18-Jan-2020 07:57 AM
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मप्र में करीब 20 साल बाद निकायों के महापौर और अध्यक्षों का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से होगा। यानि पार्षद महापौर और अध्यक्ष चुनेंगे। साथ ही इस बार पार्षदों का चुनाव पार्टियों के चुनाव चिन्ह के बिना होगा। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि महापौर और अध्यक्ष के लिए धनबल, बाहुबल का सहारा लिया जाएगा। यानि अबकी बार जुगाड़ू पार्षद ही महापौर बन पाएगा।
मप्र में वक्त है बदलाव के नारे के साथ सत्ता में आई कांग्रेस ने अपने एक साल के कार्यकाल में कई बदलाव किए हैं। लेकिन सबसे अधिक विवाद नगरीय निकायों में महापौर या अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से कराने को लेकर हुआ है। मामला राज्यपाल से लेकर हाईकोर्ट तक सुर्खियों में बना रहा। अंतत: सरकार के पक्ष में निर्णय हुआ है कि नगरीय निकायों में अब महापौर या अध्यक्ष को जनता नहीं बल्कि पार्षद चुनेंगे। यानी कि जनता को वोटिंग के माध्यम से महापौर चुनने का जो हक था, वो अब नहीं होगा। ऐसे में भाजपा द्वारा महापौर चुने जाने के बीच कई संभावनाएं व आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस इसलिए अप्रत्यक्ष चुनाव के पक्ष में है, ताकि वह धनबल, बाहुबल और सरकार के दबाव के दम पर नगर निगमों में अपने महापौर बैठा सके। प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने इसीलिए कानून में परिवर्तन किया है, ताकि वे पार्षदों की खरीद-फरोख्त करके अपना महापौर बना सके।
20 साल पुराने नियम में बदलाव
वर्ष 2000 में तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने मध्यप्रदेश में महापौर एवं नगर पालिका अध्यक्षों का चुनाव सीधे जनता द्वारा कराने का फैसला लिया था। तब से लेकर अब तक प्रदेश में महापौर एवं नगर पालिका अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होता आ रहा था। इस दौरान किसी भी चुनाव में किसी प्रकार की शिकायत सामने नहीं आई। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि फिर सरकार ने उस प्रावधान को बदलने का निर्णय क्यों लिया, जिसे उनकी ही पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने आज से 20 साल पहले लागू किया था। इस संदर्भ में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि कांग्रेस इसलिए अप्रत्यक्ष चुनाव के पक्ष में है, ताकि वह धनबल और बाहुबल के दम पर नगर निगमों में अपने महापौर बैठा सके।
वहीं भाजपा के एक प्रदेश प्रवक्ता कहते हैं कि इतिहास रहा है जब कभी भी अप्रत्यक्ष तरीके से चुनाव हुआ है, खरीद-फरोख्त बढ़ी है। इस प्रणाली से महापौर-अध्यक्षों का चुनाव कराने से मर्यादाओं का स्थान पैसा लेगा। यह प्रजातंत्र की हत्या करने जैसा है। वे सवाल उठाते हैं कि अगर अप्रत्यक्ष प्रणाली से महापौर के चुनाव की व्यवस्था विवादित नहीं रहती तो वर्ष 2000 में दिग्विजय सिंह इस व्यवस्था में बदलाव क्यों करते? वे कहते हैं कि कांग्रेस सरकार जनता के अधिकार का हनन कर किसी भी तरह निकायों के महापौर और अध्यक्ष के पद पर अपने नेताओं को काबिज कराना चाहती है।
पार्टी और बड़े नेता सुकून में
