02-Jan-2020 08:35 AM
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नागरिकता संसोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर देशभर में बवाल मचा हुआ है। कई राज्यों में आगजनी और खून खराबे तक हो चुके हैं। ऐसे-ऐसे लोग शोर मचा रहे हैं, जिनको इनके बारे में जानकारी नहीं है। हर कोई भीड़ का हिस्सा बनकर हंगामे पर उतरा हुआ है। वहीं कुछ राजनीतिक पार्टियों द्वारा सीएए की गलत व्याख्या कर जनमानस को उद्वेलित किया जा रहा है।
भारत जल रहा है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है यह अधिकांश लोगों को पता ही नहीं है। बिना सोचे-समझे और पढ़े नागरिकता संशोधन कानून पर बवाल मचा हुआ है। दरअसल, मामला शरणार्थियों से जुड़ा है। शरणार्थियों का मुद्दा फिलवक्त यूरोप, अमेरिका समेत दुनिया के कई मुल्कों में है। स्थानीय लोग हर देश में बाहर से आने वालों का विरोध कर रहे हैं। अपने मुल्क का मसला कुछ अलग है। काफी हद तक जटिल भी। पर एक आसान सी बात है जो सबको समझ आनी चाहिए। जिनके बाप-दादा आजादी के बाद से यहीं रह रहे हैं, उनका कोई भी सरकार कुछ नहीं बिगाड़ सकती। असम व उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों में रहने वालों की कुछ चिंताएं वाजिब हो सकती हैं। पर बाकी देश में क्या दिक्कत है। अगर कानून से दिक्कत है तो सुप्रीम कोर्ट देखेगा। पर सड़कों पर बवाल क्यों? शायद इस कानून को प्रचारित ही ऐसे किया गया कि मानो इससे देश के अल्पसंख्यक खतरे में पड़ जाएंगे।
नागरिकता संशोधन कानून 2019 पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अप्रवासियों को शामिल करता है। नागरिकता कानून 1955 के अनुसार, एक अवैध अप्रवासी नागरिक को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती है। अवैध अप्रवासी का अर्थ उस व्यक्ति से है जो भारत में या तो वैध दस्तावेजों के बिना दाखिल हुआ है अथवा निर्धारित समय से अधिक भारत में रह रहा है। सरकार ने 2015 में इन तीन देशों के गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारत में आने देने के लिए पासपोर्ट और विदेशी एक्ट में संशोधन किया था। यदि उनके पास वैध दस्तावेज नहीं हैं तो भी वह भारत में आ सकते है।
विपक्ष का सवाल
प्रमुख विपक्षी दलों का कहना है कि विधेयक देश के करीब 15 फीसदी मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है, जिन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया है। हालांकि सरकार ने कहा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान मुस्लिम राष्ट्र हैं। वहां पर मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, ऐसे में उन्हें उत्पीडऩ का शिकार अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता है। उन्होंने आश्वासन दिया है कि सरकार दूसरे समुदायों की प्रार्थना पत्रों पर अलग-अलग मामले में गौर करेगी।
विधेयक की पृष्ठभूमि
एनडीए सरकार के चुनावी वादों में से यह एक है। आम चुनावों के ठीक पहले यह विधेयक अपनी शुरुआती अवस्था में जनवरी 2019 में पास हुआ था। इसमें छह गैर मुस्लिम समुदायों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए भारतीय नागरिकता मांगी गई। इसमें नागरिकता के लिए बारह साल भारत में निवास करने की आवश्यक शर्त को कम करके सात साल किया गया। यदि नागरिकता चाहने वाले के पास कोई वैध दस्तावेज नहीं है तो भी। इस विधेयक को संयुक्त संसदीय कमेटी के पास भेजा गया था, हालांकि यह बिल पास नहीं हो सका क्योंकि यह राज्यसभा में गिर गया था।
विधेयक के विपक्ष में
यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद-14 यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और माकपा सहित अन्य कुछ प्रमुख राजनीतिक दल विधेयक का मुखर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि नागरिकता धर्म के आधार पर नहीं होनी चाहिए। देश के उत्तर पूर्वी राज्यों असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम में विधेयक के खिलाफ व्यापक पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
इसलिए है विरोध
उत्तरपूर्वी राज्यों में विधेयक का भारी विरोध है। यहां पर व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। लोग महसूस करते हैं कि अवैध प्रवासियों के स्थायी रूप से बसने के बाद स्थानीय लोगों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। साथ ही आगामी समय में संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा और पहले से यहां रह रहे लोगों के लिए रोजगार के अवसरों में कमी आएगी। लोगों का एक बड़ा वर्ग और संगठन विधेयक का विरोध इसलिए भी कर रहे हैं कि यह 1985 के असम समझौते को रद्द कर देगा। असम समझौते के अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद असम में आए लोगों की पहचान कर बाहर निकाला जाए। अब नागरिकता संशोधन विधेयक में नई सीमा 2019 तय की गई है। अवैध प्रवासियों के निर्वासन की समय सीमा बढ़ाने से लोग नाराज हैं।
कितने लोग जुड़ेंगे
संसदीय समिति के अनुसार, दूसरे देशों के रहने वाले इन अल्पसंख्यक समुदायों के 31 हजार 313 लोग लंबी अवधि के वीसा पर रह रहे हैं। यह लोग धार्मिक उत्पीडऩ के आधार पर शरण मांग रहे हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार, इन 31 हजार 313 लोगों में 25 हजार 447 हिंदू, 5 हजार 807 सिख, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2 पारसी शामिल हैं।
सरकार के तर्क संगतपूर्ण नहीं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह बार-बार दोहरा रहे हैं कि नागरिकता कानून का असर किसी भारतीय नागरिक पर नहीं पड़ेगा। तथ्य के तौर पर यह बात सही भी है। जो कानून बनाया गया है, वह तीन देशों-पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन अल्पसंख्यक घुसपैठियों के लिए है जो 2014 से पहले भारत आ गए हैं। इसका कोई वास्ता यहां रहने वाले अल्पसंख्यकों से नहीं है। लेकिन यह मोटी सी बात लोगों को समझ में क्यों नहीं आ रही है? प्रधानमंत्री के मुताबिक ये लोग क्यों विपक्ष के बहकावे में आ रहे हैं? क्योंकि इस कानून में और इसके आगे पीछे बने और बदले गए कुछ और कानूनों में कुछ ऐसा है जो एक समुदाय के भीतर सौतेलेपन का एहसास भर रहा है। आखिर पहली बार भारत में नागरिकता देने के प्रावधानों को धार्मिक पहचान से जोड़ा गया है और बाकायदा नाम लेकर एक समुदाय को इससे अलग रखा गया है।
सरकार कानून लेकर क्यों आई?
दरअसल यह बात बिल्कुल समझ से बाहर है कि अगर सरकार का कोई सांप्रदायिक इरादा नहीं था तो वह अभी और ऐसा कानून लेकर क्यों आई? इसकी क्या ज़रूरत थी? सरकार की दलील है कि वह पड़ोसी देशों में धार्मिक आधार पर उत्पीडि़त अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता का रास्ता बना रही है। लेकिन क्या इस कानून के बिना इन लोगों के लिए नागरिकता का रास्ता खुला नहीं है? सच तो यह है कि मौजूदा कानूनों के तहत ही ऐसे अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता लगातार प्रदान की जा रही है। बीते हफ्ते राज्यसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने जानकारी दी कि 2016 से 2018 के बीच कुल 1988 लोगों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई। इनमें 1595 पाकिस्तान से आए प्रवासी हैं और 391 अफगानिस्तान से। यही नहीं, 2019 में भी 712 पाकिस्तानी और 40 अफगानी लोगों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई। यानी ज्यादा से ज्यादा इस प्रक्रिया को तेज करने की जरूरत थी।
कितनों को होगा लाभ?
