काले हीरे का दंश
04-Oct-2019 10:27 AM 1235118
एक कहावत है-दबंग मारता है और रोने भी नहीं देता! यही छत्तीसगढ़ का सच है। देश को करोड़ों अरब का काला हीरा प्रदान करने वाला कोरबा अंचल इन दुखी पीडि़तों का कब्रगाह बन चुका है। जगह-जगह कोयला निकल रहा है, हवा में धूल है, प्रदूषण है। कोयले से लदी गाडिय़ां दौड़ रही हैं, आम आदमी बस शिकार बना चुपचाप सब सह रहा है। सरकारें पता नहीं, किसके लिए काम करती है। जहां-जहां सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला खान हैं, वहां का जनजीवन सीधे प्रभावित हुआ है। छत्तीसगढ़ में मैं जहां रहता हूं, उसके आसपास कोयले की अनेक खदाने हैं, जैसे मानिकपुर, कुसमुंडा, गेवरा, बाकीमोंगरा, सुराकछार, दिपका, सराईपाली आदि। इन खानों से निकलने वाले कोयले के कारण यहां के आम आदमी को क्या मिला है, इसका आकलन दूर बैठकर या काला पत्थर फिल्म देखकर नहीं किया जा सकता। हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि जब ये कोयला खानें शुरू हो रही थीं, हम लोगों को बहुतेरे सब्जबाग दिखाए गए। नौकरी, स्वास्थ्य, सामुदायिक भवन, शिक्षा के साथ और भी बहुत कुछ देने की बातें कही गई थीं। मगर आज जब मैं यहां की स्थिति देखता हूं तो लोगों की त्रासदी से मन परेशान हो जाता है। कोई भी यह सोचने पर मजबूर हो जाएगा कि साधारण लोगों का ऐसा मखौल कैसे उड़ाया जा सकता है। मन में सवाल उठता है कि क्या दुनिया के दूसरे देशों में भी आम आदमी की जमीन लेकर उसे विस्थापित बनाकर कुलीन, आभिजात्य वर्ग आनंदित महसूस करता है? क्या यह मानव स्वभाव है कि हम कमजोर, दबे-कुचले लोगों को और भी दबाएं और अगर कभी वह अपने अधिकारों की बात करें तो उसकी आवाज दफ्न कर दी जाए? यह गाथा वृहद है, एक औपन्यासिक विस्तार लिए हुए! मैं हाल ही में कोरबा जिले के एक कोयला खान के नजदीक कुछ गांवों में गया। वहां के हालात बेहद दयनीय थे। पता चला कि पानी की भारी कमी और दूसरी तकलीफें गांववासी झेल रहे हैं। खदान में जो विस्फोट काला हीरा यानी कोयला निकालने के लिए होता है, उसकी वजह से तालाब का पानी लगभग खत्म हो चुका है। नल और कुओं में पानी नहीं है। वहीं घर, सरकारी भवन, स्कूल की इमारतें ऐसे विस्फोट के कारण दरक रहे हैं। एक गांव में प्राथमिक पाठशाला का भवन विस्फोट के कारण क्षतिग्रस्त हो चुका है। छत या दीवारें कब गिर जाएं, पता नहीं। एक बच्ची ने बताया कि दोपहर में जब विस्फोट होता है तब उसे बहुत डर लगता है। आसपास के गांवों में भी जगह-जगह इस समस्या का दंश हमें गहराई से महसूस हुआ। कितने लोगों की जमीन इसमें चली गई और कितनों को नौकरी नहीं मिली। विस्थापन के एवज में बसाहट के लिए जो जमीन मिलनी चाहिए, उसका कुछ पता नहीं कि कब मिलेगी। कोयला खदानों में पीड़ा और त्रासदी अपने भयावह स्वरूप में दिखाई देती है। स्थानीय लोगों का शोषण बदस्तूर जारी है और कोई रोकने या बोलने वाला नहीं है। बसाहट जगहों पर जो सुविधाएं देनी चाहिए, वह किस भयावह पशु के पेट में समा रही है यह कोई नहीं जानता। न शिक्षा की व्यवस्था, न स्वास्थ्य की। यहां तक कि पानी की व्यवस्था भी अपने सामथ्र्य से करनी है। एक तरफ खदान से कंपनियां करोड़ों रुपए कमा रही हैं, दूसरी ओर आम लोग लाचार हैं। जबकि करोड़ों रुपए सामुदायिक सहभागिता के तहत इन प्रस्तावित क्षेत्रों में खर्च करने का नियम है। मगर वह कहां जाता है, किसी को नहीं पता! यह मकडज़ाल विराट स्वरूप ग्रहण कर चुका है, नीचे से ऊपर तक अपने पांव जमा चुका है। इससे बचने का कोई रास्ता इलाके के आम भूविस्थापित, प्रभावित ग्रामवासियों को दिखाई नहीं देता। त्रासदी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि यहां के लोग रो भी नहीं सकते। क्या वाकई छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा? दिलासा देने के लिए छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा कह कर इलाके के लोगों की प्रशंसा की जाती है और उनके अधिकारों को दरकिनार कर दिया जाता है। शोषण, दर्द और त्रासदी की यह कहानी जारी है। सरकार में ऊंचे स्तर से सुविधाएं और धन भेजने की बातें कही जाती हैं, गांवों के लोग पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा का इंतजार करते रह जाते हैं। सरकार की ओर से जारी राशि कहां खर्च हो जाती है, कुछ पता नहीं चलता। जो निर्माण होते हैं, वे किनके लिए होते हैं, उनमें लगने वाले पैसे का क्या हिसाब होता है, इसके बारे में आम लोगों को कुछ जानकारी नहीं मिलती। पर्यावरण को होने वाले नुकसान से लेकर लोगों की जिंदगी तक जोखिम में पड़ जाती है, लेकिन सरकारों को शायद कोई फर्क नहीं पड़ता। - रायपुर से टीपी सिंह
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