17-Apr-2019 10:11 AM
1234815
चुनावों के बीच जब वोटिंग हो रही हो तो वोटिंग प्रतिशत को देखकर संभावित विजेता का अनुमान लगाना बेहतरीन शगल है। 11 अप्रैल को जिन 91 लोकसभा सीटों पर वोटिंग हुई, उसमें 2014 में इनमें से 32 सीटें भाजपा ने जीती थीं। पश्चिम यूपी की जिन 8 सीटों पर मतदान हुआ, ये सभी सीटें भाजपा के पास थीं। उत्तराखंड की सभी 5, महाराष्ट्र की 7 में से 5, असम की 5 से 4, बिहार की 4 में 3 सीटें भाजपा ने जीती थी। लेकिन इस बार बिहार में इन चार सीटों में से महज एक सीट पर भाजपा चुनावी मैदान में है। बाकी तीन सीटों पर सहयोगी मैदान में हैं। इन सभी 91 सीटों पर मतदान प्रतिशत गिरने को लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं।
उत्तराखंड की पांच सीटों पर 57.85 फीसदी मतदान हुआ जबकि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान 2014 में सूबे में 62.15 फीसदी मतदान हुआ था। उत्तर प्रदेश पर सबसे अधिक निगाहें टिकी हैं और यहां 63.69 प्रतिशत वोटिंग हुई है। 2014 के मुकाबले सहारनपुर में करीब 4 फीसदी, कैराना में करीब 9 फीसदी, मुजफ्फरनगर में करीब 3 फीसदी, बागपत में करीब 3 फीसदी कम मतदान हुआ है। मेरठ के मतदान प्रतिशत में अंतर नहीं आया और बिजनौर में पिछले चुनाव की तुलना में अधिक वोटिंग हुई है। पहले चरण के मतदान वाले अन्य प्रमुख राज्यों में उत्तर प्रदेश की आठ सीटों पर 63.69 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। छत्तीसगढ़ की बस्तर सीट पर 56 प्रतिशत मतदान हुआ। पिछले चुनाव में इस सीट पर 69.39 प्रतिशत मतदान हुआ था। बिहार की 4 सीटों पर पिछली बार से औसतन डेढ़ फीसदी कम वोटिंग हुई है। आम तौर पर किसी भी चुनाव में इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि आखिर इतने कम या इतने ज्यादा वोट क्यों पड़े और क्या ये किसी राजनीतिक बदलाव का इशारा दे रहे हैं। सवाल यह है कि क्या ज्यादा या अधिक वोटिंग के आधार पर कुछ सियासी संकेत पकड़े जा सकते हैं?
सवाल यह है कि क्या ज्यादा वोट पडऩे से किसी खास पार्टी को अन्य पार्टियों के मुकाबले ज्यादा फायदा मिल सकता है? अपनी किताब द वर्डिक्ट में चुनाव विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार प्रणय रॉय लिखते हैं, ब्रिटेन में लंबे वक्त तक माना जाता रहा कि फसल कटाई के दौरान चुनाव हों और कम वोट पड़ें तो इससे कंजरवेटिव पार्टी को फायदा होगा। तर्क यह था कि इन दिनों लेबर पार्टी के समर्थक यानी खेतों में काम करने वाले मजदूर खेतों में व्यस्त होंगे और ज्यादातर को कंजरवेटिव पार्टी के खिलाफ जाकर वोट डालने का वक्त नहीं मिलेगा। पिछले कुछ दशकों में बार-बार इस राय को परखा गया है।
कम वोटिंग के असर को समझना काफी मुश्किल है। पहला सवाल तो यही है कि कम वोट पडऩे से किसे फायदा होगा, सत्ताधारी पार्टी को या विपक्ष को? या फिर ज्यादा वोट पडऩा किसी खास तरह की पार्टियों को मदद करता है, फिर चाहे वे सत्ता में हों या विपक्ष में? इनके उत्तर में एक संभावित और प्रक्षेपित निष्कर्ष निकलते हैं जो शायद मोदी समर्थकों को खुश कर दें। पिछले तीन लोकसभा चुनावों यानी 2004, 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो आम ट्रेंड सामने आता है: पिछले तीनों चुनावों में भाजपा ने उन सभी सीटों पर बेहतर प्रदर्शन किया जिनमें वोटिंग कम हुई। साल 2004 और 2009 के चुनावों में सबसे ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे शायद यही रहे कि जिन सीटों पर मतदान अधिक हुआ वहां भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था, जबकि जिन सीटों पर कम वोट पड़े वहां भाजपा ने कांग्रेस पर बढ़त दर्ज की। आंकड़े साबित करते हैं कि 2014 में जिन सीटों पर कम वोटिंग हुई थी वैसी करीबन 23 फीसदी सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को पछाड़ दिया। 2009 में यह करीब 3.6 फीसदी और 2004 में करीब 5 फीसदी सीटें थीं।
-इंद्र कुमार