर दी है। प्रदेश में हो रहे पंचायत और नगरीय निकाय चुनावों को सत्ता का सेमीफाइनल माना जा रहा है। इसलिए इन चुनावों में भाजपा और कांग्रेस ने अपना पूरा दम लगा दिया है। कांग्रेस ने रणनीति बनाई है कि निकाय चुनाव में भाजपा के अभेद गढ़ भोपाल, इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर में पार्टी के महापौर प्रत्याशी को हर हाल में जिताना है। अगर इन चार नगर निगमों पर पार्टी ने कब्जा जमा लिया तो 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में जीत की राह आसान हो जाएगी। दरअसल, 2020 में सत्ता से बाहर होने के बाद से ही कांग्रेस वापसी के प्रयास में जुटी हुई है। हालांकि तैयारियों और सक्रियता में वह भाजपा के आसपास भी नहीं है। फिर भी कांग्रेस निकाय चुनाव को लेकर उम्मीद से लबरेज है, पर निकाय चुनाव में प्रमुख शहरों के महापौर पद पर मिलती शिकस्त को जीत में बदलना उसके लिए चुनौतीपूर्ण है। दरअसल, सूबे के चारों प्रमुख शहरों के महापौर पद भाजपा के अभेद किले हैं। ग्वालियर में सबसे ज्यादा 58 साल से कांग्रेस महापौर पद से दूर है। इंदौर में 22 साल, जबलपुर में 16 साल और भोपाल में 13 साल से महापौर पद पर भाजपा का कब्जा है। अब भाजपा के लिए भी इन सीटों को बचाने की चुनौती है।
मप्र के निकाय चुनाव में जिस बात की आशंका थी, वो सच भी साबित होता दिख रहा है। पार्टियां एकजुटता के दावे करती रहीं, उधर कुनबा बिखरता रहा। नाराज दावेदारों को दिग्गज मनाते रहे, लेकिन साथी बागी बने रहने पर आमादा दिखे। अब नौबत ये है कि निकाय चुनाव में भाजपा-कांग्रेस दोनों में ही बागी भरे पड़े हैं। पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ ही सियासी रण में अपने ताल ठोंक रहे हैं। बागियों की वजह से ना सिर्फ पार्टियों को हार का खतरा सता रहा है, बल्कि लोकल लेवल पर सियासी समीकरण भी बिगड़ने का खतरा बढ़ गया है, ऐसा इसलिए क्योंकि अगर बागी जीते तो आगे के लिए उस वार्ड में दबदबे वाली पार्टी की चुनौती बढ़ जाएगी। वैसे सवाल सुर्खियों में है कि आखिर घर में ही घमासान की नौबत क्यों आई? तो कहा जा रहा है कि कई जगहों पर सिफारिश पर टिकट दिए गए हैं। दिग्गजों की पैरवी पर टिकट बांटे जाने की बात भी कही जा रही है। जो पहले से काम कर रहे थे, उनकी दावेदारी कमजोर पड़ गई। सर्वे में जो नाम आए थे, उनकी अनदेखी की गई। इससे नाराज होकर दावेदार निर्दलीय मैदान में उतर गए। हालांकि, भाजपा-कांग्रेस दोनों को इस बात का अहसास है कि टिकट बंटवारे में चूक हुई है, लेकिन उम्मीदवारों के पैरवीकार ही क्षेत्रीय क्षत्रप थे, इसीलिए ज्यादा जगहों पर बदलाव संभव नहीं हो सका और बागियों को मनाने में कामयाबी नहीं मिल पाई।
नगर निगम चुनाव के लिए नाम वापसी की समय सीमा खत्म होने के बाद अब 16 नगर निगमों में स्पष्ट हो गया है, कि इस बार चुनावी मुकाबला काफी रोचक है। इस बार भाजपा और कांग्रेस के चुनावी गणित को बिगाड़ने की कोशिश में आम आदमी पार्टी भी जुटी है, वहीं दोनों ही दलों को टिकट बंटवारे की वजह से कार्यकर्ताओं की नाराजगी को भी झेलना पड़ रहा है। भोपाल नगर निगम में मेयर का चुनाव इस बार काफी दिलचस्प होने वाला है। क्योंकि यहां नगर निगम में मेयर के अब 8 उम्मीदवार मैदान में बचे हैं। इनमें भाजपा से मालती राय, कांग्रेस से विभा पटेल, बसपा से प्रिया मकवाना, जनता दल (यूनाइटेड) की मंजू यादव, जय लोक पार्टी की संगीता प्रजापति, निर्दलीय लेखा जायसवाल, रईसा बेगम मलिक और सीमा नाथ शामिल हैं। रईसा मलिक ने आम आदमी पार्टी से नामांकन भरा था, लेकिन उन्हें पार्टी ने मेंडेड नहीं दिया। इस कारण वे निर्दलीय हो गई हैं। अब इन्हीं प्रत्याशियों के बीच मुकाबला होगा। इंदौर में मेयर पद के लिए मुकाबला दिलचस्प देखने को मिल सकता है। यहां कुल 19 प्रत्याशी मैदान में हैं। इनमें पुष्यमित्र भार्गव (भाजपा), संजय शुक्ला (कांग्रेस), कमल कुमार गुप्ता (आप), कुलदीप पवार (एनसीपी), बाबुलाल सुखराम (निर्दलीय), डॉ. संजय बिंदल, (निर्दलीय), नासिर मोहम्मद सहित सभी 19 प्रत्याशी हैं। इनमें से किसी ने नामांकन वापस नहीं लिया है। 