17-Apr-2019 10:03 AM
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लोकसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। इन चुनावों में वनाधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन एक-चौथाई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभा सकता है। एक गैर लाभकारी संगठन कम्यूनिटी फॉरेस्ट रिसोर्स-लर्निंग एंड एडवोकेसी (सीएफआर-एलए) के अध्ययन में यह बात निकलकर आई है। रिपोर्ट बताती है कि भारत के मुख्य भूभाग के 517 निर्वाचन क्षेत्रों (पूर्वोत्तर, जम्मू एवं कश्मीर, अंडमान निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप को छोड़कर) में से 133 निर्वाचन क्षेत्रों में वनाधिकार मुख्य मुद्दा है जो चुनाव में हार-जीत को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। वहीं 124 निर्वाचन क्षेत्रों में 10-20 प्रतिशत मतदाता वन अधिकार से प्रभावित हैं। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में इन 133 निर्वाचन क्षेत्रों में से 79 में जीत हासिल की और कांग्रेस के खाते में सिर्फ पांच सीटें गईं। लेकिन कांग्रेस 83 क्षेत्रों में दूसरे स्थान पर रही। अन्य दलों ने 49 सीटों पर जीत हासिल की।
17वीं लोकसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही राजनीतिक पार्टियां आदिवासियों को साधने में जुट गई हैं। हर पार्टी की कोशिश है कि वह इस वर्ग को कैसे भी साधे। इसके लिए लोकलुभावन घोषणाएं की जा रही हैं।
अध्ययन के मुताबिक, वनाधिकार अधिनियम लागू करने वाली कांग्रेस ने इन मुख्य निर्वाचन क्षेत्रों में बेहद बुरा प्रदर्शन किया। कुल 68 क्षेत्रों में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच सीधी लड़ाई थी लेकिन कांग्रेस केवल तीन जगह जीत पाई। अत: यह कहा जा सकता है कि 68 निर्वाचन क्षेत्र अगली सरकार के गठन में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। अध्ययन के अनुसार, इन 68 निर्णायक निर्वाचन क्षेत्रों में से 16 मध्य प्रदेश, 11 राजस्थान, आठ छत्तीसगढ़, आठ महाराष्ट्र, सात गुजरात, सात कर्नाटक, चार हिमाचल प्रदेश, चार झारखंड और तीन उतराखंड में हैं।
वनाधिकार अधिनियम प्रभावित अधिकांश राज्यों में राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी के कारण कानून का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हुआ है। यहां वन नौकरशाही चरम पर है। यही वजह रही कि 2018 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी चार राज्यों में सत्ता हासिल नहीं कर सकी। अध्ययन में कहा गया है कि वनाधिकार अधिनियम के उचित क्रियान्वयन का फायदा लेना बेहद अहम है। छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने वनाधिकार अधिनियम के खराब
क्रियान्वयन को अहम मुद्दा बनाया था और इस मुद्दे ने कांग्रेस की शानदार सफलता में अहम भूमिका निभाई थी।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के घोषणापत्र में वनाधिकार अधिनियम को खास तवज्जो नहीं दी गई थी। इसका असर चुनाव के नतीजों और हार जीत के अंतर पर पड़ा। महाराष्ट्र और कुछ हद तक गुजरात को छोड़ दिया जाए तो झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे बीजेपी शासित राज्यों ने वनाधिकार अधिनियम पर ठीक से अमल नहीं किया और इसे कमजोर करने की पुरजोर कोशिश की गई। बीजेपी को वनाधिकार अधिनियम प्रभावित ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। सीएफआर-एलए ने ऐसे नौ सुझावों को सूचीबद्ध किया है जिन पर अमल करके राजनीतिक दल चुनाव में लाभ ले सकते हैं। कुछ सुझाव जनजातीय मामलों के मंत्रालय को मजबूत करने से संबंधित हैं ताकि वनाधिकार अधिनियम पर ठीक से अमल किया जा सके। साथ ही यह सुझाव भी दिया गया है कि पीएमओ को नियमित रूप से वनाधिकार अधिनियम की निगरानी करनी चाहिए। साथ ही आदिवासियों और वनवासियों के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस लेकर वनाधिकारों को मान्यता प्रदान करनी चाहिए।