हैरानी की बात यह है कि सरकार ने कानून तो बना दिया, लेकिन उसे ठीक से नहीं पता कि इसका लाभ कितने लोगों को मिलेगा। फिलहाल जो टूटे-फूटे आंकड़े सामने आ रहे हैं- सरकार की ओर से जारी दीर्घावधिक वीजा की मार्फत-उससे लगता नहीं कि कुछ लाख लोगों से ज्यादा को इस कानून का फायदा मिलना है। सवा अरब की आबादी के लिहाज से ये एक बहुत मामूली संख्या है। तो अगर सरकार किसी इरादे से संचालित नहीं थी तो उसने इतना बड़ा कदम क्यों उठाया? क्या इसलिए कि अपने हिंदू प्रेम में उसने तथ्यों से भी आंख मूंद ली? संसद में गृहमंत्री ने कहा कि विभाजन के समय पाकिस्तान में 23 फीसदी से ज्यादा हिंदू थे। वे घटकर तीन फ़ीसदी से नीचे चले आए। क्या यह बात सही है? इस मामले में हिंदी के युवा बौद्धिक और लेखक हिमांशु पंड्या ने विस्तार में लिखा है। उनका कहना है कि 1947 में जनगणना नहीं हुई थी। 1941 में जो जनगणना हुई थी, उसके मुताबिक पाकिस्तान में 22 फीसदी अल्पसंख्यक थे। लेकिन 1947 में आबादी इस हद तक इधर-उधर हुई कि पुरानी जनगणना बेमानी हो गई। विकिपीडिया के मुताबिक 1951 की जनगणना में पाकिस्तान की आबादी में हिंदू आबादी का अनुपात 12.3 प्रतिशत का है। लेकिन इसका बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान- यानी मौजूदा बांग्लादेश में है। बांग्लादेश में 28 फीसदी से ज्यादा गैरमुस्लिम हैं तो पश्चिमी पाकिस्तान में सिर्फ 2.6 प्रतिशत।
कौन है अप्रवासी?
सहज रूप से अप्रवासी का अर्थ उन लोगों से है जो इन छह समूहों या समुदायों में से हो। इन समूहों के अतिरिक्त इन देशों से आने वाले लोग किसी भी तरह से नागरिकता के पात्र नहीं होंगे। यह विधेयक प्राकृतिक रूप से नागरिकता के प्रावधान में भी छूट देता है। साथ ही विधेयक तीन देशों के छह समुदायों के लोगों को 11 साल भारत में रहने की अवधि में भी छूट देता है। विधेयक में इसे घटाकर पांच साल किया गया है।
सरकार की दलील
1947 में भारत और पाकिस्तान के धार्मिक आधार पर विभाजन का तर्क देते हुए सरकार ने कहा कि अविभाजित भारत में रहने वाले लाखों लोग भिन्न मतों को मानते हुए 1947 से पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे थे। विधेयक में कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान का संविधान उन्हें विशिष्ट धार्मिक राज्य बनाता है। परिणामस्वरूप, इन देशों में हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई समुदायों के बहुत से लोग धार्मिक आधार पर उत्पीडऩ झेलते हैं। इनमें से बहुत से लोग रोजमर्रा के जीवन में उत्पीडऩ से डरते हैं। जहां उनका अपनी धार्मिक पद्धति, उसके पालन और आस्था रखना बाधित और वर्जित है। इनमें से बहुत से लोग भारत में शरण के लिए भाग आए और वे अब यहीं रहना चाहते हैं। यद्यपि उनके यात्रा दस्तावेजों की समय सीमा समाप्त हो चुकी है या वे अपूर्ण हैं अथवा उनके पास दस्तावेज नहीं हैं।
11 राज्य सरकारें विरोध में
नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए का तीन दिन पहले तक 5 मुख्यमंत्री विरोध कर रहे थे, लेकिन अब 3 और राज्य सरकारों ने साफ कर दिया है कि वे इसे लागू नहीं होने देंगी। पहले बंगाल, राजस्थान, केरल, पुदुचेरी और पंजाब के मुख्यमंत्रियों ने ऐसे बयान दिए थे। अब मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सरकार ने भी कह दिया है कि इस कानून को लागू करने का सवाल नहीं उठता। इन 8 राज्यों में देश की 35 प्रतिशत आबादी रहती है। वहीं, 3 और राज्य सरकारें ऐसी हैं जो सीएए के विरोध में तो हैं, लेकिन इस कानून को लागू होने देंगी या नहीं, इस पर उनका रुख साफ नहीं है। इन