नगरीय निकाय चुनाव को देखते हुए पार्षदी के दावेदार गली-मोहल्लों में नजर आने लगे हैं। वर्तमान पार्षद और पूर्व पार्षद समीकरण बिठाने में जुट गए हैं। प्रदेश सरकार ने पहले ही ऐलान कर दिया है कि इस बार नगरीय निकाय चुनाव बगैर पार्टी चुनाव-चिन्ह के होंगे। कोई बिना किसी से टिकट मांगे अपना नामांकन दाखिल कर चुनाव लड़ सकता है। हालांकि हाइकोर्ट के निर्णय के बाद ही चुनाव प्रक्रिया की अंतिम तस्वीर साफ होगी। बिना चुनाव चिन्ह के निर्वाचन कराने के सरकार के फैसले का प्रमुख विपक्षी दल विरोध कर रहा है। महापौर का चुनाव भी सीधे जनता से कराने के लिए भाजपा संघर्ष कर रही है। चुनाव में टिकट का झंझट फिलहाल समाप्त हो जाने से राजनीतिक दलों के बड़े नेता सुकून महसूस कर रहे हैं। क्योंकि झंडे-डंडे उठाकर साथ चलने वाले समर्थक अब पार्टी के टिकट के लिए उनका कुर्ता नहीं पकड़ पा रहे हैं। हालांकि अपने खास समर्थकों के लिए नेताओं ने गली-मोहल्लों की राजनीति में रुचि लेना शुरू कर दी है। भोपाल व दिल्ली के बंगलों पर सुकून महसूस किया जा रहा है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने औपचारिक चर्चा में कहा कि निकाय चुनाव में बहुत झंझट होते थे। एक वार्ड से टिकट एक को ही मिलना होता था और दावेदार कई होते हैं। एक टिकट मिलने से 4 नाराज हो जाते थे। आस्तीनें तानकर विधानसभा व लोकसभा चुनाव का इंतजार करते थे। सरकार के इस फैसले से हम बुराई लेने से बच गए।
सही नहीं है निर्णय
गौरतलब है कि 16 नगर निगम के महापौर समेत अधिकांश नगर पालिका और नगर परिषद पर भाजपा के अध्यक्ष हैं, लेकिन चर्चा है कि प्रदेश में सरकार बनाने के बाद कांग्रेस इन निकायों पर अपना कब्जा चाहती है। इसी मकसद से अधिनियम में संशोधन किया गया है। भाजपा पार्षदों द्वारा महापौर और अध्यक्ष चुनने की प्रणाली को सही नहीं मानती है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि निकाय चुनाव में बदलाव कर कांग्रेस ने यह तो साफ कर दिया है कि उसे जनता पर विश्वास नहीं है। इसलिए उसने जनता के हाथ से महापौर चुनने का अधिकार छीन लिया है। यही नहीं कांग्रेस सरकार कई निकाय अध्यक्षों को हटा रही है, ताकि वे चुनाव में भाग न ले सकें। यह निर्णय बहुत गलत है, अभी तक जनता महापौर को चुनती थी, जिससे चुनाव पूरी तरह से निष्पक्ष रहता था। लेकिन अब पार्षद चुनेंगे तो खरीद-फरोख्त को बढ़ावा मिलेगा। भ्रष्टाचार अधिक रहेगा और महापौर निष्पक्ष कार्य करने के बजाय दबाव में कार्य करेंगे।
वर्ष 2000 में मप्र की दिग्विजय सरकार ने नगर पालिक निगम विधि संशोधन अध्यादेश लाकर अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली को बदलकर प्रत्यक्ष प्रणाली लागू की थी। तब भोपाल में पहली बार प्रत्यक्ष प्रणाली के तहत हुए चुनाव में कांग्रेस की विभा पटेल मेयर चुनी गई थीं। अप्रत्यक्ष प्रणाली के तहत भोपाल के आखिरी महापौर भाजपा के उमाशंकर गुप्ता थे। शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि आखिर कांग्रेस सरकार ने जनता के हाथ से उनका अधिकार क्यों छीना है। वह कहते हैं कि अपने एक साल के कार्यकाल में सरकार जनता का भरोसा जीत नहीं पाई है। इसलिए ऐसे तिकड़म का सहारा ले रही है। वहीं राकेश सिंह का कहना है कि मप्र की कमलनाथ सरकार नगरीय निकाय चुनावों में जनता का सामना करने से डर रही है। सरकार को हार का डर सता रहा है, इसलिए निर्धारित समय पर निकाय चुनाव नहीं कराए गए। अब सरकार निकायों में प्रशासक नियुक्त कर रही है। ताकि, वह चिन्हित अधिकारियों के माध्यम से अपने हिसाब से नगरीय निकायों का संचालन कर मनमाने निर्णय ले सके।
पार्षदों का भी मान बढ़ेगा
उधर, कांग्रेस नेताओं का कहना है कि राज्य शासन के निर्णय से परिषद को मजबूती मिलेगी और पार्षदों का भी मान बढ़ेगा। महापौर का कद अब पहले से अधिक बड़ा होगा और परिषद में लिए गए निर्णय को अधिकारी तवज्जो देंगे। परिषद की गरिमा पहले से काफी बढ़ जाएगी, शहर विकास के कार्यों को बेहतर तरीके से किया जा सकेगा। राज्य शासन के निर्णय से महापौर को अधिक शक्ति मिलेगी और वह पहले से बेहतर तरीके से कार्य कर सकेंगे। पार्षदों की बातों को अधिकारी अभी नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। परिषद की महत्ता भी बढ़ेगी। शहर विकास से जुड़े निर्णय लिए जा सकेंगे।
