12-Feb-2019 08:44 AM
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कुछ समय पहले बॉलीवुड की कलाकार प्रियंका चोपड़ा और निक जोन्स की शादी की खबरें खूब सुर्खियों में रहीं। यह शायद स्वाभाविक भी था, क्योंकि दुल्हन विश्व सुंदरी और फिल्म जगत की ख्यात तारिका हैं और निक भी दुनिया भर में एक मशहूर चेहरा। कई दिनों तक चले जश्न पर देश और विदेश के मीडिया की पैनी नजरें थी। सोशल मीडिया में उनके विवाह की तस्वीरें भी उन दिनों में छाई रहीं। इस सबके साथ ही उन दोनों के बीच उम्र का फर्क होने का मामला भी काफी चर्चा में रहा। प्रियंका के पति उनसे लगभग दस वर्ष बड़े हैं। कुछ जगहों पर इस शादी को लेकर यह राय भी जाहिर की गई कि इनके बीच उम्र के फासले की वजह से रिश्ता ज्यादा दिन चल नहीं पाएगा। हमारे समाज में आमतौर पर यह माना जाता है कि महिला को अपने पति से छोटा होना चाहिए। अगर किन्हीं स्थितियों में वह पति से बड़ी होती है तो यह चर्चा का विषय बन जाता है। इन बातों ने सोचने पर मजबूर किया और साथ ही जगजीत सिंह का गीत न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधनÓ याद आया।
प्रेम की कोई जाति नहीं होती और कोई उम्र नहीं होती है। एक तरफ प्रेम को अल्लाह की इबादत कहा गया है, दूसरी ओर हमारा समाज उसे तमाम सीमाओं में कैद कर देता है। मिथकों से लेकर अनेक साहित्यिक कृतियों में प्रेम को तमाम दायरों और सामाजिक सीमाओं से परे माना गया है। कहा जा सकता है कि प्रेम को हमने सबसे ऊपर रखा है। जब कहीं उदाहरण देना होता है तो हम गर्व से यह सब बताते हैं और गौरवान्वित महसूस करते हैं। सवाल है कि जब कोई व्यक्ति किसी से प्रेम संबंध में जाता है तो हम उसे गलत क्यों मानने लगते हैं? दरअसल, इस तरह की चर्चा हमारे समाज की मानसिकता की कई परतें उधेड़ती है। सबसे पहले तो यही कि अगर कोई दो वयस्क अपनी मर्जी से विवाह बंधन में बंधना चाहते हैं तो यह उनका व्यक्तिगत निर्णय है। इस पर किसी बाहरी व्यक्ति को कोई टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। कोई रिश्ता कब तक टिकेगा, यह उन दोनों की आपसी समझ, सहमति और प्रेम पर निर्भर करता है। अगर किन्हीं कारणों से वे अलग हो जाते हैं तो उस निर्णय का भी स्वागत होना चाहिए, क्योंकि यहां महत्वपूर्ण है दोनों का खुश रहना। खुशी का रास्ता चुनना उनका अधिकार है। यह बात दबी-छिपी है। हकीकत यह है कि हमारे समाज में कितने ही रिश्ते सिर्फ लोक-लाज या शर्म के चलते ही निभाए जाते हैं। इस डर से कि लोग क्या कहेंगेÓ। रिश्ते जिंदा हैं तो इससे फायदा क्या है! यों भी हमारे समाज में ज्यादातर लोगों का जीवन ऐसे ही पूरा हो जाता है। इसके चलते व्यक्तिगत इच्छा, सपने, महत्वाकांक्षा कहीं दूर हो जाते हैं। फिर अगर कोई सम्मान के साथ अपना अलग जीवन जीना चाहता है तो इसमें हर्ज क्या है! रिश्तों को ढोने के बजाय अलग हो जाना मुझे एक बेहतर विकल्प लगता है।
विडंबना यह है कि आमतौर पर लोग दूसरों के जीवन पर टीका-टिप्पणियां तो करते हैं, लेकिन अगर कभी उनके सामने खड़ी मुश्किल में कुछ करने की नौबत आ जाए तो बस अपनी लाचारगी जता कर चुप रह जाते हैं। इससे भी ज्यादा यह होता है कि ऐसे मौके पर लोग कहते हैं कि यह उनका आपसी मामला है कोई दूसरा क्या और क्यों करे! अगर लोग दूसरों के मुश्किल समय में कुछ मदद नहीं कर सकते तो उनके चुनाव के बारे में बेवजह टिप्पणियां या हस्तक्षेप करने का उन्हें क्या हक है!
इस तरह की घटनाएं हमें अपने आसपास, पड़ोस में या दफ्तर जैसी जगहों पर आसानी से देखने को मिल जाती हैं। लोगों को ज्यादा बेचैनी तब होने लगती है जब एक महिला आपसी सहमति के आधार पर लिव-इन रिश्ते में रह रही हो। शादी के बाद किन्हीं वजहों से अपने पति से अलग अकेली रहती है तो लोग उसके बारे में कुछ भी टिप्पणी करने को अपना हक मानने लगते हैं। यानी हर जगह महिला ही निशाने पर रहती है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अगर खुद को सभ्य और संवेदनशील मानते हैं तो सबके निजी जीवन के फैसले का सम्मान करना चाहिए। दो वयस्क और परिपक्व लोगों को अपना जीवन अपनी तरह से जीने का अधिकार है। उनकी आजादी में खलल डालने का या उनसे परेशान या बेचैन होने का हक हमें नहीं है। क्यों हम अपने नजरिए से सबका जीवन संचालित करना चाहते हैं!
-ज्योत्सना अनूप यादव