राज्यों को भी जोड़ दिया जाए तो 42 प्रतिशत आबादी वाली 11 राज्य सरकारें अब सीएए का विरोध कर रही हैं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री भी नागरिकता कानून का विरोध कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने साफ तौर पर ये नहीं कहा है कि वे इसे लागू नहीं होने देंगे। मप्र और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कहा है कि हमारा रुख वही होगा, जो कांग्रेस का होगा। तेलंगाना में सत्तारूढ़ टीआरएस ने संसद में इस बिल का विरोध किया था, लेकिन इसे लागू करने को लेकर उसका रुख साफ नहीं है। इनके अलावा गैर-भाजपा शासन वाले तमिलनाडु, आंध्र और ओडिशा की सरकारों ने नागरिकता संशोधन विधेयक का संसद में समर्थन किया था। दूसरे मुद्दे एनआरसी की बात करें तो इस योजना का खाका तैयार होने से पहले ही 10 मुख्यमंत्री कह चुके हैं कि वे इसे अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगे। इन मुख्यमंत्रियों की 51 प्रतिशत आबादी वाले राज्यों में सरकार है।
अन्य राज्यों का रुख
पुदुचेरी में कांग्रेस की सरकार है। यह केंद्र शासित प्रदेश है। यहां की कांग्रेस सरकार ने नागरिकता कानून का विरोध तो किया है, लेकिन एनआरसी आने की स्थिति में उसे लागू होने देंगे या नहीं, इस पर रुख साफ नहीं किया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एनआरसी पर सिर्फ यही तंज कसा था कि दिल्ली में इसके लागू होते ही भाजपा नेता मनोज तिवारी को राज्य छोड़कर जाना पड़ जाएगा। तेलंगाना और तमिलनाडु की सरकार ने भी नेशनल रजिस्टर के मुद्दे पर अपने पत्ते नहीं खोले हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने नेशनल रजिस्टर का विरोध तो किया है, लेकिन कहा है कि वे इससे जुड़े दस्तावेजों को देखने के बाद ही फैसला लेंगे।
राज्य विरोध पर अड़े रहें तो क्या?
इस बारे में संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं कि संविधान के अनुच्छेद-11 के तहत नागरिकता पर कानून बनाना पूरी तरह से संसद के कार्यक्षेत्र व अधिकार क्षेत्र में आता है। राज्यों को इस मामले में कोई अधिकार नहीं है। अगर ये इसे अपने यहां लागू नहीं करते हैं तो यह संविधान का उल्लंघन होगा। कश्यप के मुताबिक, राज्यों के पास दो विकल्प हैं। वे इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं या अगले लोकसभा चुनाव में बहुमत मिलने पर कानून बदल सकते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट कहती है कि एनआरसी संविधान का उल्लंघन है तो फिर यह कहीं पर भी लागू नहीं होगा। लेकिन अगर यह संविधान का उल्लंघन नहीं माना गया तो सभी राज्यों को इसे अपने यहां लागू करना होगा। संविधान विशेषज्ञ और राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेंद्र नारायण के अनुसार एनआरसी केंद्रीय सूची में है। केंद्र का फैसला लागू करना राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारी है। कोई राज्य इसे लागू करने से इनकार करे तो केंद्र कह सकता है कि वहां संवैधानिक व्यवस्था चरमरा गई। ऐसे में अनुच्छेद-355 के तहत राज्य को चेतावनी दी जा सकती है और अनुच्छेद-356 के तहत सरकार बर्खास्त भी की जा सकती है। उत्तरप्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं कि केंद्र का कोई भी फैसला, जिस पर अमल राज्य की जिम्मेदारी हो, उसे व्यावहारिक ढंग से तभी लागू कर सकते हैं, जब राज्य सहमत हो। एनआरसी भी जनगणना और आधार जैसी व्यवस्था है। प्रभावी क्रियान्वयन के लिए इसमें केंद्र और राज्यों के बीच 100 प्रतिशत तालमेल जरूरी है।
नेहरू पर सवाल क्यों?
