उपचुनाव के सियासी रण में भाजपा और कांग्रेस ने पूरी ताकत झोंक दी है। भाजपा के सामने कम से कम 9 सीटें जीतने की चुनौती है, ताकि सरकार बनी रहे, तो कांग्रेस के सामने बिखरी हुई ताकत समेटने और साख बनाने का मौका है। मैदानी तैयारी में भाजपा कांग्रेस से कहीं आगे है, क्योंकि भाजपा की ओर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मोर्चा संभाल लिया है। वहीं कांग्रेस भी धीरे-धीरे चुनाव वाले क्षेत्र में सक्रिय हो रही है।
राज्यसभा चुनाव में जोर आजमाइश के बाद अब प्रदेश में होने वाले उपचुनाव के लिए सभी पार्टियों ने कमर कस ली है। मप्र में विधानसभा की 24 सीटों पर होने वाले उपचुनाव किसी भी तरह से 230 सीटों पर हुए विधानसभा चुनाव से कम नहीं होंगे। असल में इन उपचुनावों के बाद ही सरकार का स्थायी भविष्य तय होगा। मप्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया की कांग्रेस से बगावत के चलते भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में सरकार तो बना ली, लेकिन सरकार बनाए और बचाए रखने के लिए उपचुनावों में जीत का सिलसिला कायम रखना पड़ेगा।
भारतीय राजनीति में शिवराज सिंह चौहान को समन्वयकारी और संतुलन बनाकर काम करने वाला नेता माना जाता है। यही कारण है कि जब भी मप्र में चुनाव होता है संघ भाजपा के साथ खड़ा हो जाता है। दरअसल भाजपा और संघ परिवार आज इस मुकाम पर है तो निश्चित तौर से इसमें काम करने की जीजीविषा और दृढ़ इच्छाशक्ति है। शिवराज की नीति का अहम सूत्र यह भी है कि संगठन हो या सरकार, उसमें ठहराव नहीं होना चाहिए बल्कि नदी के बहाव की तरह गतिमान होना चाहिए। इस नीति ने ही मप्र में भाजपा और विचार परिवार की ऐसी संगठनात्मक मशीनरी खड़ी कर दी है कि यहां की जनता शिवराज के आगे किसी अन्य के बारे में सोच नहीं पाती है।
शिवराज की समन्वयकारी राजनीति का ही नतीजा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामने का निर्णय लिया और अब सिंधिया समर्थकों को फिर से विधायक और मंत्री बनाने की जिम्मेदारी शिवराज सिंह चौहान ने अपने कंधे पर ली है। शिवराज पर आए इस बोझ को थामने के लिए गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और संघ ने अपना कंधा लगा दिया है। इससे कांग्रेस की रणनीति फेल होने लगी है। भाजपा में जहां सांगठनिक एकता साफ दिख रही है, वहीं कांग्रेस अभी भी बंटी नजर आ रही है।
24 सीटों पर होने वाले उपचुनाव के दौरान वैसे तो मुद्दों की भरमार रहेगी लेकिन मुख्य मुकाबला विश्वासघात बनाम धोखा में होगा। कांग्रेस के विश्वासघात के मुद्दे को जवाब देने के लिए संघ के दिशा-निर्देश पर भाजपा ने पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार द्वारा जनता के साथ किए गए धोखे को मुद्दा बनाया है। इन सीटों को बचाना कई मायनों में कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। कांग्रेस उन पूर्व विधायकों को सबक सिखाना चाहती है, तो पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ इसमें सत्ता वापसी का रास्ता देखते हैं। उधर दिग्विजय सिंह भी खुद को नाथ सरकार के लिए संकट बनने के आरोप से मुक्त करना चाहते हैं। वहीं भाजपा हर हाल में सत्ता में बने रहने की कोशिश कर रही है। इसलिए भाजपा के नेता और संघ के पूर्णकालिक विधानसभा क्षेत्रों में जनता के बीच प्रचारित कर रहे हैं कि 15 माह के शासनकाल के दौरान कांग्रेस ने किस तरह उन्हें धोखा दिया है। खासकर किसान कर्जमाफी को सबसे बड़े हथियार बनाया गया है। वहीं भाजपाई प्रवासी श्रमिकों और किसानों के लिए प्रदेश सरकार द्वारा दी गई सुविधाओं और सहूलियतों को प्रचारित कर रहे हैं। इसी का परिणाम है कि पिछले एक माह में विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा की स्थिति मजबूत हुई है।