नगरीय प्रशासन मंत्री जयवद्र्धन सिंह ने संशोधनों को लेकर स्पष्ट किया है कि मौजूदा व्यवस्था में नगरीय निकायों के अध्यक्ष तथा महापौर का निर्वाचन जनता प्रत्यक्ष व्यवस्था के माध्यम से करती है। इस व्यवस्था के कारण कई बार अध्यक्ष और चुने गए पार्षदों के बीच समन्वय में कमी रह जाती थी। इससे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर निर्णय अटके रहते थे और नगरों का विकास प्रभावित होता था। इसको देखते हुए संशोधन किया गया है।
धनबल-बाहुबल का प्रयोग
विधायक एवं इंदौर नगर निगम की महापौर मालिनी गौड़ कहती हैं कि महापौर के लिए अभी अच्छे लोग आते थे, इसके बाद ऐसे लोग महापौर बनने के लिए कूद पड़ेंगे जो धनबल और बाहुबल का भी प्रयोग कर सकते हैं। महापौर के चुनाव में अभी तक कोई गड़बड़ी नहीं होती थी, लेकिन अब खरीद-फरोख्त शुरू हो जाएगी, जो शहर के विकास के लिए सही नहीं होगा।
उधर, सरकार का मानना है कि मप्र नगर पालिक विधि संशोधन अध्यादेश-2019 के लागू होने से महापौर के चुनाव में करीब 30-35 करोड़ रुपए बचेंगे। भोपाल में ही करीब 3 करोड़ रुपए चुनाव में खर्च होने का अनुमान रहता है। उधर, राजनीतिक दलों के खर्चों को भी जोड़ा जाए तो अप्रत्यक्ष तौर पर महापौर के चुनाव में खर्च होने वाली राशि शासकीय खर्च का 5 से 6 गुना होती है। वहीं ऑल इंडिया मेयर्स काउंसिल के संगठन मंत्री उमाशंकर गुप्ता का कहना है कि पार्षदों द्वारा महापौर चुनने से खरीद-फरोख्त की संभावना है।
गौरतलब है कि भोपाल-इंदौर जैसे बड़े निगमों में मेयर के चुनाव खर्च की सीमा अभी तक 35 लाख रुपए है, लेकिन चुनाव में 5 से 6 करोड़ रुपए खर्च होता है। छोटे निगमों में मेयर चुनाव की खर्च राशि 15 लाख रुपए है, जबकि इन पर 1 करोड़ रुपए तक खर्च होता था। चुनाव खर्च की यह सीमा 2011 की जनसंख्या के हिसाब से तय की गई थी। भाजपा की आशंका है कि इस बार महापौर का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होने के कारण पार्षदों की खरीद-फरोख्त होगी। इसके लिए धनबल और बाहुबल का प्रयोग होगा।
दल-बदल बढ़ेगा
भाजपा ने सरकार के इस फैसले का इसलिए विरोध किया है कि उसे यह आशंका है कि अप्रत्यक्ष प्रणाली से महापौर और अध्यक्षों के चुनाव हुए तो उसको नुकसान हो सकता है। जबकि कांग्रेस अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव करवाकर प्रदेश की ज्यादा से ज्यादा नगर निगमों, नगर पालिकाओं और नगर परिषदों में अपने समर्थकों को महापौर और अध्यक्ष बनाना चाहती है। मध्यप्रदेश में नगरीय निकाय चुनावों का गणित देखा जाए तो दोनों ही प्रमुख पार्टियों के 40-40 प्रतिशत पार्षद जीतते हैं। वहीं, निर्दलीय और अन्य दलों के पार्षद 20 प्रतिशत पर ही सिमट जाते हैं। कमलनाथ सरकार के इस फैसले के बाद कांग्रेस समर्थित पार्षदों के अलावा निर्दलीय और अन्य दल के पार्षद भी सत्ताधारी दल के साथ आना चाहेंगे। जिसके चलते प्रदेश के ज्यादातर नगरीय निकायों में कांग्रेस समर्थित जनप्रतिनिधियों की जीत होगी।