दरअसल, आज देश में जो कुछ भी खामियां नजर आ रही हैं वर्तमान सरकार उसके लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को दोषी बता देती है। चाहे मामला देश के बंटवारे का ही क्यों न हो। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि बंटवारे के लिए क्या नेहरू जिम्मेदार थे? या सिर्फ नेहरू ने पाकिस्तान बनने की मंज़ूरी दी? क्या भाजपा के आराध्य सरदार वल्लभ भाई पटेल उस कांग्रेस का हिस्सा नहीं थे? क्या अगर सरदार पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष होते तो देश का बंटवारा नहीं होता? नेहरू की अगुवाई में बनी पहली सरकार में एक तरफ कांग्रेस के भीतर उनके सबसे कड़े राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी सरदार पटेल थे तो बीआर आंबेडकर और हिंदू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे, जिनके कांग्रेस की राजनीति से गहरे मतभेद थे। इनमें से सिर्फ नेहरू पर उंगली उठाना कहां तक न्याय संगत है?
अंग्रेजों के शासन से आजादी की लड़ाई के आखिरी बीस-तीस बरसों में उस राजनीति का उभार धीरे-धीरे चरम पर पहुंचा जिसके चलते हिंदुस्तान आजाद तो हुआ लेकिन दो टुकड़ों में बंटकर। इस राजनीति पर सैकड़ों किताबें, संस्मरण लिखे जा चुके हैं लेकिन मौजूदा समय में एक बार फिर यह मसला अलग से एक विस्तृत विमर्श की मांग करता है। कट्टर हिंदुत्ववादी चर्चाओं से इतर यह निर्विवाद सत्य है कि बंटवारे के दर्द, उसकी विभीषिका, हिंसा, सांप्रदायिक कड़वाहट और सियासत के दरम्यान तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने एक लडख़ड़ाते आजाद देश को अपने पैरों पर खड़ा करने की हर मुमकिन कोशिश की और यह सब करते हुए अपने बुनियादी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। इसके लिए कांग्रेस की तत्कालीन टीम और उसके लीडर के तौर पर बतौर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सराहना करनी चाहिए।
कांग्रेस ने बंटवारे के वक्त मुख्य रूप से तीन काम किए। एक तो पाकिस्तान बनाने के लिए ख़ुद को तैयार किया, दूसरा हिंदू राष्ट्र’ की परियोजना को नाकाम किया और तीसरा विभाजन के बाद ऐसा लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक ढांचा बनाया जिसके तहत भारत में रह गए मुसलमानों को भी बराबर अधिकार मिले। बंटवारे के वक्त जो हालात थे, उनमें आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे कट्टरपंथी हिंदू संगठन हिंदू राष्ट्र’ के लिए माहौल बना रहे थे। मुसलमानों का एक अलग मुल्क बन जाने के बाद विभाजित हिंदुस्तान में बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच एक हिंदू राष्ट्र’ के लिए प्रबल भावनात्मक आवेग का उमडऩा एक बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया होती। लेकिन खुद को सनातनी हिंदू’ कहने वाले महात्मा गांधी की एक कट्टरपंथी हिंदू नाथूराम गोडसे के हाथों हत्या ने हिंदुत्ववादी राजनीति का वह मंसूबा उस वक्त तो मिट्टी में मिला ही दिया था। आम हिंदू जनमानस के बड़े हिस्से के बीच गांधीजी की जो आदरणीय छवि थी, उसकी वजह से गांधी की हत्या ने लोगों को इस कदर स्तब्ध किया कि कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति तिरस्कृत और बहिष्कृत होकर हाशिए पर चली गई। आरएसएस पर उन्हीं सरदार पटेल ने प्रतिबंध लगाया जिन्होंने संघ के स्वयंसेवकों को भटके हुए देशभक्त’ कहा था।
आखिर सीएए क्या है?