यही नहीं संघ की सलाह के बाद भाजपा उपचुनाव के लिए हर सीट का अलग घोषणा-पत्र (संकल्प-पत्र) बनाएगी। संकल्प-पत्र में संबंधित क्षेत्र के विकास का तीन साल का रोडमैप रहेगा। संकल्प-पत्र बनाने की जिम्मेदारी प्रदेश उपाध्यक्ष विजेश लुनावत और पूर्व मीडिया प्रभारी डॉ. हितेश वाजपेयी को दी गई है। चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सभी क्षेत्रों में जाकर वहां का घोषणा-पत्र जारी करेंगे। भाजपा की प्रदेश चुनाव समिति हर सीट पर प्रबंध समिति का गठन करेगी। वहां का संकल्प-पत्र तैयार करने के लिए भी टीम रखी जाएगी। कांग्रेस में विधायक पद छोड़कर आने वाले भाजपा के भावी उम्मीदवारों से पूछा जाएगा कि वे अपने क्षेत्र में क्या काम कराना चाहते हैं। इसके साथ ही उस जिले के अधिकारियों से भी चर्चा करके रुके हुए और निकट भविष्य में हो सकने वाले कार्यों की सूची ली जाएगी। पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने उपचुनाव वाली सीटों पर कांग्रेस के पूर्व विधायकों के साथ वन-टू-वन चर्चा की थी। मुख्यमंत्री ने हर विधायक से उनके क्षेत्र में रुके हुए जरूरी कामकाज की सूची लेकर अधिकारियों को दी थी। सूत्रों के मुताबिक यह काम लगभग एक हजार करोड़ रुपए के हैं, जो शुरू हो चुके हैं। संकल्प-पत्र में इन कार्यों का भी हवाला दिया जाएगा।
उपचुनाव जीतने में माहिर हो चुके शिवराज सिंह चौहान और कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ नई पारी शुरू करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए ये उपचुनाव चुनौतीपूर्ण है। दोनों नेताओं की साख दांव पर है। भाजपा का दामन थामने वाले कांग्रेसी विधायक सिंधिया के समर्थक हैं। ऐसे में उपचुनाव के नतीजे सीधे सिंधिया की ताकत बताएंगे, वहीं सीटों के गणित से सरकार बरकरार रही तो शिवराज और मजबूत होंगे। इधर, कांग्रेस के लिए भी ये उपचुनाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। कांग्रेस सिंधिया और उनके समर्थक पूर्व विधायकों को जयचंद, गद्दार आदि कहकर लगातार कोसती रही है। साथ ही विधानसभा क्षेत्रों में उन्हें घेरने की रणनीति पर काम कर रही है। दूसरी तरफ कमलनाथ अपनी सरकार जाने को इंटरवल बताकर उपचुनाव बाद वापसी का दावा कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह भी इन उपचुनावों में जीत के जरिए उन आरोपों को गलत साबित करना चाहेंगे, जिसमें उन्हें नाथ सरकार के जाने का जिम्मेदार बताया जाता है। हालांकि इन सीटों पर प्रत्याशी तय कर उसे जीत दिलाने का संघर्ष दोनों दलों के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है। कांग्रेस को नए सिरे से प्रत्याशी तय करने हैं, तो भाजपा को सिंधिया कोटे और अपने पुराने नेताओं के बीच से प्रत्याशी तय करना है।
