16-Jan-2018 08:01 AM
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हमारे देश में कानून-व्यवस्था, अधिकार और महिला सुरक्षा के दावे केंद्र से लेकर राज्य सरकारों के स्तर तक प्रतिदिन किए जाते हैं, लेकिन स्त्री कितनी सुरक्षित है, यह आए दिन होने वाली घटनाओं से साफ जाहिर है। कुछ ही दिन पहले दिल्ली से मुंबई के विमान में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित फिल्म अभिनेत्री नाबालिग जायरा वसीम से एक अधेड़ सहयात्री द्वारा अभद्र हरकत और छेड़छाड़ का मामला सामने आया है। इससे यही पता चलता है कि भारत में स्त्रियों के प्रति पुरुषों का दृष्टिकोण और उनके मानव अधिकारों की स्थिति कितनी चिंताजनक है। जायरा जैसी न जाने कितनी लड़कियां इस तरह के जोखिम का सामना कर रही हैं। फिर भी सरकार को इस समस्या की कोई परवाह नहीं है।
समूचे देश में रोजाना न जाने कितनी मासूम बच्चियां शिकार होती हैं। तमाम तरह की कानूनी कार्रवाई में समयबद्ध फैसलों के बजाय पीडि़त परिवारों को परेशानी के फंदे में झूलते रहना पड़ता है। दूसरी ओर दिखावे के लिए बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओÓ जैसे नारे भी लगाए जाते हैं। अनेक कार्यक्रमों में अधिकारों की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। सच यह है कि मानवाधिकार हनन की घटनाओं में सबसे ज्यादा और आसान शिकार महिला ही होती है। देश में ऐसे मामले आज भी जारी हैं। 2015 की तुलना में 2016 में देश में अपहरण, बलात्कार और हिंसा जैसी आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
मौजूदा स्थिति से उबरने के लिए एक जागरूक समाज का निर्माण आवश्यक है। वरना देश को सर्वांगीण विकास के पथ पर ले जाना मुश्किल होगा। अभाव या किसी समस्या से पीडि़त परिवार से पूछा जाए कि क्या हम लोकतंत्र में जी रहे हैं? आखिर किसके भरोसे हैं देश की स्त्रियां? क्या अधिकारों के नाम पर गंगाजल छिड़कना इस समस्या का हल है? आज महिलाओं को अपने अधिकार जानने की जरूरत है। तभी वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा पाएंगी। ये घटनाएं देश की लचर कानून-व्यवस्था को उजागर करती हैं। इन पर सरकार का मौन रहना भविष्य और समाज के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जिसकी हकीकत किताबों में वर्णित आदर्शों से बहुत अलग है। हमारी किताबें नैतिकता की केवल बात करती हैं जिसका समाज में न कोई महत्व है और न कोई जगह। कदम-कदम पर पाखंड का वर्चस्व है। सभी प्राणियों को अपने जैसा समझ कर जीव- दया, अहिंसा और करुणा के सुसंदेशों की पताका फहराने वाले हमारे देश के लोगों में संवेदनशीलता लुप्त होती जा रही है। क्या यह विडंबना नहीं कि सड़क पर एक-डेढ़ घंटे तक घायल पड़े व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाने के लिए तो किसी के पास समय नहीं है लेकिन दस मिनट खड़े होकर उसका वीडियो बनाने का समय सबके पास है। क्या हमारी आत्मा खुद को धिक्कारती भी नहीं है? क्या हमारे अंदर इंसानियत या संवेदना की आखिरी बूंद तक सूख चुकी है? हमारा समाज नारी सशक्तीकरण की बड़ी-बड़ी बातें बघारते हुए दुर्गा, पार्वती आदि माताओं के रूपक तो बना देता है मगर किसी स्त्री के साथ जब कोई अप्रिय घटना घटती है तो सारा दोष उसी पर मढ़ दिया जाता है। यही समाज इतनी घृणा भरी नजरों से देखता है कि उसे स्वयं के नारी होने पर ही अफसोस करना पड़े।
क्या यह दोमुंहा समाज नहीं है? कहीं घर से बाहर बीच सड़क पर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को पीटता है तो यह मूक-बधिर समाज महज इतना कह कर पल्ला झाड़ लेता है कि यह इनका पारिवारिक मामला है, हम बीच में क्यों पड़ें! लेकिन दूसरी तरफ किसी सार्वजनिक जगह पर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को बांहों में लेता है या उससे प्रेम करता है तो लोगों की त्यौरियां चढ़ जाती हैं। तब यह मूक-बधिर समाज अपनी चुप्पी तोड़ देता है कि ये क्या अश्लीलता फैला रखी है, हमारे बच्चों पर कितना गलत प्रभाव पड़ेगा, आदि-आदि।
सवाल है कि हमारी सोच में इतना फर्क और इतना दिखावा क्यों है? एक तरफ जहां हम तमाम आदर्शों की बात करते हैं मगर दूसरी तरफ सारे आदर्शों को ताक पर रख कर दूसरों से छल-कपट करते हैं। तमाम सूक्तियां या अनमोल विचार, जिनका प्रयोग हम दूसरों को उपदेश या सलाह-मशविरा देने के लिए करते हैं यदि उनका प्रयोग अपने नित्य व्यवहार में करें तो समाज का उत्थान हो सकता है। यह समाज हम सबसे मिल कर बना है। हम इस दोमुंहे समाज की महज इकाई हैं। इसमें बदलाव की अत्यंत जरूरत है। यह तभी बदलेगा जब मैं बदलूगी और बदलेंगे आप।
-ज्योत्सना अनूप यादव