नागरिकता संशोधन कानून से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता मिलने का रास्ता खुल गया है। सीएए के अनुसार 31 दिसंबर, 2014 या उससे पहले भारत आने वाले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी के अल्पसंख्यकों को घुसपैठिया नहीं माना जाएगा।
अवैध प्रवासी वह है जिसने वैध पासपोर्ट या यात्रा दस्तावेजों के बिना भारत में प्रवेश किया हो। जो अपने निर्धारित समय-सीमा से अधिक समय तक भारत में रहता है। इस लाभ को देने के लिए विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट अधिनियम, 1920 के तहत भी छूट देनी होगी। वर्ष 1920 का अधिनियम विदेशियों को अपने साथ पासपोर्ट रखने के लिए बाध्य करता है। 1946 का अधिनियम भारत में विदेशियों के आने-जाने को नियंत्रित करता है।
इन शर्तों को पूरा करना होगा
जिस तारीख से आवेदन करना है, उससे पहले 12 महीनों से भारत में रहना होगा। कम से कम छह साल भारत में बिताना जरूरी। संविधान की छठी अनुसूची में शामिल राज्य व आदिवासी क्षेत्रों में नागरिकता संशोधन कानून लागू नहीं होगा। ये प्रावधान बंगाल ईस्टर्न फं्रटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत अधिसूचित इनर लाइन’ क्षेत्रों पर भी लागू नहीं होंगे।
पिछले विधेयक से कैसे अलग नया कानून
2016 के विधेयक में 11 वर्ष की शर्त को घटाकर 6 वर्ष किया गया था। नए कानून में इसे घटाकर पांच वर्ष कर दिया गया है। छठी अनुसूची में शामिल क्षेत्रों को छूट देने का बिंदु भी पिछले विधेयक में नहीं था। अवैध प्रवास के संबंध में सभी कानूनी कार्यवाही बंद करने का प्रावधान भी नया है।
कानून को लेकर दो तरह के विवाद
विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि यह कानून एक धर्म विशेष के खिलाफ है। यह कानून भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 का उल्लंघन करता है। अनुच्छेद-14 सभी को समानता की गारंटी देता है। आलोचकों का कहना है कि धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। यह कानून अवैध प्रवासियों को मुस्लिम और गैर-मुस्लिम में विभाजित करता है। अफगानिस्तान, बांग्लादेश व पाकिस्तान के अलावा अन्य पड़ोसी देशों का जिक्र क्यों नहीं। 31 दिसंबर, 2014 की तारीख का चुनाव करने के पीछे का उद्देश्य भी स्पष्ट नहीं।
असम समेत पूर्वोत्तर राज्यों में विरोध का कारण
बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सभी अवैध प्रवासियों को बाहर किया जाए। राज्य में इस कानून को 1985 के असम समझौते से पीछे हटने के रूप में देखा जा रहा है। समझौते के तहत सभी बांग्लादेशियों को यहां से जाना होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम। असम समेत पूर्वोत्तर के कई राज्यों को डर है कि इससे जनांकिकीय परिवर्तन होगा।
इंदिरा-राजीव ने भी दी थी नागरिकता
यह कानून सत्तर साल से पीड़ा और अमानवीय जिंदगी जी रहे लोगों के चेहरे पर थोड़ी सी मुस्कुराहट लाने की एक कोशिश है। 1947 में पंडित नेहरू और लियाकत अली खां के बीच हुए समझौते के दौरान महात्मा गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान में हिंदू और सिख अगर प्रताडि़त होते हैं, तो वे हिंदुस्तान आ सकते हैं। युगांडा में इदी अमीन के बड़ी तादाद में हिंदुओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया था, जिन्हें इंदिरा गांधी ने भारत की नागरिकता दी। 1971 में पाकिस्तान का बांग्लादेश के साथ युद्ध के दौरान भी बहुत सारे लोगों को इंदिरा गांधी ने नागरिकता दी और राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में बहुत सारे श्रीलंकायी तमिलों को भारत की नागरिकता दी गई थी। 2003 में मनमोहन सिंह ने नागरिकता संशोधन बिल पर बोलते हुए कहा था कि बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता मिलनी चाहिए। मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में नागरिकता कानून तीन दिसंबर 2004 से लागू हुआ।
बांग्लादेशी शरणार्थियों के साथ भेदभाव क्यों?