इसमें संदेह नहीं है कि ये उपचुनाव बड़े सीमित मुद्दों पर लड़े जाएंगे। कांग्रेस सिंधिया समर्थक विधायकों को बिकाऊ बताकर घेरेगी। वह कमलनाथ सरकार के कामों को भी इस अंदाज में रखेगी, जिससे स्पष्ट हो सके कि एक बेहतरीन सरकार गिराकर इन विधायकों ने अपने क्षेत्र की जनता को धोखा दिया है। उधर, भाजपा के पास कोरोना से निपटने की उपलब्धि के साथ ही अपने पूर्व के 15 साल के शासनकाल की उपलब्धियां हैं। यही नहीं वर्तमान में शिवराज सरकार ने जिस तरह प्रवासी श्रमिकों को रोजगार मुहैया कराने का कदम उठाया है उससे उनकी साख एक बार फिर जम गई है। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि शिवराज और सिंधिया की जोड़ी इतिहास जरूर रचेगी।
ये उपचुनाव कई मायने में ऐतिहासिक होंगे। प्रदेश के इतिहास में पहली बार एकसाथ 24 सीटों पर उपचुनाव होंगे। यही नहीं इन उपचुनावों के लिए सबसे अधिक समय तैयारी के लिए मिला है। वहीं अपनी तरह के सबसे अलग इस उपचुनाव में वोटों का समीकरण भी अलग होगा। हर सीट पर पार्टी, उसके किसी शीर्ष नेता और प्रत्याशी का अलग-अलग वोट बैंक होता है। भाजपा के टिकट पर जो सिंधिया समर्थक प्रत्याशी उतरेगा, उसके साथ अपने वोट बैंक के अलावा सिंधिया, भाजपा और शिवराज समर्थकों का वोट होगा। दूसरी तरफ 22 सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी नए होना तय है, जिनके पास अपने वोट बैंक के अलावा कांग्रेस, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह समर्थकों का वोट होगा। यानी वोटर्स भी बड़े पैमाने पर इस बार पाला बदलेंगे। ऐसे में जीत उसी के खाते में जाएगी, जिसका अपना वोट बैंक मजबूत होगा। ऐसे आंकलन के बीच निश्चित तौर पर दोनों दल तटस्थ रहकर ऐन वक्त पर रुख तय करने वाले वोटर्स को अपने पक्ष में करने के प्रयास अभी से कर रहे होंगे। इस बार के उपचुनाव में सरकार का बरकारार रहना या पुरानी सरकार की वापसी की संभावनाओं के साथ कई दिग्गजों का सियासी भविष्य भी दांव पर लगना तय है।
विधानसभा का गणित
मध्यप्रदेश में विधानसभा की 230 सीटें हैं, इनमें से 24 सीटों पर उपचुनाव होना है। कांग्रेस के 22 बागी विधायकों के इस्तीफे देने और दो विधायकों का निधन होने से 2 सीटों पर उपचुनाव होना है। विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 116 है। भाजपा के पास फिलहाल 107 विधायक हैं, वहीं निर्दलीय, सपा और बसपा के 7 विधायक भी भाजपा के साथ खड़े हैं। उधर, कांग्रेस के पास 92 विधायक हैं। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो कांग्रेस बहुमत से काफी दूर है। पार्टी के पास इस समय भाजपा को चुनौती देने वाले प्रत्याशी और नेता की भी कमी है। फिर भी पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का दावा है कि उनकी पार्टी 18 से 20 सीटें जीतेगी। गौरतलब है कि 2018 में हुए चुनाव में कांग्रेस की कमान कमलनाथ और ज्योतिरादित्य दोनों ने मिलकर संभाल रखी थी। अब ज्योतिरादित्य के भाजपा में जाने के बाद चुनाव की कमान कमलनाथ के हाथ में है। हालांकि दिग्विजय सिंह इसमें निर्णायक रणनीतिकार माने जा रहे हैं। कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया को जनता के साथ विश्वासघात करने वाले शख्स के रूप में प्रचारित कर रही है। ज्योतिरादित्य के साथ भाजपा में आए कांग्रेस के 22 विधायकों के विधानसभा क्षेत्र में भी कांग्रेस ने यही अभियान चला रखा है।
उपचुनाव जीतने में शिवराज को महारत
उपचुनावों को लेकर भाजपा में संतोष नजर आ रहा है। इसकी एक वजह यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उपचुनाव जीतने में माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। मप्र में शिवराज सिंह चौहान के सत्ता संभालने से अब तक हुए उपचुनावों का विश्लेषण करें तो कांग्रेस के लिए मुश्किलों का अंदाजा सहज लगता है। वर्ष 2004 से 19 तक हुए 30 उपचुनावों में 19 भाजपा जीती है, यानी 63.33 प्रतिशत। भाजपा ने अपनी 13 सीटें बचाई, तो कांग्रेस की 6 सीटें छीन ली। हालांकि उसे 6 सीटें गंवानी
