19-Nov-2014 02:57 PM
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जिन लोगों के मन परमेश्वर के अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त हैं, उन देहधारियों के लिए उस क्षेत्र में प्रगति कर पाना सदैव दुष्कर होता है। अध्यात्मवादियों का समूह, जो परमेश्वर के अचिन्त्य, अव्यक्त, निराकर स्वरूप के पथ का अनुसरण करता है, ज्ञान-योगी कहलाता है, और जो व्यक्ति भगवान की भक्ति में रत रहकर पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहते हैं, वे भक्ति-योगी कहलाते हैं। यहां पर ज्ञान योग तथा भक्ति योग में निश्चित अंतर बताया गया है।
ज्ञान-योग का पथ यद्यपि मनुष्य को उसी लक्ष्य तक पहुंचाता है, किन्तु है अत्यन्त कष्टकारक, जबकि भक्ति योग भगवान की प्रत्यक्ष सेवा होने के कारण सुगम है, और देहधारी के लिए स्वाभाविक भी है। जीव अनादि काल से देहधारी है। सैद्धांतिक रूप से उसके लिए यह समझ पाना अत्यन्त कठिन है कि वह शरीर नहीं है। अतएव भक्ति-योगी कृष्ण के विग्रह हो पूज्य मानता है, क्योंकि उसके मन में कोई न कोई शारीरिक बोध रहता है, जिसे इस रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। निस्संदेह मंदिर में परमेश्वर के स्वरूप की पूजा मूर्तिपूजा नहीं है। वैदिक साहित्य में साक्ष्य मिलता है कि पूजा सगुण तथा निर्गुण हो सकती है। मंदिर में विग्रह-पूजा सगुण पूजा है, क्योंकि भगवान को भौतिक गुणों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। लेकिन भगवान के स्वरूप को चाहे पत्थर, लकड़ी तथा तैलचित्र जैसे भौतिक गुणों द्वारा क्यों न अभिव्यक्त किया जाय वह वास्तव में भौतिक नहीं होता। परमेश्वर की यही परम प्रकृति है।
यहां पर एक मोटा सा उदाहरण दिया जा सकता है। सड़कों के किनारे पत्र पेटिकाएं होती हैं, जिनमें यदि हम अपने पत्र डाल दें, तो वे बिना किसी कठिनाई के अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच जाते हैं। लेकिन यदि कोई ऐसी पुरानी पेटिका या उसकी अनुकृति कहीं दिखे, जो डाकघर द्वारा स्वीकृत न हो, तो उससे वही कार्य नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार ईश्वर ने विग्रहरूप में, जिसे अर्चा-विग्रह कहते हैं, अपना प्रमाणिक (वैध) स्वरूप बना रखा है। यह अर्चा विग्रह परमेश्वर का अवतार होता है। ईश्वर इसी स्वरूप के माध्यम से सेवा स्वीकार करते हैं। भगवान सर्वशक्तिमान हैं, अतएव वे अर्चा-विग्रह रूपी अपने अवतार से भक्त की सेवाएं स्वीकार कर सकते हैं, जिससे बद्ध जीवन वाले मनुष्य को सुविधा हो।
इस प्रकार भक्त को भगवान के पास सीधे और तुरंत ही पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं होती, लेकिन जो लोग आध्यात्मिक साक्षात्कार के लिए निराकार विधि का अनुसरण करते हैं, उनके लिए यह मार्ग कठिन है। उन्हें उपनिषदों जैसे वैदिक साहित्य के माध्यम से अव्यक्त स्वरूप को समझना होता है, उन्हें भाषा सीखनी होती है, इन्द्रियातीत अनुभूतियों को समझना होता है, और उन समस्त विधियों का ध्यान रखना होता है। यह सब एक सामान्य व्यक्ति के लिए सुगम नहीं होता। कृष्णभावनामृत में भक्तिरत मनुष्य मात्र गुरु के पथप्रदर्शन द्वारा, मात्र भगवान पर चढ़ाए गए उच्छिष्ट भोजन को खाने से भगवान को सरलता से समझ लेता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि निर्विशेषवादी व्यर्थ ही कष्टकारक पथ को ग्रहण करते हैं, जिसमें अंतत: परम सत्य का साक्षात्कार संदिग्ध बना रहता है। किन्तु सगुणवादी बिना किसी संकट, कष्ट या कठिनाई के भगवान के पास सीधे पहुंच जाते हैं। ऐसा ही संदर्भ श्रीमद्भागवत में पाया जाता है। वहां यह कहा गया है कि यदि अंतत: भगवान की शरण में जाना ही है (इस शरण जाने की क्रिया को भक्ति कहते हैं) तो यदि कोई, ब्रह्म क्या है और क्या नहीं है, इसी को समझने का कष्ट आजीवन उठाता रहता है, तो इसका परिणाम अत्यन्त कष्टकारक होता है। अतएव यहां पर यह उपदेश दिया गया है कि आत्म-साक्षात्कार के इस कष्टप्रद मार्ग को ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि अंतिम फल अनिश्चित रहता है।
जीव शाश्वत रूप से व्यष्टि आत्मा है और यदि वह आध्यात्मिक पूर्ण में तदाकार होना चाहता है तो वह अपनी मूल प्रकृति के शाश्वत (सत्) तथा ज्ञेय (चित्) पक्षों का साक्षात्कार तो कर सकता है, लेकिन आनंदमय अंश की प्राप्ति नहीं हो पाती। ऐसा अध्यात्मवादी जो ज्ञानयोग में अत्यन्त विद्वान होता है, किसी भक्त के अनुग्रह से भक्तियोग को प्राप्त होता है। उस समय निराकारवाद का दीर्घ अभ्यास कष्ट का कारण बन जाता है, क्योंकि वह उस विचार को त्याग नहीं पाता। अतएव देहधारी जीव, अभ्यास के समय या साक्षात्कार के समय, अव्यक्त की प्राप्ति में सदैव कठिनाई में पड़ जाता है।
कृष्ण चेतना अमृत है
प्रत्येक जीव अंशत: स्वतंत्र है और उसे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यह अव्यक्त अनुभूति उसे आध्यात्मिक अनांदमय आत्म (स्व) की प्रकृति के विरूद्ध है। मनुष्य को चाहिए कि इस विधि को न अपनाए। प्रत्येक जीव के लिए कृष्णचेतना की विधि श्रेष्ठ मार्ग है, जिसमें भक्ति में पूरी तरह व्यस्त रहना होता है। यदि कोई भक्ति की उपेक्षा करना चाहता है, तो नास्तिक होने का संकट रहता है। अतएव अव्यक्त विषयक एकाग्रता की विधि को, जो इन्द्रियों की पहुंच से परे है, जैसा कि इस श्लोक में पहले कहा जा चुका है, इस युग में प्रोत्साहन नहीं मिलना चाहिए। भगवान कृष्ण ने इसका उपदेश नहीं दिया।