1947 के विभाजन के समय जो लोग पाकिस्तान के पूर्वी या पश्चिमी हिस्से से भारत आए, उनका यहां गर्मजोशी से स्वागत हुआ। उन्हें उन घरों में बसाया गया, जिन घरों को खाली करके मुसलमान परिवार पाकिस्तान चले गए थे। बाकी लोगों को भी घर बनाने के लिए उनके पसंद के शहर में जमीनें दी गईं। आर्थिक मदद दी गई। लेकिन यही सुविधा 1971 में आए रिफ्यूजी को क्यों नहीं दी गई? इसकी वजह भारत-पाकिस्तान के विभाजन के इतिहास में है। 1947 में जब देश के दो टुकड़े हुए तो मोटे तौर पर इसे हिंदू-मुसलमान विभाजन माना गया। लेकिन सब कुछ इतना सीधा-सपाट नहीं था। खासकर पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में दलितों का एक बड़ा हिस्सा बंगाल के विभाजन के खिलाफ था और विभाजन के बाद उनमें से काफी लोग पूर्वी पाकिस्तान में ही रह गए। इनके नेता जोगेंद्र नाथ मंडल अविभाजित पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने। भारत ने तीन हिंदू दलित जिलों को पूर्वी पाकिस्तान में जाने दिया। विभाजन के बाद सीमा के दोनों ओर काफी सांप्रदायिक हिंसा हुई और समाज में कड़वाहट काफी बढ़ गई। इसके बावजूद पूर्वी पाकिस्तान के हिंदू दलित वहीं बने रहे। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की फौज ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर भाषा के आधार पर अत्याचार शुरू कर दिया और उनका मुख्य निशाना बने हिंदू दलित। इसके बाद ही उनका बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ। भारत में ये लोग आ तो गए लेकिन सरकार ने कभी इनका स्वागत नहीं किया। इन्हें विभाजन के समय पाकिस्तान में रह जाने का दोषी माना गया, जबकि उनमें से ज्यादातर लोग ग्रामीण और गरीब थे और 1947 के विभाजन के समय वे ये समझने की हालत में भी नहीं थे कि दरअसल उनके साथ हो क्या रहा है। 1971 के रिफ्यूजी के एक समूह ने जब सुंदरवन डेल्टा के एक द्वीप मरीचझांपी में बसने की कोशिश की, तो इस समय की पश्चिम बंगाल की लेफ्ट फं्रट सरकार ने जबरन वो द्वीप खाली करा दिया। इस दौरान की गई पुलिस फायरिंग में बड़ी संख्या में शरणार्थी मारे गए। जो नागरिकता विहीन लोग भारत में रह रहे हैं, उनको ही अब बीजेपी नागरिकता देने की बात कर रही है। लेकिन बीजेपी के लिए ये किसी ऐतिहासिक गलती को सुधारने का या मानवता भरा कोई कदम नहीं है। इस मुद्दे पर वह सांप्रदायिकता की रोटी सेंकना चाहती है। इसलिए उसने नागरिकता को धर्म से जोड़ दिया है।
- राजेंद्र आगाल