हाल ही में छत्तीसगढ़ में भी अप्रत्यक्ष प्रणाली से महापौर और अध्यक्षों के चुनाव हुए हैं। कई जगह यह देखने को मिला है कि बराबरी की स्थिति होने के बाद भी कांग्रेस का महापौर बना है। इसी आशंका को देखते हुए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव कहते हैं कि प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव में बदलाव को लेकर सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश पर राज्यपाल का फैसला सर्वमान्य है, लेकिन इससे पार्षदों की खरीद-फरोख्त रोकने के लिए सरकार को नगरीय निकायों में दल-बदल रोकने का कानून लागू करना चाहिए। वह कहते हैं कि भारत में शायद मध्य प्रदेश ही ऐसा राज्य है, जहां पर जनता से सीधे अध्यक्ष और महापौर चुनने की व्यवस्था है। साथ ही अगर चुना हुआ जनप्रतिनिधि भ्रष्ट, निकम्मा और अलोकप्रिय हो तो उसे वापस बुलाने का अधिकार (राइट टू रिकॉल) भी मध्यप्रदेश में सिर्फ भाजपा शासन में लागू हुआ। इस अध्यादेश से जनप्रतिनिधियों में निरंकुशता बढ़ेगी और चुने गए जनप्रतिनिधि मनमानी करेंगे।
महापौर का नहीं हो पाएगा रिकॉल
नगर पालिका अधिनियम में संशोधन से यह स्पष्ट हो गया है कि महापौर का चुनाव अब जनता के बजाय चुने हुए पार्षद ही करेंगे और वे ही सभापति भी चुनेंगे। ये दोनों निर्वाचन एक ही दिन होंगे। यह भी अहम है कि महापौर व सभापति निर्वाचित पार्षदों में से ही चुने जाएंगे। नए नियमों के तहत इस प्रक्रिया की जिम्मेदारी संभागायुक्त या कलेक्टर से लेकर राज्य निर्वाचन आयोग को सौंप दी गई है। सरकार ने महापौर, नगर पालिका अध्यक्षों को वापस बुलाने (रिकॉल) के अधिकार को खत्म कर दिया है। इसके लिए धारा 23 विलोपित की है। पहले किसी महापौर या अध्यक्ष से चुने हुए दो तिहाई पार्षद या इससे अधिक संतुष्ट नहीं होते थे तो खाली-भरी कुर्सी के नाम से दोबारा चुनाव की मांग करते थे। इसके जरिए प्रदेश में कुछ अध्यक्षों की कुर्सी भी गई। नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर अभय राजनगांवकर के मुताबिक, रिकॉल पद्धति स्विट्जरलैंड से ली गई थी। इसमें शहर की जनता और उसके चुने हुए दो तिहाई जनप्रतिनिधि चाहें तो अध्यक्ष या महापौर को हटा सकते हैं। खरगोन जिले के करही में ऐसा हुआ, जहां अध्यक्ष भाजपा की थीं। उनके खिलाफ असंतोष के बाद चुनाव दोबारा हुए।
अब बदलेंगे चुनावी समीकरण
राज्य सरकार के फैसले के बाद शहर में निगम चुनाव के समीकरण बदलेंगे। महापौर के प्रत्यक्ष चुनाव होने से पार्टी वरिष्ठ नेता को ही मैदान में उतारती थी। दूसरी-तीसरी लाइन में नेता पार्षद चुनाव लड़ते थे, पर अब बड़े नेताओं को भी जोर-आजमाइश करनी होगी। उधर, शहर के वार्डों का आरक्षण हो चुका है। लेकिन अब अगर परिसीमन की प्रक्रिया होती है फिर से वार्ड आरक्षण होगा, इस स्थिति में भी बहुत जगह बदलाव देखने को मिलेंगे। नगर निगम महापौर का चुनाव पार्षदों द्वारा तय कराने की शासन की घोषणा के बाद विधायक-मंत्री स्तर के शहर के कई बड़े नेता पार्षद का चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। कई बार पार्षद का चुनाव जीत चुके वरिष्ठ पार्षद भी महापौर बनने की उम्मीद में खुद को दावेदार मान रहे हैं। दिसंबर- जनवरी में नगर निगम चुनाव की तारीखें घोषित होने के साथ ही शहर के कई पूर्व सांसद-विधायक, पार्टियों के जिलाध्यक्ष समेत पूर्व मंत्री तक पार्षद के चुनाव की टिकिट की लाइन में खड़े नजर आ सकते हैं। कारण स्पष्ट है, महापौर वही बनेगा जो पार्षद का चुनाव जीतेगा। अभी नगर निगम भोपाल में 85 वार्ड हैं। मौजूदा परिषद के 85 पार्षदों में महापौर को छोड़ दें तो नौ पार्षद दो बार से अधिक यानि बीते दस साल से पार्षद पद पर बने हुए हैं। इनमें से कुछ इससे भी अधिक समय से पार्षद हैं। अब जब पार्षद को महापौर बनने का मौका मिल रहा है तो ये दावेदारी करते हुए बड़े नेताओं की राह में दिक्कत खड़ी कर सकते हैं।
महापौर पर अतिरिक्त दबाव