17 बार चुनाव हार चुके और इंदौर से सबसे पहले नामांकन फॉर्म जमा करने वाले परमानंद तोलानी भी मैदान में डटे हुए हैं। ग्वालियर नगर निगम में महापौर पद के लिए 7 महिलाएं मैदान में हैं। जिनके बीच कड़ा मुकाबला होगा। इनमें भाजपा से सुमन शर्मा, कांग्रेस से डॉ. शोभा सतीश सिकरवार, आम आदमी पार्टी से रूचि गुप्ता, बहुजन से सुनीता गौतम, अन्य दलों से सुनीता पाल, विद्याबाई पत्नी खेमराज, हेमलता पत्नी मुकेश सोनी मैदान में हैं। नगर निगम जबलपुर में महापौर पद के लिए अब 11 उम्मीदवार महापौर के लिए मैदान में हैं। जगत बहादुर सिंह (कांग्रेस), लखन अहिरवार (बहुजन समाज पार्टी), इंद्रकुमार-निर्दलीय, रश्मि पोर्ते-(गोंडवाना गणतंत्र पार्टी), शशि स्टैला-निर्दलीय, सचिन गुप्ता-(स्मार्ट इंडियन पार्टी), डॉ. जितेंद्र जामदार (भाजपा), राजेश सेन-निर्दलीय, भूपेंद्र मेहरा-निर्दलीय, राजकुमार त्रिपाठी-निर्दलीय, विनोद कुमार-जनता दल(यू)। भाजपा के प्रहलाद पटेल, कांग्रेस के मयंक जाट, आम आदमी पार्टी के अनवर खान, समाजवादी पार्टी की आफरीन खान, नेशनलिस्ट पार्टी के जहीरूद्दीन और भाजपा के बागी उम्मीदवार अरुण राव महापौर पद के मुकाबले में बचे हुए हैं।
11 सीटों पर आमने-सामने की लड़ाई
प्रदेश के 16 नगर निगम में महापौर प्रत्याशियों की तस्वीर साफ हो गई है। चुनावी रण में 13 सीटें ऐसी हैं, जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है। भाजपा की नजर में छिंदवाड़ा, सागर और सिंगरौली में कड़ी टक्कर है। भोपाल और इंदौर कॉडर के दम पर जीतने की उम्मीद है, लेकिन चुनावी जंग दिलचस्प हो गई है। 11 सीट पर मुकाबला तगड़ा है। भाजपा ने संगठन और कार्यकर्ताओं के फीडबैक पर हर शहर की रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट के बाद मंत्री, पार्टी पदाधिकारी और संगठन के नेता रण में झोंके गए हैं। इधर, कांग्रेस भी सभी 16 नगर निगम में जीत की व्यूहरचना तैयार कर मैदान में उतरी है। भाजपा से मालती राय प्रत्याशी हैं। विधायक विश्वास सारंग, रामेश्वर शर्मा और कृष्णा गौर की पसंद का टिकट है। सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर साथ हैं। नेता एक साथ प्रचार में जुटे हैं। कांग्रेस प्रत्याशी विभा पटेल को पार्टी के परंपरागत वोट बैंक, मुस्लिम वोट और किरार समाज की एकजुटता के भरोसे जीत की उम्मीद है। आप से रानी विश्वकर्मा ने परचा वापस ले लिया। यहां 8 प्रत्याशी मैदान में हैं, लेकिन सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस में है। सबसे बड़े निगम में कमल और पंजे के बीच सीधी लड़ाई है। दोनों दलों ने ब्राह्मण चेहरे उतारे हैं। कांग्रेस प्रत्याशी संजय शुक्ला दो महीने से प्रचार कर रहे हैं। भाजपा ने 40 वर्ष के युवा लॉयर पुष्यमित्र भार्गव को उतारा है। कोई तीसरा फेक्टर नहीं है। भाजपा की चुनौती क्षत्रप नेताओं की एकजुटता की है, जबकि संजय चुनावी रण में बिखरी कांग्रेस की जगह अपने दम पर ही मुकाबला लड़ रहे हैं। ग्वालियर में कांग्रेस से विधायक सतीश सिकरवार की पत्नी शोभा लड़ रही हैं, जबकि भाजपा ने सुमन शर्मा को लड़ाया है।
कांग्रेस के लिए बड़े निगम चुनौती
नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस के लिए बड़े नगर निगम जीतना किसी चुनौती से कम नहीं हैं। दरअसल भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर भाजपा के अभेद गढ़ बन चुके हैं। हालांकि इस बार कांग्रेस को उम्मीद की लौ दिखी है। इस बार राजधानी भोपाल में कांग्र्रेस ने पूर्व महापौर विभा पटेल को महापौर प्रत्याशी बनाया है। भोपाल में कांग्रेस की स्थिति ठीक है, पर यहां 13 साल भाजपा के महापौर रहे हैं। कांग्रेस से आखिरी महापौर सुनील सूद थे, जो 20 दिसंबर 2004 से 20 दिसंबर 2009 तक पद पर रहे। फिर भाजपा से कृष्णा गौर, आलोक शर्मा ने जीत हासिल की। सूद से पहले कांग्रेस की विभा पटेल 8 जनवरी 2000 से 7 अगस्त 2004 तक महापौर थीं। इस बार विभा ने कांग्रेस में आस जगाई है। भोपाल की सीट से कांग्रेस उम्मीदें संजोए है। इसके पीछे विभा की पिछली जीत और दिग्विजय खेमे के मजबूत नेटवर्क का सपोर्ट होना है। कांग्रेस सड़क पानी, परिवहन, बिजली बिल जैसे मुद्दे उछाल रही है। वहीं भाजपा से मालती राय मैदान में हैं। भाजपा के लिए यह सीट प्रतिष्ठा का सवाल है। भाजपा विकास के आधार पर चुनाव लड़ रही है। वहीं सत्ता-संगठन और तीनों भाजपा विधायक साथ हैं।
-कुमार राजेन्द्र