07-Dec-2017 08:12 AM
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हम प्राय: रोज ही अखबारों में दहेज के लिए किसी स्त्री को जलाए जाने या उसे प्रताडि़त किए जाने की खबर पढ़ते हैं। एक धक्के की तरह आती हैं ऐसी खबरें, सुबह-सुबह, लेकिन वे कहीं सामान्य-सी भी हो गई हैं, मानो इसका कोई उपचार ही नहीं है। प्रेमचंद के जमाने से दहेज-प्रताडऩा को लेकर साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में बहुत कुछ लिखा गया है। आज भी लिखा जाता है, यही मान कर कि उसका कुछ असर तो किसी न किसी पर होगा ही। पर दहेज प्रताडऩा और हत्याओं की व्याधि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही है! खुद मध्यवर्ग ज्यादा इस प्रथा को पोसता आया है और अब इसने भयंकर रूप ले लिया है। बात मारपीट, गाली-गलौज और झगड़े-बहस तक ही सीमित नहीं रह गई है, किसी स्त्री को छत या बालकनी से फेंक देने, जला दिए जाने की खबरों में कोई कमी आती दिख नहीं रही है। कभी-कभी लगता है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता ऐसी घटनाओं के बाद उस घर के बाहर जम कर धरना-प्रदर्शन क्यों नहीं करते, जिससे कि समूचा मुहल्ला या क्षेत्र कुछ जागे। उन स्त्रियों के लिए भी मोमबत्ती हाथ में लेकर विरोध प्रदर्शन हों, जो मारी जाती हैं। वयस्क स्त्रियों से लेकर नन्हीं बालिकाओं तक से बलात्कार, दहेज हत्याएं, भेदभाव की जैसी दहला देने वाली खबरें आ रही हैं, वे बेहद शर्मनाक हैं।
यह एक नई मानसिकता बनी है कि पैसा आना चाहिए, चाहे जैसे आए। इसलिए बहुतों के लिए दहेज मानो पैसा उगाहने की प्रथा बन गई है। दहेज में भारी-भरकम रकम की अपेक्षा की जाती है। मोटर वाहन, फ्रिज, टीवी तो मानो दहेजÓ के साथ आने वाली सामान्य चीजें हो गई हैं। त्रासदी यह कि दहेज सहित बहू के घर आ जाने के बाद भी वसूलीÓ जारी रहती है। बेटी की खुशी के लिए उसके मायके वाले तरह-तरह की मांगें पूरी करते हुए थक जाते हैं, पर मांगे खत्म नहीं होतीं, और एक दिन वह भी आता है, जब कोई मांग पूरी न होने पर, बेटी की बलि चढ़ जाती है। ससुराल वालों की धर-पकड़ होती है, वे जेल भी जाते हैं। यह बात अपने आप में कितनी क्रूर लगती है कि एक स्त्री-देह दहेज के लिए पहले तो प्रताडऩा सहती रहती है, अपने ऊपर किए गए आक्रमण और हत्या भी। भाग्यशाली होती हैं वे लड़कियां जिन्हें ससुराल में अपनापन मिलता है, अपनी तरह से जीने-रहने की आजादी भी मिलती है, लेकिन बहुतों के हिस्से में तो दिन भर खटना, मानसिक-शारीरिक यातना सहना ही लिखा होता है।
इसी स्त्री-यातना के चलते पिछले दिनों एक पिता को यह तक कहना पड़ा कि अगर सरकार बेटियों की रक्षा नहीं कर सकती तो कन्या-भ्रूण हत्या की छूट दे दी जाए!Ó दहेज का लालच या दानव सिर्फ उन्हें नहीं दबोचता जो साधनहीन हैं, यह उनको भी अपनी गिरफ्त में लिए हुए है, जिनके पास पहले से ही मकान-गाड़ी आदि हैं। पर उन्हें चाहिए इस संपत्ति में इजाफा, घर बैठे दहेज की मार्फत। जो वैवाहिक विज्ञापन हमारे यहां प्रसारित होते हैं, उनमें सब समय दहेज की दबी-छिपी मुखर इच्छा झलकती रहती है- आपका बजट क्या है?Ó लड़कियों के माता-पिता लड़की के जन्म लेते ही उसके विवाह के लिए मानो एक अलग गुल्लकÓ बना लेते हैं। बेटी का विवाह करना है तो पैसे चाहिए ही!
राजेंद्र यादव का चर्चित एक उपन्यास पहले प्रेत बोलते हैंÓ नाम से छपा था। फिर रामधारी सिंह दिनकर की काव्य पंक्तियों सेनानी करो प्रयाण अभय, सारा आकाश तुम्हारा हैÓ से प्रेरित होकर उन्होंने इसका नामकरण सारा आकाशÓ किया था। यह उपन्यास उसी घुटन भरी जिंदगी की कथा कहता है, जहां प्रताडऩा के हजार बहाने ढूंढ़ कर स्त्री को प्रताडि़त किया जाता है। इस हद तक कि वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाती है। उम्मीद बंधी थी कि शिक्षा के प्रसार के साथ आधुनिक जीवन से पैदा होने वाली नई समझ के कारण, दहेज-हत्याओं और आत्महत्याओं में कमी आएगी, लेकिन वह उम्मीद सही साबित नहीं हुई है। पढ़े-लिखे परिवारों से लेकर धनी-मानी घरों में भी स्त्री-प्रताडऩा की बहुतेरी खबरें सामने आई हैं।
घरेलू हिंसा कानून है सास और बहू दोनों के लिए
सास-बहू के बीच झगड़े होना आम बात है। परंतु, जब सास अपनी बहू के क्रियाकलापों से खुद को असुरक्षित व मानसिक रूप से दबाव महसूस करे तो इस रिश्ते से अलग हो जाना ही उचित है। बदलते समय और बिखरते संयुक्त परिवार के साथ सास-बहू के रिश्तों में भी काफी परिवर्तन आया है। एकल परिवार की वृद्धि होने के कारण लड़कियां प्रारंभ से ही सासविहीन ससुराल की ही अपेक्षा करती हैं। वे पति व बच्चे तो चाहती हैं परंतु पति से संबंधित अन्य कोई रिश्ता उन्हें गवारा नहीं होता। शायद वे यह भूल जाती हैं कि आज यदि वे बहू हैं तो कल वे सास भी बनेंगी। हम मानें या न मानें, फिल्में व धारावाहिक हमारे भारतीय परिवार व समाज पर गहरा असर डालते हैं। पुरानी फिल्मों में बहू को बेचारी तथा सास को दहेजलोभी, कुटिल बताते हुए बहू को जला कर मार डालने वाले दृश्य दिखाए जाते थे। कई अदाकारा तो विशेषरूप से कुटिल सास का बेहतरीन अभिनय करने के लिए ही जानी जाती हैं। आजकल की सास-बहू सीरीज धारावाहिकों का फलक इतना विशाल रहता है कि उसमें सब कुछ समाया रहता है।
-ज्योत्सना अनूप यादव