अप्रत्यक्ष प्रणाली से महापौर का चुनाव कराने से नगरीय निकायों में पार्षद मजबूत होंगे। इस प्रणाली के तहत चुने महापौर या अध्यक्ष पर दबाव और अविश्वास प्रस्ताव आने की आशंकाएं लोग जताने लगे हैं। कुछ पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष और पूर्व अध्यक्षों से चर्चा के दौरान यह बात सामने आई है कि अप्रत्यक्ष प्रणाली से पार्षद मजबूत हो जाएंगे और अध्यक्ष पर दबाव भी बना रहेगा। कुर्सी से हटाने के लिए सौदेबाजी भी हावी रहेगी और भ्रष्टाचार बढऩे की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। पूर्व महापौरों व पूर्व अध्यक्षों से जब प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रणाली में से बेहतर प्रणाली के बारे में जाना तो अधिकांश प्रत्यक्ष प्रणाली के पक्ष में रहे। उनका मानना है कि प्रत्यक्ष प्रणाली में अध्यक्ष को पूरा शहर चुनता है और जनता की भागीदारी रहती है। इससे उसकी जबावदेही भी पूरे शहर के प्रति रहती है। अप्रत्यक्ष प्रणाली में दोनों तरह के पार्षद शामिल रहेंगे, अध्यक्ष को बनाने वाले और हराने वाले। ऐसे में अध्यक्ष और पार्षदों के बीच आपसी द्वंद्व भी बढ़ सकते हैं। इससे शहर के विकास पर प्रभाव पड़ सकता है।
खंडवा के महापौर सुभाष कोठारी का कहना है कि महापौर को जब पार्षद चुनेंगे तो वहां अतिरिक्त दबाव होगा। उन्हें संतुष्ट करना मुश्किल होगा। जबकि जनता की भागीदारी खत्म हो जाएगी। महापौर भी जनता से ज्यादा पार्षदों के प्रति खुद को जवाबदेह मानेगा। विकास में बाधाएं आएंगी। वहीं खंडवा नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष अहमद पटेल कहते हैं कि लगातार अविश्वास प्रस्ताव को देखते हुए दिग्विजय सिंह शासनकाल में ही बदलाव किया था। मुख्यमंत्री कमलनाथ से हम सभी नेता प्रतिपक्षों ने मांग की थी कि पार्षद ही महापौर चुने। धु्रवीकरण नहीं होगा तो कांग्रेस को लाभ मिलेगा। ये अच्छा निर्णय है।
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राकेश सिंह ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं और कहा है कि कांग्रेस इसलिए अप्रत्यक्ष चुनाव के पक्ष में है, ताकि वह धनबल, बाहुबल और सरकार के दबाव के दम पर नगर निगमों में अपने महापौर बैठा सके। प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने इसीलिए कानून में परिवर्तन किया है, ताकि वे पार्षदों की खरीद-फरोख्त करके अपना महापौर बना सके। कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता हफीज अब्बास का कहना है, कांग्रेस हमेशा संविधान का सम्मान करती है और नियमों के मुताबिक ही फैसले लेती है। भाजपा अपनी सुविधा के अनुसार कानून की व्याख्या करती है। जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहां अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव होते हैं तो कोई बात नहीं और अगर कांग्रेस शासित राज्यों में यह प्रक्रिया अपनाई जाती है तो सवाल उठाते हैं। भाजपा पार्षदों की निष्ठा पर सवाल उठाकर और खरीद-फरोख्त की बात करके आम मतदाता का अनादर कर रही है।
शुरू हो जाएगा कुर्सी का खेल
जानकारों का कहना है की पार्षदों द्वारा महापौर या अध्यक्ष चुने जाने के बाद कुर्सी का खेल शुरू हो जाएगा। आए दिन अविश्वास प्रस्ताव और कुर्सी बचाने का खेल होगा। महापौरों और अध्यक्षों का ध्यान पार्षदों को खुश करने में लगा रहेगा। इससे विकास भी प्रभावित होगा। गुना नपा के पूर्व अध्यक्ष सूर्य प्रकाश तिवारी कहते हैं कि अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव महंगा होगा। विकास की गति थम जाएगी। पार्षद सौदबाजी करेंगे। इससे भ्रष्टाचार बढ़ेगा। अध्यक्ष काम के बजाय, अपनी कुर्सी बचाने में लगा रहेगा। जनहित के लिए अध्यक्ष को सीधे चुना जाना चाहिए। इससे उनकी जबावदेही भी जनता के लिए प्रति रहेगी। वह