गौरतलब है कि खासकर झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और मध्य प्रदेश में आदिवासी समाज के लिए रोजगार, आरक्षण, महंगाई आदि कभी चुनावी मुद्दे नहीं रहे। कभी इसके लिए आंदोलन, प्रदर्शन आदि नहीं होते हैं। उनकी लड़ाई या समाज के प्रभु वर्ग से उनका संघर्ष हमेशा जल, जंगल, जमीन के लिए ही रहा है। ओडिशा में नियमगिरि, कलिंगनगर, पोस्को आदि के आंदोलन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। झारखंड में भी आदिवासियों के जितने बड़े आंदोलन चले हैं, वे जल, जंगल, जमीन और विस्थापन के खिलाफ ही चले हैं या चल रहे हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन कर भाजपा ने एक उम्मीद जगायी थी और आदिवासियों को लगा था कि भाजपा उनके मुद्दों के प्रति सचेत है और इसका लाभ भी भाजपा को मिला। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद जिस तरह कार्पोरेट परस्त नीति पर भाजपा चलने लगी है, उससे आदिवासी समाज आक्रांत है।
भूमि अधिग्रहण कानून में मोदी सरकार के दौरान हुए संशोधन का प्रबल विरोध हुआ और सरकार ने बाध्य होकर उसे वापस लिया। लेकिन चूंकि जमीन का मसला राज्याधीन है, इसलिए झारखंड में भूमि अधिग्रहण कानून में मनचाहा संशोधन करने में भाजपा सरकार कामयाब रही। इसके लिए उन्हें भारी मशक्कत भी करनी पड़ी।
हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने वन क्षेत्र में रहने वाले 11 लाख आदिवासी परिवारों को वहां से निकाल बाहर का आदेश सुनाया, जिसके अमल पर फिलहाल स्टे कर दिया गया है, लेकिन आदिवासी समाज इस बात से सशंकित है कि भाजपा यदि सत्ता में लौटी तो वन कानून में भी संशोधन होगा और आदिवासियों को जंगल से निकाल बाहर किया जायेगा। सवाल सिर्फ इतना रह जाता है कि जल, जंगल, जमीन पर जन के अधिकार के आदिवासी आंदोलनों के खिलाफ गैर-आदिवासियों की गोलबंदी और आदिवासी एकता को विखंडित करने के भाजपाई हथकंडे इन मुद्दों पर कितने भारी पड़ते हैं। यह समझने की जरूरत है कि आदिवासी बहुल इलाकों की राजनीति के मुद्दे देश के अन्य इलाकों की राजनीति से भिन्न होते हैं और वजह भी साफ है- आदिवासी हित हमेशा तथाकथित राष्ट्रीय हितों से टकराते हैं। देश को चाहिए आदिवासी इलाकों से यूरेनियम, कोयला, लौह अयस्क, बाक्साइट, सोना आदि, जबकि इसके बदले आदिवासियों को मिलता है सिर्फ और सिर्फ विस्थापन का दंश। इसलिए आदिवासियों से सहानिभूति रखने वाला बौद्धिक समाज भी आदिवासियों को विकास का विरोधी समझता है, जबकि आदिवासियों का संघर्ष न सिर्फ उनके अपने अस्तित्व का संघर्ष है, बल्कि पर्यावरण को बचाने का भी संघर्ष है।
तथाकथित विकास के रास्ते से आदिवासी इलाकों में गैरआदिवासी आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और आदिवासी अपने घर में ही अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं। इसलिए ये मुद्दे चुनाव को कितना प्रभावित कर सकेंगे, यह एक गणितीय सवाल भी है। दरअसल, हम जिन्हें आदिवासी बहुल इलाके बोल रहे हैं, उनमें से कई इलाके अब आदिवासी बहुल नहीं रह गए हैं। इसका असर इन इलाकों की राजनीति पर पडऩा स्वाभाविक है।
- रेणु आगाल