मनरेगा ने दी संजीवनी
को रोना संकट के समय में मनरेगा में रोजगार देने के मामले में मप्र पांचवें स्थान पर है। प्रदेश में प्रवासी श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने मनरेगा के साथ ही अन्य योजनाओं का सहारा लिया है। लेकिन सबसे अधिक मनरेगा में रोजगार दिया गया है। वहीं उत्तर प्रदेश देश में सबसे आगे निकल गया है। देश में मनरेगा के तहत कुल रोजगार में उत्तर प्रदेश की भागीदारी 18 फीसदी रही जो कि किसी भी राज्य से ज्यादा है। वहीं राजस्थान दूसरे स्थान पर है।
एक तरफ मनरेगा जहां प्रवासी श्रमिकों का सहारा बनकर उनकी जीविकोपार्जन का साधन बनी है, वहीं स्थानीय स्तर पर रोजगार का सबसे बड़ा जरिया है। मनरेगा के तहत गांवों के दिहाड़ी मजूदरों को इस महीने जून में पिछले साल के मुकाबले 84 फीसदी ज्यादा काम मिला है। महामारी के मौजूदा संकटकाल में यह योजना न सिर्फ रोजगार देने वाली बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की संचालक भी बनने वाली है। मनरेगा के तहत पूरे देश में इस महीने औसतन 3.42 करोड़ लोगों को रोजाना काम करने की पेशकश की गई है जो कि पिछले साल के इसी महीने के मुकाबले 83.87 फीसदी अधिक है। मप्र में वर्तमान में 25 लाख से अधिक श्रमिकों को मनरेगा के तहत रोजगार मिला हुआ है।
मप्र में मनरेगा के अंतर्गत लगभग दो लाख कार्यों में 25 लाख 16 हजार 24 श्रमिक रोजगार प्राप्त कर रहे हैं। गत वर्ष से यह संख्या लगभग दोगुनी है। गत वर्ष 14 जून को 12 लाख 51 हजार 680 श्रमिक मनरेगा में कार्यरत थे। प्रदेश में श्रम सिद्धि अभियान में 8 लाख 38 हजार 243 श्रमिकों को नए जॉब कार्ड प्रदान किए जा चुके हैं। गत वर्ष इसी अवधि में बनाए गए नवीन जॉबकार्डों की संख्या मात्र 1 लाख 84 हजार थी। कोरोना संकट के समय में मनरेगा में रोजगार देने के मामले में उत्तर प्रदेश देश में सबसे आगे निकल गया है। राज्य में 15 जून तक 57 लाख 12 हजार मजदूर मनरेगा में काम कर रहे हैं जो किसी भी राज्य से सबसे ज्यादा है। देश में मनरेगा के तहत कुल रोजगार में उत्तर प्रदेश की भागीदारी 18 फीसदी रही जोकि किसी भी राज्य से ज्यादा है। उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर राजस्थान रहा जहां 53.45 लाख मजदूर मनरेगा में काम कर रहे हैं। राजस्थान ने मनरेगा रोजगार में कुल 17 फीसदी की भागीदारी अब तक दी है। इसके बाद तीसरे नंबर पर 12 फीसदी भागीदारी के साथ 36.58 लाख मजदूरों को रोजगार देने में आंध्रप्रदेश रहा। इसके बाद पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश चौथे और पांचवें स्थान में हैं, दोनों ही राज्यों ने क्रमश: 26.72 और 25.16 लाख मजदूरों को मनरेगा में रोजगार उपलब्ध कराया।