कहते हैं कि गुना नपा में ही एक बार अध्यक्ष को बीच में अपना पद छोडऩा पड़ा था। कांग्रेस की गुटबाजी के चलते उनको पद छोडऩा पड़ा। उस समय कांग्रेस से रतन सोनी अप्रत्यक्ष प्रणाली से अध्यक्ष चुने गए थे। लेकिन पार्टी का अंदरूनी विवाद इतना बढ़ा कि उनको इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद नेमीचंद जैन एडवोकेट को अध्यक्ष बनाया गया था। गुना नपा अध्यक्ष राजेंद्र सलूजा कहते हैं कि प्रत्यक्ष प्रणाली में जनता नेता चुनती है। जबकि अप्रत्यक्ष में पार्षद अध्यक्ष चुनेंगे। इस प्रणाली से अध्यक्ष को हटाने के अविश्वास प्रस्तावों की बाढ़ सी आ जाएगी। इससे काम नहीं होगा। भ्रष्टाचार बढ़ेगा। जिला पंचायत के चुनाव भी डायरेक्ट होना चाहिए।
नगरीय निकाय चुनाव में इस बार कांग्रेस सरकार बड़ा बदलाव करने की चर्चा इस समय राजनीतिक गलियारों में जोर पकड़ती दिख रही है। इसके पीछे की वजह ज्यादा से ज्यादा नगरीय निकायों में कांग्रेस के कब्जा करने की मंशा को बताया जाता है। इस संबंध में कांग्रेस के संगठन प्रभारी चंद्रप्रभाष शेखर के अनुसार मुख्य कारण ये है कि सभी जगहों का पूर्ण विकास हो, क्योंकि जब महापौर आदि विधायक बन जाते हैं तो वे केवल अपने क्षेत्र का ही विकास करते हैं। जबकि अन्य क्षेत्र विकास की दौड़ में ऐसा करने से पिछड़ जाते हैं।
प्रशासकों के हवाले निकाय
दिसंबर 2019 से फरवरी 2020 तक 287 नगरीय निकायों का कार्यकाल पूरा होगा। यहां कार्यकाल पूरा होने के पहले चुनाव नहीं हो पाए हैं और अगले दो-तीन महीने उसकी संभावना भी नहीं है। इस माह के अंत तक 288 निकायों की बागडोर प्रशासकों के हाथ में पहुंच जाएगी। समय से निकाय चुनाव नहीं होने से सरकार को यहां प्रशासक नियुक्त करना पड़ रहा है। वहीं प्रदेश के 16 में से 14 नगर निगमों का कार्यकाल खत्म हो रहा है। 7 निगमों में प्रशासक नियुक्त किए जा चुके हैं। इस माह में बुरहानपुर, ग्वालियर व खंडवा और फरवरी में भोपाल, इंदौर, जबलपुर व छिंदवाड़ा ननि का कार्यकाल पूरा हो रहा है। यहां भी प्रशासक या प्रशासनिक समिति नियुक्त होगी। उज्जैन नगर निगम का कार्यकाल 3 सितंबर व मुरैना का 8 सितंबर को खत्म होगा, यहां प्रशासक की जरूरत नहीं पड़ेगी। राकेश सिंह ने कहा कि कांग्रेस नगरीय निकाय चुनावों से डरी हुई है जो चुनावों को टालते हुए नगरीय निकायों में अपने चयनित अफसरों को प्रशासक बना रही है। राकेश सिंह ने प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव जल्द से जल्द कराने की मांग की है और चेतावनी दी है कि अगर किसी भी नगरीय निकाय के प्रशासक ने गड़बड़ी भरे निर्णय लिए तो भाजपा सड़क पर उतरकर आंदोलन करेगी।
भोपाल शहर का बंटवारा तय
मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में दो नगर निगम का बनना अब तय हो गया है। भाजपा के तमाम विरोधों के बाद भी राज्य सरकार ने भोपाल में दो नगर निगम बनाने का प्रस्ताव राज्यपाल को मंजूरी के लिए भेज दिया है। राज्यपाल के मुहर लगाने के बाद राजधानी में दो नगर निगम बनाने की अधिसूचना जारी होगी। भोपाल शहर के बंटवारे को लेकर बीजेपी के तमाम दिग्गज नेताओं ने सड़क से लेकर राजभवन तक कई बार ज्ञापन देकर अपना विरोध दर्ज कराया था। लेकिन कमलनाथ सरकार ने अब दो नगर निगमों का प्रस्ताव राज्यपाल की मंजूरी के लिए भेजकर अपने कदम से पीछे हटने से इनकार कर दिया है।
निकायों से और हटेंगे अध्यक्ष हाईपॉवर कमेटी करेगी कंट्रोल
