04-Feb-2013 10:31 AM
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कुंभ महापर्व विश्व का सबसे बड़ा मेला है। यह भारत की प्राचीन गौरवरूपी वैदिक संस्कृति व सभ्यता का प्रतीक है। इस महापर्व के अवसर पर देश-विदेश से लोग आते हैं और स्नान, दान कर पुण्य अर्जित करते हैं। कुम्भ पर्व के संबंध में वेद, पुराणों में अनेक मंत्र व प्रसंग मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि यह पर्व अत्यंत प्राचीन समय से चला आ रहा है। ऋग्वेद के दशम मंडल के अनुसार कुम्भ पर्व में जाने व वाला मनुष्य स्वयं स्नान, दान व होमादिक कार्मों से अपने पापों को उसी तरह नष्ट करता है जैसे कुल्हाड़ी वन को काट देती है। जिस प्रकार नदी अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है उसी प्रकार कुम्भ पर्व मनुष्य के संचित कर्मों से प्राप्त हुए मानसिक और शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन घड़े की तरह निज स्वरूप को नष्ट कर नवीन सुवृष्टि प्रदान करता है।
कालचक्र में सूर्य, चंद्रमा एवं देवगुरु वृहस्पति का महत्वपूर्ण स्थान है। इन तीनों ग्रहों का योग ही कुम्भ पर्व का आधार है। प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व नासिक सभी तीर्थों पर हर 12 वर्षों के पश्चात सूर्य, चंद्र व वृहस्पति इन तीनों का विशेष योग बनने पर कुम्भ महापर्व का समागम होता है। माघ मास की अमावस्या पर जब सूर्य और चंद्रमा मकर राशि पर तथा वृहस्पति वृष राशि स्थित हों तो उस समय प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग बनता है। स्कंद पुराण में वर्णित है- मकरे च दिवानाथे वृषभे च वृहस्पतौ कुम्भ योगो भवेत तत्र प्रयागे हि अतिदुर्लभे।

संस्कृत ग्रंथ अमरकोशÓ के अनुसार कुम्भे घटेभ मूर्धाशौÓ कुम्भ घड़ा, हाथी का गण्डस्थल, एक राशिपति का ग्यारहवां भाग, इन तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है। समुद्र मंथनजन्य अमृत कुम्भ से सम्बद्ध होने के कारण कुम्भ शब्द उपचारेण एक विशेष अर्थ कुम्भ पर्वÓ अर्थ में प्रयुक्त होता है। कुम्भ शब्द की व्युत्पत्ति छह प्रकार से की गई है। 1- कुं पृथ्वीं उम्भयति पुरयाति मंगलेन ज्ञानामृतेन वाÓ अर्थात जो समस्त पृथ्वी को मंगल ज्ञान से पूर्ण कर दे। 2- कुत्सित उम्भति:Ó अर्थात जो पर्व संसार के अरिष्ट और पापों को दूर कर दे। 3- कु: पृथ्वी उम्यते अनुगृह्यते आच्छाद्यते आनन्देन पुण्येन वाÓ अर्थात जिस पर्व के द्वारा पृथ्वी को आनंद व पुण्य से ढक दिया जाय। 4- कु: पृथ्वी उम्यते लह्वी क्रियते पाप प्रक्षालनेन येनÓ अर्थात पृथ्वी पर पापों को धोकर जब उसे हल्का बना दिया ऐसा पर्व कुम्भ । 5- कु: पृथ्वी भावयति दीपयतिÓ अर्थात जो पर्व पृथ्वी को सुशोभित कर दे, दीप्त कर दे, उसके तेज को बढ़ा दे। 6- कुं सुखं ब्रह्म तद उम्भति प्रयच्छतीति कुम्भ:Ó अर्थात सुख स्वरूप परम ब्रह्म के अनुभव को प्रदान करने वाले संत समागम का नाम कुम्भ है। कुम्भ शब्द का उल्लेख वेदों में आता है। ऋग्वेद के दशम मंडल एवं यजुर्वेद व अथर्ववेद में कुम्भ शब्द समस्त संसारवासियों के लिए शुभ कर्मों के अनुष्ठान हेतु आता है। पूणर्: कुम्भेऽधिकाल आग्हिस्तं वै पश्यामो बहुधा नु संत:। सह इमा विश्वाभवनानि प्रत्यंकाले तमाहु परमेश व्योमन्Ó अथर्ववेद में ब्रह्माजी का कथन है- हे पृथ्वी! मैं तुम्हें दूध, दही और जल से पूर्ण चार कुम्भों को चार स्थान पर देता हूं। चतुर: कुम्भय चतुर्था ददामि क्षीरेण पूर्णाम उद्केनदध्नाÓ पुराणों के अनुसार पहले चाक्षुष मनवंतर में देव दानवों ने भगवान विष्णु की सहायता से समुद्र मंथन किया। स्कंद पुराण के अनुसार समुद्र मंथन से कालकूट विष के अतिरिक्त तेरह रत्न प्रकट हुए जिसमें से एक अमृत कलश भी था। अन्य पुराणों के अनुसार जब देवगुरु वृहस्पति के संकेत से इन्द्रपुत्र जयंत अथवा कल्पभेद से गरुण जो उस समय कुम्भ को लेकर भागे, उस समय समस्त देव-दानव उनका पीछा किए। उनमें परस्पर 12 दिन (देवताओं का दिन) तक संघर्ष चलता रहा। उस समय सुरक्षा की दृष्टि से कुम्भ को 12 स्थानों पर रखा गया जिसमें से 8 स्वर्ग के थे तथा चार स्थान पृथ्वी के थे। पृथ्वी के चारो स्थान हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक हैं। चंद्रमा ने कुम्भ को ढरकने से, सूर्य ने टूटने से, गुरु ने दैत्यों की छीना-झपटी से तथा शनि ने इन्द्र के भय से रक्षा की। जैसा कि कहा गया है- पृथिव्यां कुम्भ योगस्य चतुर्थाभेद उच्यते। चतु:स्थले निपनात् सुधा कुम्भस्य भूतले।। इन्द्र:प्रस्रवगात् रक्षां सूर्यो विस्फोटनात् रधौ। दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षां सौरि: देवेन्द्रजात् भयात।।Ó
कुंभ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूंदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र श्जयंतश् अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के 4 स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूंदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर 12 दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के 12 दिन मनुष्यों के 12 वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी 12 होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष 8 कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं।
-संकलित