मौजूदा महामारी के दौर में जब मजदूरों और श्रमिकों के हालात समाज और सरकार के सामने जाहिर हैं, तब यह सवाल सहज ही हमारे सामने आता है कि आखिर किन परिस्थितियों ने उन्हें इन हालातों तक पहुंचाया है? गांवों से उखड़ते हुए ये लोग आखिर कौन हैं? क्यों तमाम अनिश्चितताओं के बीच भी कमाने-खाने के लिए ये सब हजारों मील दूर पलायन करते हैं? क्या इनके पास स्थानीय स्तर पर आजीविका के कोई अन्य संसाधन नहीं हैं? इन असहज सवालों का कोई सहज जवाब सरकार और समाज दोनों के पास नहीं है। एक बेहतर कल की तलाश में श्रमिकों को पलायन के लिए प्रेरित या मजबूर करती परिस्थितियां और उसके लगभग अप्रत्याशित परिणाम वास्तव में यह सिखाता और दिखाता है कि उन लाखों श्रमिकों के अधिकार, न्याय और सम्मान के लिए अभी भी बहुत कुछ बदला जाना शेष है। यह कानून और नीतियां मात्र नहीं, बल्कि उस पूरे दृष्टिकोण को बदलने से शुरू होना होगा जिसके पीछे समाज, सरकार और हम सब खड़े हैं।
बहरहाल, योजनाओं के मानसून में आज 'श्रमिक, ग्रामीण समाज और उनके विकास’ के सवालों का केंद्र में होना एक प्रासंगिक पहल तभी साबित होगा, जब इसे ग्रामीण समाज के अपने जल, जंगल और जमीन जैसे संसाधनों के अनियंत्रित दोहन के इतिहास, और पलायन के वर्तमान के वास्तविकताओं की समग्रता में देखा जाएगा। यदि ऐसा नहीं होता तो इसे एक बार फिर ग्रामीण भारत को विकास की प्रयोगशाला में बदलने का प्रयास मान लिया जाएगा। ग्रामीण भारत के विकास का आधा-अधूरा दृष्टिकोण अब तक सुलझे-उलझे आसान प्रयोगों की प्रयोगशाला ही साबित होती रही है। अन्यथा आजादी के सात दशकों में बेहिसाब योजनाओं, नीतियों और प्रयोगों के परिणाम आज इतने अनिश्चित, अप्रासंगिक और अर्थहीन नहीं होते। पलायन की अनिश्चित परिस्थितियां और निश्चित त्रासदी इन अपूर्ण प्रयोगों का ही लगभग पूर्ण उदाहरण है। नई नवेली 'गरीब कल्याण योजना’ के राजनैतिक दर्शन को व्यवहार में बदलने के लिए आखिर जिन रास्तों का प्रयोग किया जाएगा। वास्तव में, वही उसके प्रभाव अथवा अभाव का पैमाना बनेगा।
रोजगार सेतु का उपयोग
मनरेगा के अंतर्गत विभिन्न संरचनाओं का निर्माण ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहा है। स्किल मेपिंग के लिए रोजगार सेतु का उपयोग किया जा रहा है। विभिन्न श्रेणियों में कार्य करने वाले श्रमिक सूचीबद्ध किए जा रहे हैं। अब तक 44 हजार 988 श्रमिक इससे जोड़े गए हैं। आत्मनिर्भर भारत में एक लाख 24 हजार 552 प्रवासी मजदूरों को खाद्यान दिया गया। विभिन्न बिल्डर्स, कॉन्ट्रेक्टर्स और कारखाना प्रबंधन से जानकारी एकत्र कर श्रमिकों के रोजगार के लिए श्रेणी वार संभावनाओं को देखा जा रहा है। संबल पोर्टल पर भी 3 लाख 24 हजार 715 लोग पंजीबद्ध हो गए हैं। कोरोना संक्रमण के दौर में श्रमिकों की आर्थिक समस्याओं को दूर करने में इन प्रयासों का विशेष महत्व है। विशेष रूप से प्रवासी श्रमिकों को मनरेगा कार्यों से जोड़कर आर्थिक सहारा दिया गया है।
- श्याम सिंह सिकरवार
भी पड़ीं। जबकि कांग्रेस 10 सीटें जीत सकी यानी 33.33 प्रतिशत। वह 4 सीटें छीनने में कामयाब रही। ऐसे में कांग्रेस को अपने खाते की सीटें बचाने के लिए भाजपा से कड़ी चुनौती मिलना तय है। वहीं भाजपा हर हाल में 24 में से कम से कम आधी सीटें जरूर जीतना चाहेगी। ऐसे में भाजपा ने इसकी जिम्मेदारी अपने संकटमोचक यानी नरोत्तम मिश्रा को सौंपी है। मिश्रा ग्वालियर दौरे पर वहां के दिग्गज नेताओं से वन-टू-वन बात कर रहे हैं। कांग्रेस छोड़कर 22 विधायकों के लाव लश्कर के साथ महाराज गए तो उसमें से 16 ग्वालियर-चंबल के ही थे। अब इन सबके भाजपा में शामिल हो जाने के बाद भाजपा के पुराने और स्थापित नेताओं में बेचैनी है। उन्हें अपने राजनैतिक भविष्य पर ग्रहण लगता दिखाई दे रहा है, उनके नाराज और रूठने की खबरें सरकार और संगठन तक पहुंच रही हैं।
कुमार राजेन्द्र