प्रदेश में नगरीय निकाय चुनावों के पहले सरकार और अध्यक्षों को हटाएगी। आधा दर्जन अध्यक्षों पर जांचें चल रही हैं। इसके चलते इनका कार्यकाल पूरा होने के पहले गाज गिर सकती है। जबकि, सियासी नफे-नुकसान के आकलन के बीच सरकार हाईपॉवर कमेटी गठित करके निकायों का कंट्रोल दे सकती है। इसके लिए विधि विभाग ने भी मंजूरी दे दी है। निकाय चुनावों को लेकर कांग्रेस पूरी तरह गंभीर है। ऐसे में निकाय चुनाव के लिए हर स्तर पर बिसात बिछना शुरू हो गई है। मार्च के बाद निकाय चुनाव होना हैं, लेकिन इसमें और देरी हो सकती है। सरकार ने पिछले हफ्ते चार नगरीय निकाय के अध्यक्षों को हटा दिया, जिससे वे आगामी निकाय चुनाव में शिरकत करने से बाहर हो गए हैं। वजह ये कि जब तक उन पर जांच चल रही है। नियमों के हिसाब से निकायों का कार्यकाल पूरा होने के पहले ही चुनाव करना अनिवार्य है, लेकिन यदि चुनाव नहीं होते हैं तो आगे क्या करना है, इस पर कानून में कुछ नहीं लिखा। नियम सिर्फ यह कहता है कि चुनाव न होने पर वह प्रक्रिया अपनाई जा सकती है, जो विधि के असंगत न हो। इसके चलते निकायों में प्रशासक बैठाने की प्रक्रिया चल रही है। इस पर जब सियासी सवाल उठने लगे, तो सरकार ने अब हाईपॉवर कमेटी बनाकर संचालन कराने रास्ता निकालने की तैयारी कर ली है। विधि विभाग ने लिखा है कि हाईपॉवर कमेटी बनाकर निकायों का संचालन कराया जा सकता है।
निकाय चुनाव पर तकरार
मध्य प्रदेश नगर निकाय चुनाव को लेकर भाजपा और कांग्रेस में तकरार का दौर जारी है। वार्ड आरक्षण की तारीख बढ़ाने और अप्रत्यक्ष तरीके से चुनाव कराए जाने को लेकर भाजपा ने प्रदेश सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं और हमला बोला है। वहीं कांग्रेस नियमानुसार कदम उठाने का हवाला दे रही है। राज्य में नगर निकाय वार्डों का आरक्षण 30 दिसंबर तक किया जाना था, मगर इसे अब बढ़ाकर 30 जनवरी, 2020 कर दिया गया है। इसके चलते नगर निकाय के चुनाव फरवरी से पहले होना संभव नहीं है। इतना ही नहीं भोपाल को दो नगर निगमों में बांटने का प्रस्ताव राज्यपाल के पास लंबित है। नगर निकाय चुनाव के लिए वार्डों के आरक्षण के लिए नगर विकास विभाग ने सभी कलेक्टर्स को निर्देश जारी कर कहा कि नियम-प्रक्रिया के तहत ही वार्ड परिसीमन किया जाए। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में अप्रत्यक्ष प्रणाली से हुए नगर निकाय चुनाव में कांग्रेस को बढ़त मिली है। इससे राज्य की कांग्रेस इकाई उत्साहित है, वहीं भाजपा को इस बात की चिंता सता रही है कि कहीं छत्तीसगढ़ जैसे ही नतीजे मध्य प्रदेश में न आ जाएं। वर्तमान में राज्य के नगर निकायों पर भाजपा का कब्जा है। नगरीय निकाय चुनाव मे महापौर पद के लिए अप्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव कराने के राज्य सरकार के निर्णय को चुनौती देने वाली पुनर्विचार याचिका को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच के संयोजक डॉ. पीजी नाजपांडे के द्वारा दायर इसी तरह की याचिका को हाईकोर्ट ने पूर्व में भी खारिज कर दिया था लेकिन हाईकोर्ट ने उन्हे व्यक्तिगत आधार पर याचिका दायर करने की स्वतंत्रता दी थी जिसके चलते उन्होंने यह याचिका दायर की थी और एक बार फिर अदालत को बताया था कि नगरीय चुनाव में महापौर और नगर पालिका और जिला पंचायत के अध्यक्षों के चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से कराए जाने के नियम में राज्य सरकार ने गलत ढंग से संशोधन किया है। हाईकोर्ट ने इस पुनर्विचार याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि राज्य सरकार ने नियम का पालन करते हुए संशोधन किया है और अप्रत्यक्ष प्रणाली से महापौर के चुनाव कराने का निर्णय लिया है जो कि पूरी तरह से सही है।
नगरीय निकायों में जीत की तैयारी में जुटी भाजपा
प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के बाद अब भाजपा ने पूरा फोकस नगरीय निकायों व पंचायतों में एक बार फिर जीत हासिल करने तैयारियां शुरू कर दी है। अगले कुछ माह के दौरान यह दोनों चुनाव होना है। दरअसल भाजपा को लग रहा है कि अब प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता होने की वजह से उनके कार्यकर्ताओं के मनोबल पर विपरीत असर पड़ सकता है, जबकि सरकार की वजह से मुख्य प्रतिद्वंदी दल कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा हुआ है। ऐसे हालात में नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव प्रभावित न हों, इसे लेकर पार्टी जल्द ही रणनीति बनाकर काम शुरू करने की तैयारी कर रही है। योजना के तहत संगठन अपने बड़े नेताओं को संभागों की जिम्मेदारी देने जा रही है, ताकि वे चुनाव से पहले निकाय स्तर पर जाकर तैयारी कर सकें। फिलहाल पार्टी ने नगरीय निकाय चुनाव के लिए गठित समिति की बागडोर पूर्व संगठन महामंत्री कृष्णमुरारी मोघे को सौंप दी है। फिलहाल प्रदेश की अधिकतर नगर निगमों पर भाजपा का कब्जा है पर कांग्रेस सरकार बनने के बाद नगरीय निकाय चुनाव में इस बार कड़ी टक्कर होने की संभावना है। ऐसे हालात में पार्टी की तैयारी है कि हर नगर निगम में पार्षद से महापौर तक के टिकट के लिए चेहरे चिन्हित करने और सर्वे कराने आदि का काम प्रदेशाध्यक्ष के चुनाव के बाद प्रारंभ कर दिया जाए। पार्टी इन चुनावों में नए चेहरों को आगे बढ़ाने पर विचार कर रही है। जानकारी के मुताबिक भाजपा विधानसभा चुनाव 2018 की गलती न दोहराकर नगरीय निकाय चुनाव में नई पीढ़ी को सामने लाना चाहती है। पार्टी नेताओं की मानें तो राजनीति के पायदान पर ये छोटे चुनाव बेहद अहम होते हैं। यहां से एंट्री के बाद ही नए चेहरे विधानसभा और लोकसभा तक जाते हैं। संगठन चुनाव के बाद ही पार्टी नए चेहरों की तलाश शुरू कर देगी। पिछले चुनाव में भाजपा सभी 16 नगर निगम में काबिज हो गई थी, लेकिन सत्ता परिवर्तन के साथ इस बार पुराने परिणामों को दोहराना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। इसी हिसाब से पार्टी अपनी रणनीति बनाएगी।
24 जिलों में नहीं हुई पदों के आरक्षण की कार्रवाई, लेट होंगे निकाय चुनाव
मध्य प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव में देरी हो सकती है। क्योंकि अब तक प्रदेश के 24 जिलों में नगर पालिका निगम, नगर पालिका परिषद और नगर परिषदों में महापौर और अध्यक्षों के पदों पर आरक्षण की कार्रवाई पूरी नहीं की गई है। बार-बार निर्देश दिए जाने के बावजूद अब तक सागर, जबलपुर, विदिशा, सीहोर, पन्ना, आगर मालवा, गुना, झाबुआ, अलीराजपुर, खरगोन, देवास, धार, नरसिंहपुर, बुरहानपुर, मुरैना, डिंडोरी, मंडला, रतलाम, शहडोल, श्योपुर, शाजापुर, हरदा, होशंगाबाद से निवाड़ी जिलों के कलेक्टरों ने जानकारी शासन को नहीं भेजी है। आयुक्त नगरीय प्रशासन पी. नरहरि ने इसके लिए कलेक्टरों को फटकार लगाते हुए कार्रवाई जल्द पूरी करने के निर्देश देते हुए वर्ष 2011 की जनगणना अनुसार जनसंख्या की जानकारी जल्द भेजने के निर्देश जिला कलेक्टर्स को दिए हैं। उन्होंने कहा है कि जानकारी निर्धारित प्रपत्र में ही भेजें। यह निर्देश उन जिलों को दिए गए हैं, जिन्होंने अभी तक यह जानकारी नहीं भेजी। दरअसल, नगरीय प्रशासन विभाग ने नगरीय निकायों में महापौर अध्यक्षों के पदों के आरक्षण के लिए वर्ष 2011 की जनसंख्या के आधार पर कार्रवाई करने के लिए मई, जुलाई और अक्टूबर में कलेक्टरों को निर्देश दिए थे लेकिन तीन बार स्मरण कराने के बाद भी 24 जिलों के कलेक्टरों ने इस संबंध में कार्यवाही नहीं की है। इसके कारण चुनाव प्रक्रिया लंबी खिंच सकती है।
- राजेंद्र आगाल